कोई घण्टा-भर बेतहाशा उठा-पटक मचाने के बाद काले-धूसर बादलों ने आख़िर अपनी राह पकड़ी और तब एक हाथ में झाड़ू और दूसरे में फ़र्श पोंछने का सामान लेकर कमला हरिवल्लभ के कमरे में दाख़िल हुई। घर के अन्य कमरों की ही तरह यह कमरा भी पानी-पानी हो रहा था - सीलन-भरी दीवारों से मछली-बाज़ार की-सी हल्की-हल्की गन्ध भी आ रही थी। हरिवल्लभ ने कितनी बार कहा मकान-मालिक से कि पक्की ईंटों की दीवार पर मिट्टी का लेप गोदरेज की तिज़ोरी पर टाट के पर्दे-जैसा लगता है, पर मकान-मालिक लोटन साव ने हर बार सुनी-अनसुनी कर दी, कहा - ’’सफ़ेदी करा ही दी है, फिर मिट्टी क्या और चूना-सीमेंट क्या!’’ और, एक बार तो उसने यह भी कह दिया - ’’तिज़ोरी पर टाट के पर्दे का महत्व क्या समझें आप पढ़े-लिखे लोग! मिट्टी आखिर मिट्टी है, परम सत्य - उसे क्या पाएँगे चूना-सीमेण्ट?’’ यह तो गनीमत थी कि उसने फ़र्श मिट्टी का नहीं छोड़ा था, सीमेण्ट का बनवा दिया था, अन्यथा स्थान-स्थान से झाँकता खपरैल का बुढ़ापा कमरों में ही धान की खेती की गुंजायश कर देता।
कमला ने जल्दी-जल्दी झाड़ू से समेट कर यत्र-तत्र बिखरे पानी को चौखट के नीचे बने पतले सुराख़ तक पहुँचाया, पर उतनी सम्पत्ति समेट सकना उस ग़रीब के लिए सम्भव न था। कमला खीझ उठी - ’’किराया हर महीने पहली तारीख़ को, लेकिन टपका दिलवाने के नाम पर नानी मरती है। चोर कहीं के।’’ उसकी यह खीझ अकारण भी नहीं थी। अब सात बज रहे थे और वर्षा भी थम गयी थी - हरिवल्लभ आने ही वाला था। उसने वहीं से पुकारा - ’’रूपा बेटी, ज़रा एक गिलास या कटोरी दे जा।’’ फिर स्वगत बोली - ’’ज़रा पानी पिला दूँ साव के पितरों को!’’
सब्ज़ी छौंक रही रूपा ने अविलम्ब आदेश का पालन किया, वह एक गिलास दे आयी अपनी माँ को।
कमला ने उलीच-उलीच कर पानी को टिपकारी किये हुए बरामदे पर फेंका, जहाँ से वह सहज ही ढुलक कर आँगन में पहुँच गया।
लेकिन अन्ततः हुआ वही, जिसकी कमला को आशंका थी। अभी उसने आधा कमरा ही पोंछा था कि हरिवल्लभ के कदमों की आहट सुनाई पड़ी। उसने तनिक पीछे मुड़ कर देखा, फिर सिर का पल्लू ठीक करते-करते सहज मुस्कान के साथ उसका स्वागत किया। मुस्कुराहट का उत्तर भी मुस्कुराहट से ही मिला - इसके साथ ही हरिवल्लभ का एक पैर भी कमरे में आ गया। पर तभी कमला चीख पड़ी - ’’हाँ, हाँ, जूते!’’ हरिवल्लभ को तुरन्त ही अपनी भूल का एहसास हो गया। उसने बाहर निकल कर दरवाज़े पर अपने जूते उतारे, फिर पंजों पर चल कर वह खूँटी के पास पहुँचा और कपड़े उतारने लगा।
कुर्ता उतारते-उतारते ही उसने कहा - ’’तो आज भी गंगा-यमुना बही थी यहाँ!’’
’’कृपा है सावजी की! कैसे सूखा पड़ने दें ग़रीब के घर!’’ - बोल कर कमला पानी से सराबोर झाड़न लिये उठ खड़ी हुई। बरामदे पर जाकर उसने उसे आँगन में निचोड़ा, फिर वापस आकर कमरे को पोंछते-पोंछते कहा - ’’सच, तुम एक बार साफ़-साफ़ बात करो सावजी से। या तो वे टपका दिलवा दें या फिर हमें ही इजाज़त दें - हम मरम्मत करवा कर किराये से रुपये काट लेंगे। आखिर, कब तक चलेगा इस तरह? यदि धूप-पानी से ही रक्षा नहीं हुई, तो क्या फ़ायदा घर का!’’
हरिवल्लभ अब तक खाट पर बैठ चुका था, बोला - ’’यही तो बात है अरुण की माँ। साव शायद चाहता है कि हम किसी तरह उसका मकान ख़ाली कर दें, ताकि उसे पचास के बजाय पचहत्तर मिलने लगें।’’
’’उँह, कौन देगा पचहत्तर इस सड़ियल मकान का! मैं तो कहती हूँ, हम ख़ाली कर दें तो कोई पचास भी नहीं देगा।’’ - कमला ने पूर्ववत् फ़र्श पर हाथ चलाते हुए कहा।
’’ऐसा नहीं है, अरुण की माँ। बड़ा बुरा हाल हो गया है मकानों का। किराये दनादन बढ़ते जा रहे हैं और उसके साथ ही मकान-मालिक एक-एक कर पुराने किरायेदारों को निकाल रहे हैं। फिर, साव को ही क्या कहा जाए!’’ - हरिवल्लभ ने निराश स्वर में कहा।
’’अच्छा?’’ - कमला ने हाथ रोक दिया - ’’लेकिन फिर भी, एक बार कह कर तो देखो।’’
’’कहा था, भई, आज सवेरे दफ़्तर जाते समय ही कहा था। ... ’’
’’फिर क्या कहा उसने?’’ - कमला ने अपनी उत्सुक आँखें हरिवल्लभ के चेहरे पर गड़ा दीं।
’’पहले तो बोला कि आजकल हाथ ज़रा तंग है, लेकिन जब मैंने ख़ुद मरम्मत करा कर किराये से पैसे काट लेने की बात कही, तब कहने लगा कि आप तो पराये-जैसी बात कर रहे हैं; किराया इतना कम है, तो क्या छोटी-मोटी मरम्मतें भी नहीं कराएँगे। अब भला मैं क्या कहता, चुपचाप चला आया। इसलिए, टपका तो, भई, लगता है, अपने ही पैसे से दिलवाना होगा।’’
’’अरे वाह,’’ - कमला तड़प उठी - ’’साव ने कह दिया और हमने मान लिया। फिर तो जी लिये हम। ज़रा शिक़ायत कर दो रेंट-कण्ट्रोलर के यहाँ, तो होश ठिकाने आ जाएँ साव के। आख़िर, नियम-कानून भी तो कुछ है।’’
’’वह तो है, अरुण की माँ, लेकिन अगर कहीं उसने दावा ठोक दिया कि उसे अपने लिए मकान की ज़रूरत है, तो फिर अदालत के दरवाज़े खटखटाते फिरना पड़ेगा। बताओ भला, आठ-दस रुपये के पीछे यह आफ़त मोल लेना क्या ठीक होगा? इसलिए मैं तो यही समझता हूँ कि कहीं से कतर-ब्योंत करके ख़ुद ही टपका दिलवा दें।’’
कमला चिन्ता में पड़ गयी - उसका हाथ पुनः फ़र्श पर दौड़ने लगा। आठ-दस सेकण्ड कमरे में पूरी तरह सन्नाटा छाया रहा, फिर जैसे ख़ुद से ही बात कर रही हो, वह बोलने लगी - ’’अब कहाँ से करूँ कतर-ब्योंत। ... रूपा के पास एक भी साबुत ब्लाउज़ नहीं है, जवान लड़की नंगी रहती है; अरुण रात-भर ठाँय-ठाँय ख़ाँसता रहता है, उसके लिए दवा नहीं आ पा रही है; तरुण की पूरी किताबें भी नहीं आयीं अब तक, आज ही एक कॉपी के लिए रकट रहा था; ख़ुद तुम्हारे जूते की क्या दशा हो गयी है। ... अब क्या करूँ, कहाँ से करूँ। न नौकर, न चाकर, न गहने-कपड़े का शौक़, कपड़े तक घर में धोती हूँ, धोबी नहीं लगाती, फिर भी यह हाल। कुछ हो, तो आदमी कतर-ब्योंत भी करे - ख़ाली हवा में तो कैंची नहीं चलती।’’ और, उसने कन्धे पर खिसक आये साड़ी के पल्लू को पुनः सिर पर खींच लिया।
घर की अन्य चीज़ों की ही भाँति जर्जर पल्लू ने भी कमला के कथन का समर्थन किया - उसने अपना हृदय चीर कर एक मोटी-काली रेखा दिखा दी हरिवल्लभ को, और हरिवल्लभ आत्मग्लानि के सागर में डूबने-उतराने लगा। कुल ढाई सौ रुपये वेतन; पाँच व्यक्तियों का परिवार; टूटा-फूटा तीन कमरों का मकान और पचास रुपये किराया; पचास रुपये अरुण की इंजीनियरी की पढ़ाई का ख़र्च; ग्यारहवीं में पढ़ रही रूपा; आठवीं का छात्र तरुण; रूखा-सूखा भोजन; मोटे-झोंटे कपड़े; नौकरानी की तरह सुबह पाँच से रात के ग्यारह बजे तक खटनेवाली कमला; बेटी-बेटों की तरसती हुई नज़रें और उनके मुँह से बूढ़ों जैसी दार्शनिक बातें; तकियों के ग़िलाफ़ों, बिस्तरों की चादरों और अल्युमीनियम तथा पीतल के सस्ते बर्तनों से झाँकनेवाली दरिद्रता; सब एक साथ झकझोरने लगे उसे - ’’तुम कायर हो, तुम अक्षम हो; तुम बाप नहीं हो, पति नहीं हो ... ’’ और, वह पसीना-पसीना हो उठा।
तभी कमला का स्वर सुनाई पड़ा - ’’किस चिन्ता में पड़ गये तुम भी? अरे, भगवान् सब पार लगाएगा। चलो उठो, हाथ-मुँह धोओ, चाय लाती हूँ।’’ और, वह जिस तरह कमरे में आयी थी, उसी तरह एक हाथ में झाड़ू और दूसरे में झाड़न-गिलास लिये कमरे से निकल गयी।
हरिवल्लभ भी एक निर्जीव कठपुतली-सा उठ खड़ा हुआ और आँगन में लगे नल पर जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। वहीं से उसने बरामदे के एक कोने में चूल्हे के पास बैठी रूपा को देखा, जो एकाग्रचित्त न-जाने क्या देख रही थी कोयलों की लाली में। हरिवल्लभ से यह न देखा गया। उसने उसे लक्ष्य कर पूछा - ’’अरु-तरु कहाँ हैं, रूपा?’’
रूपा की तन्द्रा भंग हुई। उसने जवाब दिया - ’’अभी लौटे नहीं, बापू। पानी के चलते कहीं बिलम गये होंगे।’’
अब क्या कहे हरिवल्लभ? उसे कोई सवाल ही नहीं सूझ रहा था। तभी कमला ने आकर रूपा से पूछा - ’’पानी हो गया, बेटी?’’
हरिवल्लभ की जान बच गयी।
’’हाँ, माँ, चाय डाल रही हूँ।’’ - रूपा का यह उत्तर सुनते-सुनते ही हरिवल्लभ अपने कमरे की ओर बढ़ने लगा। इस समय उसके दिमाग़ में एक नया ही सवाल कौंध रहा था - ’’लड़की सयानी हो गयी और जमा-पूँजी के नाम पर एक पैसा नहीं। कैसे क्या होगा?’’ उसका पूरा शरीर काँप गया एक बार। वह जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा कर अपने कमरे में घुस गया, पर मुक्ति नहीं मिली उसे - ’’कैसे क्या होगा’’, ’’कैसे क्या होगा’’, ये तीन छोटे-छोटे शब्द मथते रहे उसके मानस को।
निराशा की चरम सीमा पर पहुँच कर वह सोचने लगा - ’’काश, मैंने यह पेशा न अपनाया होता। बहुत बड़ी ग़लती हो गयी मुझसे! कान्त, महेश, रघु, सब कहीं पीछे थे मुझसे - सेकंड डिवीज़नर, पर आज कोई डिप्टी सेक्रेटरी है, तो कोई ज़िला मजिस्ट्रेट और कोई डी. आइ. जी.। कितना कहा था लोगों ने मुझसे कि पी. सी. एस. में बैठ जाओ। तेज़ लड़के हो, फ़र्स्ट डिवीज़नर, अंग्रेज़ी में डिस्टिंक्शन भी पाया है, निश्चय ही निकल जाओगे। पर मुझ पर तो जैसे भूत सवार था कि बनूँगा, तो पत्रकार ही - जनता का सेवक बनूँगा, शासक नहीं। ... ’’ और, उसकी आँखों के सामने दैनिक ’जनसेवक’ का वह सम्पादकीय कमरा नाच गया जिसमें बैठ कर उसने पूरे दस वर्ष तक काम किया था और उप-सम्पादकी से उठते-उठते समाचार-सम्पादक के पद तक जा पहुँचा था; लेकिन तभी सुबह-शाम-दिन-रात की ड्यूटी के कारण अपरिहार्य खान-पान-शयन की अनियमितता ने उसके स्वास्थ्य पर कुठाराघात कर दिया था - जाड़े की रात में भी काम करते-करते उसे बेहद गर्मी लगने लगती थी और वह बाथ-रूम में घुस कर नहा आता था। उसके बाद तो उसे अक्सर ही ग़श भी आने लगा था और तब डॉक्टर ने उसे कड़ी हिदायत दी थी कि किसी भी क़ीमत पर वह अपनी दिनचर्या को नियमित करे, अन्यथा उसका शरीर उसका साथ छोड़ देगा। फलतः उसे ’जनसेवक’ की चार सौ रुपये की नौकरी छोड़ कर कलकत्ता के सुप्रसिद्ध साप्ताहिक ’मानव’ में तीन सौ रुपये पर सहायक सम्पादक का पद स्वीकार करना पड़ा था - केवल इस कारण कि वहाँ दिन-दिन में ही काम करना पड़ता - जीवन नियमित होता।
’मानव’ की याद आते ही घृणा और क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा, मुट्ठियाँ भिंच गयीं। वह बुदबुदाया - ’’साले कुत्ते, मानवता के शत्रु!’’ उसका यह आक्रोश अकारण भी नहीं था - इसका कारण था, और बड़ा उचित कारण था। ’मानव’ में सहायक सम्पादक के रूप में उसका छठा वर्ष था, जब सम्पादक गिरिधारीलाल शर्मा वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण त्यागपत्र देकर गाँव चले गये। चूँकि हरिवल्लभ का काम काफ़ी अच्छा रहा था और वही सहायक सम्पादक भी था, इसलिए स्वयं शर्माजी ने पत्र के संचालक से सिफ़ारिश की थी कि उसे सम्पादक का पद दिया जाना चाहिए। पर सम्पादक के पद पर नियुक्त किया गया ’भैरव’ जी को, जो एक कॉलेज में लेक्चरर थे और एक कवि के रूप में जिन्हें थोड़ी प्रसिद्धी मिल गयी थी। लेकिन उनकी सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि वे संचालक के एक श्रद्धापात्र साहित्यकार के पिछलगुए थे। बस, इसी कारण इस बात की कोई परवाह किये बिना ही कि उन्हें पत्रकारिता का तनिक भी अनुभव नहीं था, उन्हें ’मानव’-जैसे लोकप्रिय साप्ताहिक का सम्पादक बना दिया गया। हरिवल्लभ को, स्वभावतः ही, बड़ा सदमा पहुँचा इस बात से - सदमा इस बात का नहीं था उतना कि उसकी पदोन्नति नहीं हुई, जितना इस बात का था कि एक अनाड़ी के नीचे उसे काम करना पड़ेगा। और, जब ’भैरव’ जी ने अपने अनाड़ीपन को ही विज्ञता सिद्ध करने का अभियान ज़ोर-शोर से शुरू कर दिया - जब ब्लॉक बनाने के लिए भेजे जानेवाले चित्रों की लम्बाई-चौड़ाई, सानुपातिकता को ताक पर रख कर, मनमाने ढंग से स्पष्ट करने और न्यूज़प्रिंट पर छपनेवाले ब्लॉक का स्क्रीन दो सौ माँगने का आदेश होने लगा; जब साहित्यिक ’वादों’ पर ही पचास प्रतिशत लेख छपने लगे और कविता में फ़िल्मों की आलोचना लिखी जाने लगी; जब सही अनुवाद को काट कर ग़लत किया जाने लगा और शीर्षकों के प्वायंट पचास और पचहत्तर लिखे जाने लगे; और जब ब्लॉकवाले विज्ञापनों की भूलों के लिए प्रूफ़-रीडरों को बर्ख़ास्तगी की धमकी मिलने लगी - तक एक दिन ’भैरव’ जी को ख़ूब ख़री-खोटी सुना कर उसने साढ़े चार सौ की नौकरी को लात मार दी।
इसके बाद उसने नौकरी न करके केवल लेखों के सहारे आजीविका कमाने का निश्चय किया, पर साल-सवा साल बीतते-न-बीतते - जमा पूँजी के ख़त्म होते ही - उसे अपना इरादा बदलना पड़ा। तीन महीने बाद लेखों की प्राप्ति की सूचना, उसके छः महीने बाद प्रकाशन और प्रकाशन के छः महीने बाद पारिश्रमिक - इतनी महँगी साहित्य और जन-सेवा की उसकी औक़ात न थी। उसे पुनः नौकरी की तलाश में निकलना पड़ा। पर नौकरी कहाँ रखी थी उसके लिए - न तो वह किसी गुट का आदमी था और न किसी राजनीतिक आदमी की सिफ़ारिश थी उसके पास। दैनिक पत्रों में अवश्य ड़ेढ़-दो सौ की उप-सम्पादकी मिलती थी उसे, पर कमला दैनिक पत्र में काम करने के सर्वथा विरुद्ध थी। सो, बड़ी ख़ाक छानने के बाद पटना के मासिक ’वसुन्धरा’ में उसे ढाई सौ रुपये मासिक पर सहायक सम्पादक का काम मिला। अब इतनी दुर्लभ नौकरी छोड़ने की उसमें हिम्मत न थी और इसीलिए पाँच साल की अवधि में वेतन में एक पैसे की भी वृद्धि न होने के बावजूद वह उससे चिपटा हुआ था। हाँ, प्रशंसा अवश्य मिलती थी उसे - संचालक चोखाणीजी से भी और सम्पादक ’विमुक्त’ जी से भी। वस्तुतः यह प्रशंसा ही थी, जो उसके असन्तोष के घाव पर मरहम का काम देती थी। और, अब तो पिछले छः महीने से वह सारा-का-सारा काम अकेले ही सम्भाल रहा था - ’विमुक्त’ जी के निधन के बाद से चोखाणीजी कोई नया आदमी रखने के बारे में चुप्पी साधे बैठे थे।
’’क्या जाने, क्या है सेठ के बच्चे के मन में।’’ - हरिवल्लभ होठों में ही बुदबुदाया - ’’ऐसा भी कोई पेशा है इस दुनिया में, जिसमें इक्कीस-बाईस साल काम करने के बाद भी आदमी जहाँ-का-तहाँ बैठा रहे, बल्कि और नीचे चला जाए? कहने को लोग कहते हैं कि पत्रकारिता एक टेक्निकल धंधा है, लेकिन संसार के किस टेक्निकल धंधे में उस काम का क-ख भी नहीं जाननेवाले किसी भूत को पुराने-अनुभवी कारीगरों के सिर पर बैठा दिया जाता है? किसी नौसिखिए कम्पाउंडर को सर्जरी का प्रोफ़ेसर बनाया जा सकता है क्या? किसी अमीन को सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर बनते देखा है किसी ने? किसी लेबोरेटरी असिस्टेण्ट को अचानक परमाणविक अनुसन्धान का निदेशक बना दिया जाए, तो कैसा रहे? ... छिः, क्या पेशा है यह भी - काम करे कोई, और वाहवाही तथा पैसे मिलें किसी और को। ... लेकिन अब क्या हो सकता है? इस अधेड़ उम्र में मैं किस लायक रह ही गया हूँ! ... ’’
तभी कमला और रूपा कमरे में दाख़िल हुईं। कमला के हाथ में चाय की एक प्याली थी और रूपा के दो। कमला ने अपने हाथ की प्याली हरिवल्लभ को थमा दी और एक प्याली रूपा के हाथ से लेकर स्वयं पीने लगी। उस घर में यह परम्परा-सी बन गयी थी कि सुबह और शाम की चाय सब लोग एक साथ पिएँ - आत्मीयता और परस्पर-स्नेह का यह भाव ही तो दरिद्रता के संताप को कुछ कम करता था।
हरिवल्लभ चाय की एक चुस्की लेते हुए बड़बड़ाया - ’’पता नहीं, कहाँ रह गये दोनों।’’ फिर रूपा से पूछा - ’’कुछ कह कर नहीं गये?’’
’’भैया तो लॉन में फुटबॉल मैच देखने गये थे और तरु अपने किसी साथी से किताब माँगने गया है।’’ - रूपा ने सरल भाव से उत्तर दिया।
पर इस उत्तर ने हरिवल्लभ के दिमाग़ की एक नस टनाक से बजा दी। बेचैनी की हालत में उसने चाय की ताबड़तोड़ कई चुस्कियाँ लीं, फिर कमला से कहा - ’’चाहे जैसे भी हो, उसकी बाक़ी किताबें मँगा दो। परसों पहली है, तरसों उसे किताबें ज़रूर ले दो।’’
कमला ने उत्तर कुछ नहीं दिया - केवल हरिवल्लभ को एक बार देखा, फिर प्याली मुँह से लगा ली। इस समय उसके चेहरे पर एक ऐसा शून्यता का भाव था, जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता।
चाय-पान हो चुकने पर रूपा रसोई देखने चली गयी, और तब कमला ने बड़े स्नेह-विह्वल स्वर में हरिवल्लभ से पूछा - ’’आज इतना परेशान क्यों हो रहे हो तुम? क्या बात है? क्या सोच रहे हो?’’
हरिवल्लभ का हृदय भर आया, रुँधे स्वर में बोला - ’’मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गयी, कामू। मुझे यह धंधा नहीं चुनना चाहिए था।’’
कमला समझ गयी हरिवल्लभ का आशय, बोली - ’’तुम बेकार दिल छोटा कर रहे हो। तुमसे कोई ग़लती नहीं हुई। पत्रकारिता कोई धंधा थोड़े ही है, यह तो धर्मक्षेत्र है, और धर्मक्षेत्र में त्याग-बलिदान करना ही पड़ता है। जितना बड़ा त्याग-बलिदान, उतनी ही बड़ी उपलब्धि। पैसे से तो मूल्यांकन न करो इस सेवा-धर्म का।’’
पर हरिवल्लभ को आश्वस्त न कर सके सान्त्वना के ये शब्द। वह आहत स्वर में बोला - ’’धर्मक्षेत्र पहले था, कामू, जब लोग त्याग और सेवा का भाव लेकर इसमें आते थे। अब तो यह एक धंधा है, विशुद्ध धंधा - संचालकों के लिए भी और नौकरों के लिए भी। बस, पैसा आना चाहिए - चाहे जितना धोखा करना पड़े, जितनी ज़हालत उठानी पड़े। सच मानो, आज जनता को जितना धोखा पत्र-पत्रिकाएँ देती हैं, उतना और कोई नहीं देता - लेखों, कहानियों और कविताओं से लेकर विज्ञापनों तक में धोखा-ही-धोखा होता है। और फिर भी, ... जब मेरी बीवी-बेटी नंगी हैं, मेरे बेटे भूखे-नंगे हैं, ठीक से पढ़-लिख तक नहीं सकते। ... आख़िर क्या है यह सब? हम किस दुनिया में रह रहे हैं? ऐटमी युग तो, निश्चय ही, नहीं है यह।’’
’’नहीं है, तो न रहे। बहुतेरे लोगों के लिए नहीं है। सिर्फ हम पर ही तो लागू नहीं होती यह बात। इसलिए बेकार सोच-सोच कर क्यों परेशान हों। बस, तीन साल की बात है। अरुण इंजीनियर बना नहीं कि सारी मुश्क़िलें ख़त्म।’’ - कमला ने आश्वासन का दूसरा नुस्ख़ा आज़माया।
हरिवल्लभ कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला - ’’न हो, सोचता हूँ, शाम का कोई ट्यूशन पकड़ लूँ, जो पच्चीस-तीस आ जाएँगे।’’
’’ट्यूशन?’’ - कमला चिन्ता में पड़ गयी। इस उमर में इतनी मेहनत क्या हो सकेगी इनसे? ग़रीबी ने इन्हें यों ही पाँच साल ज़्यादा बूढ़ा बना दिया है - फिर क्या होगा इस अतिरिक्त परिश्रम का फल? उसने तुरन्त बात का रुख़ पलट दिया - ’’तुम चोखाणीजी से ही बात क्यों नहीं करते। आखिर, सम्पादक तो उन्हें चाहिए ही। ’विमुक्त’ जी को चार सौ देते थे - तुम्हें तीन-साढ़े तीन सौ ही दे दें।’’
’’बात चलायी तो थी - तुम्हें बताया नहीं था?’’ - हरिवल्लभ ने एक चुभती दृष्टि कमला के चेहरे पर डाली - ’’बोले, सोचूँगा, सो अब तक सोच ही रहे हैं। मेरा ख़याल है, वे ’विमुक्त’ जी-जैसा ही कोई विशेष अनुभवी-विद्वान् चाहते हैं सम्पादक-पद के लिए।’’
’’तो तुम नहीं हो अनुभवी-विद्वान्? तीन-चार सौ रुपये में और कितना बड़ा विद्वान् लेंगे वे? वह तो एक ’विमुक्त’ जी ही थे, सन्त-वैरागी आदमी, जो इतने रुपये पर टिके थे। अब तो अच्छे दैनिक पत्रों में एक उप-सम्पादक को भी चार सौ रुपये मिल जाते हैं।’’
’’सही है, लेकिन यहाँ तो सवाल है ’वसुन्धरा’ का, चोखाणीजी की पसन्द का। बड़े-बड़े दैनिकों की बात सोच कर क्या लाभ?’’
’’लेकिन चोखाणीजी को तो पसन्द है तुम्हारा काम। इन छः महीनों में, जैसा कि तुम कहते थे, ’वसुन्धरा’ का सर्कुलेशन बढ़ा ही है, घटा नहीं है। फिर क्या सवाल पसन्द-नापसन्द का? तुम फिर बात करो उनसे। वे सोचते होंगे कि काम चल ही रहा है, सम्पादक के रूप में भतीजे की पब्लिसिटी भी हो ही रही है, तब क्यों उठाया जाए सम्पादक का सवाल!’’ - कमला एक क्षण के लिए रुकी, फिर बोली - ’’तुम कल ही बात करो उनसे। मेरा मन कहता है, काम बन जाएगा।’’
’’ठीक है, कर लेता हूँ।’’ - हरिवल्लभ को भी न-जाने क्यों ऐसा लगने लगा कि उसके चर्चा छेड़ते ही उसे सम्पादक का पद मिल जाएगा और पलक झपकने-भर की देर में उसकी आमदनी में सौ-पचास की वृद्धि हो जाएगी। कमला, रूपा और अरुण-तरुण के कुम्हलाए चेहरे अचानक ताज़े फूलों में बदल गये और अगले दिन चोखाणीजी से मिलने का उसका निश्चय और पक्का हो गया।
पर अगले दिन सवेरे-सवेरे ही उसके पाँवों-तले से धरती खिसक गयी, जब चोखाणीजी के भतीजे और वसुन्धरा प्रकाशन के मैनेजर विमलजी ने उसे सूचित किया कि तरुण कथाकार सुधीर को ’वसुन्धरा’ का सम्पादक नियुक्त किया गया है और कल वह कार्यभार सम्भाल लेगा। पूछताछ करने पर यह भी मालूम हुआ कि उसका वेतन छः सौ रुपये मासिक होगा।
निष्ठापूर्ण सेवा का ऐसा अपमान! कम-से-कम चोखाणीजी से हरिवल्लभ को ऐसी आशा न थी। यदि सुधीर को ही सम्पादक बनाना था, तो वह स्वयं क्या बुरा था। बाईस साल का अनुभवी पत्रकार, जो वस्तुतः पिछले छः महीने से ’वसुन्धरा’ का सम्पादन भी कर रहा था, केवल तीन-साढ़े तीन सौ रुपये चाहता था, पर चोखाणीजी को पसन्द न आया, और एक ऐसे छोकरे को, जिसका कुछ भी अध्ययन नहीं था, जिसने कभी किसी पत्र का मुँह तक न देखा था, केवल दस-पन्द्रह कहानियाँ छपवा कर गुटबन्दी के सहारे जिसने थोड़ा नाम कमा लिया था, उन्होंने छः सौ रुपये पर नियुक्त कर लिया - यह बात हरिवल्लभ की समझ से बाहर की थी। इसका और कोई उद्देश्य हो ही नहीं सकता था, सिवाय हरिवल्लभ का अपमान करने के। साप्ताहिक ’मानव’ का उदाहरण फिर से दोहराया जा रहा था उसके सामने और लाख निर्धन-अकिंचन होने के बावजूद इतना आत्मसम्मान शेष था उसमें कि ऐसी नौकरी को लात मार कर भूख से तड़प-तडप कर मर जाना पसन्द करता। उसने अविलम्ब अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया - ’त्यागपत्र!’
और, जब निश्चय कर लिया, तब फिर देर किस बात की। उसने जल्दी-जल्दी त्यागपत्र लिखा, उसे एक बार पढ़ा, फिर विमलजी के पास भिजवाने के लिए घंटी टुनटुनायी। पर तभी एक दूसरा विचार उसके मानस में कौंधा - ’’नौकरी तो छोड़नी ही है; फिर चोखाणीजी को दो-चार ख़री-खोटी सुना कर क्यों न छोड़ी जाए! अन्यायी को अपनी क्षमता-भर दण्ड तो देना ही चाहिए!’’ और, उसने टेलीफ़ोन उठा कर पहले आपरेटर से चोखाणीजी का नम्बर माँगा, फिर चोखाणीजी से मिलने का समय। प्रार्थना स्वीकृत हुई - चोखाणीजी ने शाम सात बजे उसे अपनी कोठी पर निमन्त्रित किया।
उस दिन हरिवल्लभ से काम एकदम न हुआ - पाण्डुलिपि, चित्र, प्रूफ़, सब पर उसे दहकते हुए बड़े-बड़े अंगारों के सिवा और कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा था। अतः दोपहर तक तो वह किसी तरह दफ़्तर में बैठा रहा, फिर सिर में ज़ोरों का दर्द होने का बहाना करके घर के लिए रवाना हो गया। लेकिन यह केवल बहाना नहीं था; सचमुच उसे पीड़ा हो रही थी - सिर में नहीं, तो दिल में, दिमाग़ में तो पीड़ा हो ही रही थी।
हरिवल्लभ को असमय लौटते देख कर कमला चौंकी। उसने तुरन्त पूछा - ’’तबीयत तो ठीक है?’’ और उसके ललाट पर अपनी हथेली रख दी।
’’गड़बड़ी ऊपर नहीं है, अरुण की माँ, अन्दर है, भयानक गड़बड़ी है।’’ - बोलते हुए हरिवल्लभ ने उसकी हथेली धीरे से हटा दी।
कमला की समझ में कुछ न आया, सिवाय इसके कि कोई दुर्घटना घटी है। उसने सहज कौतूहलवश पूछा - ’’बात क्या हुई?’’
हरिवल्लभ ने उत्तर कुछ नहीं दिया, सिर्फ जेब से एक कागज़ निकाल कर उसे थमाया और एक दुखिया के भाग्य की तरह बिस्तर पर चारों ख़ाने चित्त पड़ गया।
कमला एक साँस में पढ़ गयी उसका त्यागपत्र, फिर पथरायी आँखों से एकटक हरिवल्लभ को देखते हुए उसने पूछा - ’’कुछ कहा-सुनी हो गयी क्या?’’
’’नहीं, कामू।’’ - हरिवल्लभ ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा - ’’नया सम्पादक आ गया है।’’
’’आँ।’’ कमला का मुँह ख़ुला-का-ख़ुला रह गया। कुछेक क्षण वह पत्थर की मूर्ति की तरह हरिवल्लभ को देखती रही, फिर कुछ चैतन्य आने पर बोली - ’’आ गया, तो आने दो। हमें क्या? चोखाणीजी मालिक हैं; जिसे चाहें, रखें। अपना कोई ज़ोर तो है नहीं उन पर। हम क्यों इतना बुरा माने इसका कि रिज़ाइन कर दें।’’
’’मैं रिज़ाइन इसलिए थोड़े ही कर रहा हूँ कि मुझे सम्पादक नहीं बनाया गया। रिज़ाइन तो इसलिए कर रहा हूँ कि अपने मुक़ाबले में कहीं अयोग्य आदमी के नीचे काम नहीं कर सकता। अपना, अपने पत्रकार का, अपमान मैं कभी नहीं सह सकता।’’ - हरिवल्लभ की आँखों से स्वाभिमान झाँक रहा था।
स्वभावतः ही, प्रश्न हुआ - ’’कौन हुआ है सम्पादक?’’
’’सुधीऽर।’’ - हरिवल्लभ के स्वर में विद्रूप स्पष्ट था।
’’सुधीर कौन? वह लड़का तो नहीं, जो कहानियाँ लिखा करता था और ’मानव’ में अपनी कहानियाँ छपवाने के लिए जो तुम्हारी मिन्नतें किया करता था?’’
’’हाँ, वही!’’ - एक व्यंग्य-भरी मुस्कान हरिवल्लभ के होठों पर तैर गयी।
’’अरे, वह तो तुम्हें गुरुदेव कहता था, तुम्हारे पाँव छूता था।’’
’’हाँ ... लेकिन अब मैं उसके पाँव छुऊँगा।’’ - बोलते-बोलते आवेश से हरिवल्लभ की मुट्ठियाँ बँध गयीं - ’’हुँह, मज़ाक समझ रखा है चोखाणी के बच्चे ने! मैं ज़हर खा लूँगा, लेकिन पैर नहीं छुऊँगा किसी कुपात्र के!’’
’’उसने तो कभी किसी पत्र में काम भी नहीं किया शायद?’’ - विस्मय में डूबी कमला का अगला सवाल था।
’’काम नहीं किया, तो क्या, पत्रों में छपा तो है। सम्पादक बनने के लिए किसी पत्र में काम करने की ज़रूरत भी क्या है। काम तो गदहे करते हैं। बुद्धिमान लोगों के लिए तो इतना ही काफ़ी है कि उनका नाम छपता रहे। कमीने लोग! जिनके सहारे ऊपर उठते हैं, उन्हीं के पेट पर लात मारते हैं।’’ और, आवेश से भर कर हरिवल्लभ उठ बैठा।
इसके बाद थोड़ी देर पूरी निस्तब्धता छायी रही कमरे में, और तब कमला ने कहा - ’’यह तो ठीक है, अपने से हीन आदमी के नीचे काम नहीं करना चाहिए; लेकिन तब ... फिर होगा क्या? कुछ सोचा है तुमने?’’
’’कुछ भी हो! यह बाद की बात है। ... भूख मरने और परेशानी उठाने के डर से आत्मसम्मान नहीं छोड़ सकता मैं। मैं कोई भाड़े का पत्रकार थोड़े ही हूँ। मैंने अपना जीवन अर्पित किया है इसको - एक पवित्र कार्य मान कर अपनाया है इसे! आज शाम होने दो चोखाणीजी से भेंट। उन्हें भी पता चल जाएगा कि मर्सिनरी और जेन्विन पत्रकार में क्या अन्तर होता है।’’
कुछ देर के लिए पुनः शान्ति छा गयी कमरे में और तब फिर कमला ने ही छेड़ा - ’’लेकिन कुछ सोचना तो पड़ेगा ही। सवाल सिर्फ मेरा-तुम्हारा थोड़े-ही है। यदि बेकार हो गये, तो बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा? अरुण इंजीनियर कैसे बनेगा? रूपा की शादी कैसे होगी? यह सब भी तो ... ’’
’’जहन्नुम में जाएँ सब!’’ - हरिवल्लभ क्रोध से काँपता हुआ उठ खड़ा हुआ - ’’गिराने पर तुली है मुझे। क्या होगा? क्या होगा? अब मैं पहले त्यागपत्र दे आऊँ, तभी सोचूँगा कि क्या होगा!’’ - और, वह पैरों में जूते डालते-डालते घर से निकल गया। कमला हतप्रभ देखती रह गयी।
कोई चार घंटे बाद सिनेमा से निकल कर हरिवल्लभ सीधा चोखाणीजी की कोठी पर पहुँचा। हालाँकि अभी सात बजने में बीस मिनट बाकी थे, फिर भी वह रुका नहीं, जाकर चोखाणीजी के बैठकख़ाने में बैठ गया और उनके एक नौकर से बोला - ’’ज़रा ख़बर कर दो सेठजी को।’’ चोखाणीजी ने भी सात बजने की प्रतीक्षा नहीं की, पाँच मिनट बाद ही मुस्कराते हुए बैठकख़ाने में प्रविष्ट हुए। उन्हें देखते ही हरिवल्लभ यन्त्रवत् खड़ा हो गया, उसके हाथ ’नमस्कार’ की मुद्रा में जुड़ गये। चोखाणीजी नमस्कार का उत्तर दे कर सामनेवाले सोफ़े पर बैठते हुए बोले - ’’कहिए, शर्माजी! कैसा चल रहा है काम-धाम?’’
’’जी, ठीक ही है सब।’’ - बिना किसी आभास के ही ये शब्द निकल गये हरिवल्लभ के मुँह से और इतने नम्र रूप में निकले कि उसे स्वयं ही आश्चर्य होने लगा।
अब पुनः चोखाणीजी ने ही बातचीत का सिलसिला शुरू किया - ’’आपका नया अंक देखा। बहुत सुन्दर है। वास्तव में, इसे ही कहते हैं पत्रकार का हाथ - जिसे छू दे, वह चमक जाए। ... ’’
’’जी, आप तो प्रशंसा ... ’’
’’झूठ थोड़े ही कह रहा हूँ। प्रशंसा-योग्य वस्तु की प्रशंसा तो होनी ही चाहिए। क्यों, मैं ग़लत कहता हूँ?’’
’’जी, अब मैं क्या कहूँ? आप कहते हैं, तो ... ’’ - हरिवल्लभ ने लजाते हुए कहा, और इसके बाद चोखाणीजी उसे अगले अंक के बारे में कुछ परामर्श-निदेश देने लगे।
कोई दस मिनट इसी तरह बीते और तब हरिवल्लभ को अपने असली उद्देश्य की याद आयी। लेकिन बात शुरू कैसे की जाए, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
आख़िर, बड़ी हिम्मत करके उसने सकुचाते-सकुचाते कहा - ’’आज विमलजी ने बताया कि सुधीर ... ’’
’’अरे हाँ-हाँ, सुधीर को रख लिया है मैंने। मैं तो भूल ही गया था। इस बारे में भी बात करनी थी आपसे।’’ - चोखाणीजी थोड़ा रुके, फिर फुसफुसाते हुए बोले - ’’यों, रखने को तो रख लिया है उसे, लेकिन वह आदमी किसी काम का नहीं है, यह पहले ही बता दूँ आपको। उससे उम्मीद कुछ मत कीजिएगा। उसे तमीज़ भी क्या है जर्नलिज़्म की। ... वह तो एक बिजनेस का मामला था और ऊपर से पॉलिटिकल प्रेशर पड़ गया, इसलिए मैंने भी कहा कि चलो, कम-से-कम नाम तो है ही उसका - उसी के पैसे दे देंगे; काम न सही, नाम ही सही। उसका भी कुछ-न-कुछ फ़र्क तो पड़ता ही है। इसलिए ... लेकिन आप यही समझिए कि सम्पादक आप हैं - सब-कुछ करना आपको ही है। दरअसल, आपके ही भरोसे मैंने उसके लिए ’हाँ’ भी कर दी, नहीं तो ... ’’
अपने ऊपर चोखाणीजी का इतना प्रगाढ़ विश्वास और उनकी मजबूरी की बात सोच कर हरिवल्लभ के मन में आया कि यह प्रसंग वह यहीं समाप्त कर दे, पर तभी उसे अपनी जेब में पड़े त्यागपत्र और कमला के साथ हुए संघर्ष की याद आयी। उसने दबे स्वर में कहा - ’’वह तो ठीक है, मेरे रहते चिन्ता की कोई बात नहीं है, लेकिन ... फिर भी होगा तो वह मेरे ऊपर ही। मैं बाईस साल का अनुभव लेकर काम करूँगा एक ऐसे आदमी के नीचे जो क-ख-ग-घ भी नहीं जानता पत्रकारिता का। यह तो ... ’’
’’उँह, आप समझे नहीं,’’ - चोखाणीजी ने अपनी आँखें और दाहिना हाथ नचाते हुए कहा - ’’इसमें ऊपर-नीचे का कोई सवाल ही नहीं है। उसे मैं मनमानी थोड़े ही करने दूँगा। यदि वह कोई नयी बात करना चाहेगा तो पहले मुझसे पूछेगा, यह तो मैंने पहले ही कह दिया है, और मैं ... आपकी राय लिये बिना कुछ करूँगा नहीं। आख़िर, मेरे विश्वासपात्र तो आप हैं, वह थोड़े ही है। ... और हाँ, आपका वेतन भी बढ़ा दिया है मैंने - पच्चीस रुपये। कल आपको पिछले छः महीने का ऐरियर भी मिल जाएगा।’’
एक साथ डेढ़ सौ रुपये, फिर हर महीने पच्चीस रुपये! मिठाई देख कर जो दशा दो दिन के भूखे की होती है, वही हरिवल्लभ की हुई। उसकी सूनी आँखों में अचानक एक चमक आ गयी और उसने चोखाणीजी के चेहरे में बारी-बारी से कमला, रूपा, अरुण, तरुण, सबके मुस्कुराते हुए चेहरे देखे। ब्लाउज़, साड़ी, दवा, पुस्तकें, टपका - ये सब भी एक साथ झिलमिला उठे उसके मानस-पट पर। सहज श्रद्धावश उसके मुँह से निकल गया - ’’जी, बड़ी दया है आपकी!’’
’’अजी, दया की क्या बात है इसमें! दरअसल, दया तो आप कर रहे हैं मुझ पर, नहीं तो आप-जैसे विद्वान्-अनुभवी पत्रकार को रख सकने की भला औक़ात है मेरी? यह तो ’वसुन्धरा’ का सौभाग्य है कि ... ’’
चोखाणीजी की विनम्रता और निरीहता ने हरिवल्लभ को हर्षाभिभूत कर दिया। उसने गद्गद् वाणी में कहा - ’’आप फिर प्रशंसा करने लगे। ... अब चलना चाहिए मुझे । तो, आज्ञा है?’’ और, वह हाथ जोड़ कर उठ खड़ा हुआ।
चोखाणीजी भी खड़े हो गये, स्नेहपूर्वक बोले - ’’जाएँगे? अच्छा, जाइए, लेकिन ’वसुन्धरा’ आपकी है और आप उसके सम्पादक हैं, यह कभी मत भूलिएगा।’’
’’जैसी आज्ञा।’’ हरिवल्लभ ने बड़ी नम्रतापूर्वक कहा और सिर झुका कर कमरे से बाहर निकल गया।
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