“यह फटी-पुरानी चप्पल क्यों रखी है, माँ? भैया से नई क्यों नहीं मँगवा लेतीं?” लाड़ली बेटी ने विधवा माँ को उलाहना दिया।
“अब हम
कहाँ आते-जाते हैं कहीं कि नई चप्पल माँगें!”
माँ
बोलीं।
“तुम
न!” बेटी
ने सोचते हुए कहा, “कल
तो लाजपत नगर बन्द है। परसों मेरे साथ चलना,
नई
चप्पल ख़रीदेंगे।“
बेटी ने लाड़ से माँ के गले में बाहें डालीं,
और
उनकी चेन का स्पर्श पाते ही बड़े मनुहार से बोली,
“तुमने दीदी के बेटे के ब्याह पर उसकी बहू
को सोने का हार दिया। मेरी बेटी को कब दोगी?”
माँ मुस्कराईं,
“जब उसकी शादी होगी।“
“उसकी
शादी में तो कई साल लगेंगे। तब तक, पता
नहीं, तुम
रहोगी भी कि नहीं!” बेटी
ने नन्हे मासूम बच्चों-जैसा हठ किया।
माँ ने चुपचाप आलमारी से गहने का डिब्बा
निकाल कर बेटी को थमा दिया।
“तुम्हें
तो जल्दबाज़ी मच जाती है!” बोलते
हुए बेटी ने तत्परता से डिब्बा खोल आभूषण का निरीक्षण किया।
अगले दिन बेटी को सामान बाँधते देख माँ को
हैरत हुई।
“माँ,
पहले
से टिकट कटा हुआ है न!” बेटी
ने खेद व्यक्त किया।
“थोड़ा
और रुक जातीं। कल चप्पल लेने भी जाना था।“
माँ
ने आग्रह किया।
“अब
तुम्हीं को मन नहीं है तो क्या करें? कहती
हो कि बुढ़ापे में कहीं आती-जाती नहीं हो।“
बेटी
ने मधुर मुस्कान के साथ सूटकेस बन्द कर दिया।
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