मंगलवार, 23 जुलाई 2024

अपंग की होली

    होली है परसों, फिर माँ को जल्दी उठना होगा

सेठ दुअन्नीमल के घर पर फिर एक जलसा होगा

 

सुबह की निकली माँ जब अपने घर वापस आएगी

उसके मैले कपड़ों से मेहनत की बू आएगी

 

घर के टूटे छप्पर में से चाँद झलकता होगा

ढिबरीवाला आला फिर से धुआँ उगलता होगा

 

माँ खोलेगी डब्बा, देगी जूठा भात, कढ़ी, सब्ज़ी,

टुकड़ा एक पुए का जिसमें रमता होगा देसी घी

 

पाँव घिसटता मैं चौकी के कोने तक आऊँगा

माँ की आँखों में देखूँगा, उसके हाथों से खाऊँगा

 

अगर हाथ चलते मेरे तो मैं भी माँ कुछ करता

और नहीं कुछ तो माँ आख़िर अपना पेट तो भरता

 

पाँव सलामत होते तो मैं भी कुछ कर पाता

वज़न उठाता, हाँक लगाता, कारीगर बन जाता

 

रंगों की दो पुड़ियाँ होली पर चुपके से लाता

पीछे से आ कर माँ मैं तुझको सराबोर कर जाता

 

अपनी भी होली में अम्मा होती ख़ूब ठिठोली

                                   मन मसोस कर न रहता कि ये होली भी हो ली

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