15 अगस्त - राष्ट्रीय त्योहार! रामपुर के बाहर मैदान में बहुत-से लोग एकत्र हैं। तरह-तरह के चेहरे, तरह-तरह के कपड़े, तरह-तरह की बातें। खेतों की मेड़ों पर भी रंग-बिरंगे वस्त्र पहने लोगों की कतारें। किन्तु विविधताओं के बीच भी एकरसता - एकरसता भावना की, उल्लास की।
राज्य के एक मन्त्री महोदय इस मैदान में राष्ट्रीय झण्डा
फहराएँगे, भाषण करेंगे। सब प्रतीक्षा
में हैं मन्त्री महोदय की। आठ बज रहे हैं। अब तक तो उन्हें आ जाना चाहिए था। कितनी
आकुलता, कितनी उत्सुकता!
कच्ची सड़क पर धूल का अम्बार उठा - मन्त्री महोदय आ रहे हैं।
लोगों की दृष्टि स्वयं चली गयी उस ओर। धूल का नज़ारा पास आता जा रहा है ... और निकट, और निकट ... और एक हिचकोला खाकर शानदार कार रुक गयी।
मन्त्री महोदय को मालाएँ पहनायी गयीं और उन्होंने झुक कर, किंचित् मुस्कुरा कर, अपनी अभ्यर्थना जतायी। ... अब वे बढ़ रहे हैं झण्डे की
ओर। ... उन्होंने डोरी खींची और रेशमी तिरंगा लहरा उठा - भारतीय शहीदों की विजय
पताका फहरा उठी, मुस्करा उठी।
’जन-गण-मन’ गान हुआ और इसके बाद मन्त्रीजी ने भाषण आरम्भ किया।
स्वतन्त्रता-आन्दोलन, स्वराज्य-प्राप्ति और अब
तक देश-द्वारा प्राप्त की गयी सफलताओं पर प्रकाश डालने के बाद उन्होंने कहा - ’’अभी हमें सच्ची स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है - आर्थिक
स्वतन्त्रता हासिल करनी है। राष्ट्र का नये सिरे से निर्माण करना है। ऊँच-नीच, ग़रीब-अमीर के भेद को मिटाना है। ... यह सब कुछ हमें
स्वयं करना है। कठिन परिश्रम करके ही हम अपने राम-राज्य के लक्ष्य को प्राप्त कर
सकेंगे। ... आज प्रत्येक भारतवासी को यह शपथ लेनी चाहिए कि वह देश के नव-निर्माण
के लिए अपनी पूरी शक्ति के साथ लग जाएगा। यह हमारी आज़ादी की माँग है - उस आज़ादी की
माँग है, जिसके लिए हमारे हज़ारों
भाइयों ने अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी। ... ’’
और, सुखतारा का मस्तिष्क झनझना उठा। शहीद ... शहीद ...। सन् ’42 के उन भयंकर दिनों को कभी भुला सकेगी
सुखतारा?
मन्त्री महोदय का भाषण समाप्त हुआ और सब लोग तिरंगे को
अकेला लहराता छोड़ चल पड़े। सुखतारा उठी, झण्डे के नीचे गयी और सिर झुकाये, हाथ जोड़े, कुछ देर खड़ी रही। फिर, उसने झण्डे के बल्ले को छूकर कहा - ’’मैं तुम्हारी अन्तिम माँग भी पूरी करूँगी। तुम्हारी
माँग बेकार नहीं जाएगी। यह तुम्हारी माँग है - मेरे प्यारे ’सल्लू’ के प्यारे तिरंगे की माँग है - जन्नत में बैठे मेरे शौहर के
प्यारे तिरंगे की माँग है!’’
और फिर, धीरे-धीरे कदम उठाती, सुखतारा अपने घर लौट गयी।
... ... ...
सुखतारा बहू है इस गाँव की। इकतालीस वर्ष पूर्व वह पालकी
में बैठ कर यहाँ आयी थी। उसके पति रमज़ान मियाँ बड़े हँसमुख, उदार और सज्जन व्यक्ति थे। थे तो ग़रीब - काम करते थे
जुलाहे का, पर उनकी भलमनसाहत ने
उन्हें काफ़ी ऊँचा उठा दिया था। कोई उन्हें मात्र ’रमज़ान’ कह कर नहीं पुकारता था - ’रमजान’ के साथ ’चाचा’, ’भैया’, ’भाई’, ’बेटा’, आदि शब्द अवश्य ही जुड़े होते थे। बच्चों से तो उन्हें बहुत
ही प्रेम था, इसीलिए बच्चे भी उन्हें
सदा घेरे रहते थे। फलतः वे ’रमज़ान चाचा’ के ही नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। वे थोड़ा पढ़े-लिखे भी थे - उर्दू
में तुकबन्दी करने का उन्हें विशेष शौक़ था। उर्दू के एक दैनिक अख़बार के वे ग्राहक
भी थे और रोज़ शाम को अपने बरामदे पर बैठ कर, उसे ज़ोर-ज़ोर से पढ़ कर लोगों को सुनाते थे।
सुखतारा का नाम तो था ’हमीदा’, पर रमज़ान चाचा ’सुखतारा’ के नाम से पुकारते थे। फलतः हमीदा, हमीदा न रह कर सुखतारा बन गयी। जैसे सरल रमज़ान चाचा, वैसी ही सरल और निष्कपट सुखतारा। गाँव की बहू-बेटियों
के सामने प्रायः सुखतारा का दृष्टान्त उपस्थित किया जाता। कहते हैं, जहाँ चार थालियाँ होती हैं, वहाँ कभी-न-कभी टक्कर की झनकार निकल ही पड़ती है, पर सुखतारा इसका अपवाद थी।
शादी के छः साल बाद सुखतारा ने अपने पहले और अन्तिम बच्चे
को जन्म दिया। नाम पड़ा सुलेमान। रमज़ान चाचा अख़बार के सम्पर्क में रहने के कारण
बहुत-कुछ नये सन्सार की आवश्यकताओं से परिचित थे। अतः सुलेमान ज्यों ही पाँच साल
का हुआ, उन्होंने उसे स्कूल में भर्ती
करा दिया। मिड्ल पास करने के बाद सुलेमान, आगे पढ़ने के लिए, पास के एक शहर में भेजा गया और एक दिन उसने मैट्रिक
भी कर लिया। इसके बाद रमज़ान चाचा ने सुलेमान से पूछा - ’’अब क्या इरादा है, बेटे?’’
सुलेमान ने सिर झुका कर जवाब दिया - ’’अब्बाजान, चाहता तो था कि आगे और पढ़ता। ... ’’
रमज़ान चाचा सोच में पड़ गये और पूरे दो दिनों तक सोचने के
बाद बोले - ’’बेटे, मैंने बहुत सोचा, लेकिन कोई उपाय नहीं दीखता। उतना ख़र्च मैं कैसे जुटा
सकूँगा? तुम तो जानते ही हो, अब तक आधा पेट खाकर ... ’’
सुलेमान बीच में ही बोल उठा - ’’अब्बाजान, मैं आप पर बोझ बन कर नहीं पढ़ूँगा। अपना ख़र्च निकाल
लेने-भर मैंने पढ़ लिया है। ’ट्यूशन’ करके आगे पढ़ूँगा। आप कालेज में नाम लिखा देने-भर के लिए कुछ
रुपये का इन्तज़ाम कर दें।’’
रमज़ान चाचा को भला अब क्या एतराज़ हो सकता था? सुलेमान कलकत्ते चला गया और वहीं पढ़ने लगा। तेज़ ज़ेहन
का लड़का - धड़ाधड़ परीक्षाएँ पास करता गया।
रमज़ान चाचा को अपने सुलेमान पर गर्व था। वे अक्सर सुखतारा
से कहते - ’’ ... सुलेमान हमारी सब तक़लीफ़ें
दूर कर देगा। वह बड़ा होनहार है।’’ और, सुखतारा आँखों में चमक लिये, गर्वोत्फुल्ल हृदय से, रस ले-लेकर, अपने पति की बातें सुनती।
सुलेमान बी. ए. फ़ाइनल में था, जब अगस्त - सन् 42 का ऐतिहासिक अगस्त - आया। देश-भर में हलचल मच गयी।
कलकत्ता भी अछूता न रहा। सभी युवा हृदय क्रान्ति की आग को भड़काने के लिए मचल पड़े।
फिर सुलेमान ही कैसे पीछे रहता? उसके जीवन में भी आँधी आयी और वह मतवाला बन गया। अंग्रेज़ी
शासन को उखाड़ फेंकने के लिए, वह भी कॉलेज के दूसरे लड़कों के साथ तरह-तरह की कार्रवाइयों
में भाग लेने लगा और अन्त में एक दिन गोरों की गोली खाकर, हाथ में तिरंगा लिये, धराशायी हो गया। सुलेमान - रमज़ान चाचा और सुखतारा का
प्यारा सुलेमान - सो गया सदा के लिए।
फिर चार साल बाद ही आया, ख़ूनी 1946। भाई-भाई ख़ून के प्यासे हो गये। हिन्दुओं ने मुसलमानों का
क़त्लेआम किया और मुसलमानों ने हिन्दुओं का। गिरोह बाँध-बाँध कर लोग एक गाँव से
दूसरे गाँव में जाकर लूटपाट करने लगे - अपने ही भाइयों के ख़ून से हाथ धोने लगे।
आदमी, आदमी न रह कर जानवर हो
गया। कौन अच्छा, कौन बुरा - इसकी पहचान
भूल गये लोग। रामपुर में एकमात्र मुसलमान थे, रमज़ान चाचा - अच्छे रमज़ान चाचा! यह आँधी चली, तो रामपुर के निवासी सशंक हो उठे। उन्होंने रमज़ान
चाचा को भरोसा दिलाया कि उनका बाल भी बाँका न होगा। गाँववालों ने एकमत से आतताइयों
का मुक़ाबला करने का निश्चय किया और अपने वचन को निभाया भी। रमज़ान चाचा की हत्या
करने के लिए आये आततायी गाँववालों का कड़ा रुख़ देख कर वापस चले गये। उनके प्रलोभनों
को रामपुर-निवासियों ने ठुकरा दिया। किन्तु एक दिन शाम को, रमज़ान चाचा को गाँव के बाहर अकेले में पाकर, किसी आततायी ने वार कर दिया और छुरे के छः प्रहारों
ने उन्हें तड़प-तड़प कर शान्त हो जाने के लिए मजबूर कर दिया।
सुखतारा के दोनो सहारे टूट गये। सुखतारा का मधुमय जीवन विषाक्त
हो गया। उसके परिवार का गुलज़ार चमन वीरान हो गया। अपने बुरे दिन देखने के लिए वह
ज़िन्दा बच गयी।
फिर कुछ ही दिनों बाद आया सन् 47 का 15 अगस्त और मरते हुए सुलेमान का तिरंगा सारे देश में लहरा
उठा। सारे देश ने अमर शहीदों को याद किया और उनके प्रति श्रद्धांजलियाँ अर्पित
कीं। सुखतारा को लगा, सारा देश उसके समक्ष
नतमस्तक खड़ा है - उसके सुलेमान ने मर कर भी उसे कितना ऊँचा उठा दिया! वह गद्गद् हो
गयी।
वह आठ कोस पैदल चल कर उस दिन शहर पहुँची थी। वहाँ उसने
राज्य के मुख्य मन्त्री के मुख से सुना था - ’’यह आज़ादी उन शहीदों की देन है, उन जान पर खेलनेवालों की देन है, जिन्होंने अपना सर्वस्व वार कर हमें यह शुभ दिन देखने
का अवसर दिया। ... हमें आज से यह अनुभव करना चाहिए कि, सारा भारत राष्ट्र अपना है, यहाँ का हर निवासी हमारा सम्बन्धी है - रिश्तेदार है।
हमें अपना संकुचित दृष्टिकोण त्याग कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।’’ और, सुखतारा ने अनुभव किया था कि उसके एक सुलेमान की जगह, हज़ारों-लाखों सुलेमान उसके सामने खड़े हैं - सब अपने
हैं, कोई पराया नहीं।
फिर एक दिन आज़ाद देश की आज़ाद सरकार ने घोषणा की कि जिन
लोगों को आज़ादी की लड़ाई में जान-माल की हानि उठानी पड़ी थी, उन्हें सहायता दी जाएगी। लोगों ने सुखतारा से भी
दरख़ास्त देने को कहा, पर सुखतारा के जवाब ने
सबको सन्नाटे में ला दिया। उसने कहा - ’’मेरा सुलेमान फ़ख़्र की मौत मरा है। मैं उसके बदले में
रुपये लेकर उसकी शानदार मौत को नीचा दिखाऊँ? यह मुझसे न होगा। वतनपरस्ती की सौदाई भले लोग नहीं करते।
मेरा करघा आबाद रहे, बस! मैं मेहनत-मज़दूरी
करके अपने दिन गुज़ार लूँगी, लेकिन अपनी वतनपरस्ती की शान में बट्टा नहीं लगने दूँगी।’’ और सचमुच, देश-भक्ति और त्याग की मिसाल सुखतारा, अपने कथन के अनुसार ही मेहनत-मज़दूरी करके जीवन-यापन
करती रही। उसने कभी किसी के सामने अपना सिर झुकने नहीं दिया।
... ... ...
’’सन्त विनोबा, ग़रीबों के मसीहा, ग़रीबी और अमीरी का भेद मिटाने चल रहे हैं। वे बापू के
सपने को पूरा करने चले हैं। राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद वे देश को आर्थिक
स्वतन्त्रता देंगे! ... ’’ जब सुखतारा ने सुना, तो वह मचल पड़ी उनके दर्शन को - यह जानने को कि वे
कैसे क्या कर रहे हैं? और, एक दिन उसे ख़बर मिली कि सन्त उसके गाँव से दो मील दूर
के एक गाँव में आ गये हैं। आज शाम को वहाँ उनका प्रवचन होगा और कल वे रामपुर
आएँगे। दिन-भर सुखतारा उधेड़-बुन में पड़ी रही - ’’आज ही उनके दर्शन करने जाऊँ या कल जब वे आएँगे, तब दर्शन करूँ?’’ अन्त में, उसने निश्चय किया - आज ही जाऊँगी। सन्त, जो ग़रीबों के हित के लिए दौड़ रहे हैं, मेरे पास आएँ, क्या तभी मुझे कुछ सोचना चाहिए? नहीं, यह कैसी बात?’’ और वह चल पड़ी उनके दर्शन को।
सन्ध्या हुई और विनोबाजी - क्षीणकाय वृद्ध विनोबा - अपना
सन्देश सुनाने आये। उन्होंने सीधे-सादे शब्दों में अपनी बात सामने रख दी - ’’हमारे पास जो-कुछ है, वह ईश्वर की देन है। सभी चीज़ों पर उसी का अधिकार है, हमारा नहीं। इसलिए यदि हम अपनी ज़रूरत से ज़्यादा
चीज़ें अपने पास रखते हैं, तो पाप करते हैं। हमारा धर्म है कि हम आपस में बाँट कर, ज़रूरत के अनुसार, सब चीज़ों का उपयोग करें। जिनके पास ज़रूरत से ज़्यादा
चीज़ें हैं, उन्हें अपने दूसरे
ज़रूरतमन्द भाइयों को दान कर देना चाहिए। लेकिन इसके लिए एक वातावरण तैयार करना
पड़ेगा, और यह तभी सम्भव होगा, जब हर कोई त्याग करने के लिए तैयार हो जाए। इसीलिए
मैं सबसे माँग करता हूँ कि आप अपनी भूमि और सम्पत्ति का कम-से-कम छठा हिस्सा दान
कर दें। ग़रीबों और अमीरों, सबसे मेरा अनुरोध है कि वे यथासम्भव अधिक-से-अधिक सम्पत्ति
का दान करें, ताकि ग़रीबी और अमीरी का
भेद जल्दी-से-जल्दी समाप्त हो जाए। अगर आप इस बात को नहीं समझेंगे और समय की माँग
को नहीं पहचानेंगे, तो दूसरे देशों की तरह
यहाँ भी ख़ूनी क्रान्ति होगी और ग़रीब लड़ कर अपना हक़ ले लेंगे। इसलिए बुद्धिमानी इसी
में है कि हम बिना झगड़ा किये, शान्तिपूर्वक, अपने दूसरे भाइयों को उनका हिस्सा दे दें।’’
प्रवचन समाप्त हुआ और लोगों में हलचल मच गयी। ’’तुम कितना दोगे?’’, ’’मैं कितना दूँ?’’ की कानाफूसी होने लगी। फिर, कुछ क्षण उपरान्त एक बीघा, दो बीघा, दस बीघा, दान की घोषणा शुरू हुई। लोगों में होड़ मची थी। इस दान
को उन्होंने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदण्ड बना लिया था। दस बीघा देनेवाला एक
बीघा देनेवाले को और पच्चीस बीघा देनेवाला दस बीघा देनेवाले को तुच्छ दृष्टि से
देख रहा था। तभी एक दुर्बल स्वर सुनाई पड़ा - ’’मैं अपना सब-कुछ दान करती हूँ। मेरे पास जो-कुछ है, वह सब राष्ट्र का - मेरा जीवन भी।’’
इसके साथ ही एक क्षण की स्तब्धता छा गयी और सन्त ने अपनी दृष्टि
उधर फेरी। तभी नाम दर्ज करनेवाले स्वयंसेवक ने पूछा - ’’आपका नाम क्या है, माताजी?’’
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