मंगलवार, 30 जुलाई 2024

आवरण - विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’

पहले ही दिन हमारे निकटतम पड़ोसी - सामने के फ्लैट में रहनेवाले बख्शी-दम्पति - ने जब हमें शाम की चाय का निमन्त्रण दिया, तब, कह नहीं सकता, हमें कितनी ख़ुशी हुई। दिल्ली में मेरी नियुक्ति की सूचना पाकर पटना में जिस किसी ने भी हमें बधाई दी थी, इस बात के लिए हमारे साथ सहानुभूति भी जतायी थी कि वहाँ और सब चीज़ें तो मिल जाएँगी, पर पड़ोसी अच्छे नहीं मिलेंगे। फिर भी, दिल्ली जाने का लोभ मैं संवरण कर सका था। तेरह साल तक विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रों में काम करते-करते ऊब कर ही मैंने एक दिन भारत-सरकार के एक मन्त्रालय में हिन्दी-अफ़सर के रिक्त पद के लिए आवेदन पत्र दे दिया था, हालाँकि अपने चुने जाने की उम्मीद मुझे कतई थी। मेरे कई मित्र छः-छः बार यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन को अपना चेहरा दिखा कर निराश लौट चुके थे, इसलिए अपना भी वही हश्र होने की मैं आशा कर रहा था। पर हुआ इसके ठीक विपरीत - कमीशन ने समस्त उम्मीदवारों में मुझे ही सबसे सुर्ख़रू माना और फलस्वरूप सरकार ने वह पद मुझे अर्पित कर दिया। अब अनायास ही प्राप्त हो गयी इस दुर्लभ उपलब्धि को केवल पड़ोसियों के डर से भला मैं कैसे तज देता! सो, दिल्ली-स्थित अपने एक मित्र को मैंने किराये का एक फ़्लैट ले लेने को लिखा और फिर उनसे लाइन क्लियर मिलते ही सपरिवार दिल्ली पहुँच गया। मित्र ने हमें फ़्लैट तक पहुँचाया, कुछ ज़रूरी चीज़ों की व्यवस्था की, फिर किसी कार्यवश वे चले गये। उनके जाने के कुछ ही मिनट बाद ड्रेसिंग-गाउन में लिपटी मिसेज़ बख्शी ने आकर इला (मेरी श्रीमतीजी) से दो-चार बातें कीं, फिर मिस्टर बख्शी से राय-परामर्श करके वे शाम की चाय का निमन्त्रण दे गयीं। दिल्ली में पड़ोसी भी अच्छे मिले - इसकी प्रतीति स्पष्टतः हमारे लिए बड़ी सुखद थी। हमें पाँचवी फेल उन कुबड़े ज्योतिषी पंडित का बरबस स्मरण हो आया, जो जी. पी. . के बाहर, पटना-गया रोड पर बैठ कर, केवल पाँच-पाँच आने में नित्य ही -जाने कितने लोगों का भाग्य-निर्णय किया करते थे। उन्होंने मुझसे साफ़-साफ़ कह दिया था कि इस समय मेरे सितारे बेहद बुलन्दी पर हैं।

निमन्त्रण देकर जाने के बाद मिसेज़ बख्शी दो-चार बार दिखाई तो पड़ीं अपने बरामदे में, पर हम लोगों से कोई बातचीत नहीं हुई उनकी। मिस्टर बख्शी से भी एक बार नमस्कार-प्रणाम के समय ही जो दो-एक  वाक्यों का आदान-प्रदान हुआ था, उसके बाद वे भी गम्भीर मुद्रा में ही एक-दो बार अपने कमरे-बरामदे में दिखाई पड़े। जब किसी की मुखमुद्रा गम्भीर हो, तब, कहना व्यर्थ है, उससे कुछ पूछने-बोलने का साहस जल्दी नहीं होता किसी को। सो, नये-नये होने के कारण यद्यपि हमें बात-बात पर सवाल करने की ज़रूरत पड़ रही थी, तथापि हमने ज़ब्त से काम लिया। एक-दो बार इला ने पूछताछ की भी, तो उनके पीछे में, उनके बारह-तेरह वर्षीय नौकर शामू से।

लेकिन सन्ध्या-समय, लगभग साढ़े चार बजे, मिसेज़ बख्शी जब हमें बुलाने आयीं, तब उनकी सज-धज में फ़िल्मी आकर्षण तो था ही, उनके चेहरे पर भी अद्भुत रूप से मृदुता छलक रही थी। हालाँकि वे ठिगनी और तनिक स्थूलकाय थीं, फिर भी अच्छी लग रही थीं - किसी पुरुष को आकर्षित करनेवाली कशिश एक हद तक गयी थी उनमें। आते ही वे एक चपल मुस्कान के साथ बोलीं - ’’अरे, अभी तैयार नहीं हुए आप लोग?’’

मैंने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया - ’’तैयार क्या होना है! घर की ही तो बात है!’’

सुन कर मिसेज़ बख्शी की भृकुटियों में थोड़ा तनाव आया, लेकिन जल्दी ही विलीन भी हो गया; वे बोलीं - ’’वह तो है ही, लेकिन यहाँ के नेबर्स कुछ दूसरे ढंग के हैं - घर में भी कपड़े-गहने ही देखते हैं।’’

’’अच्छा?’’ - इला ने थोड़ा आश्चर्य प्रकट किया, फिर पूछा - ’’क्या दूसरे पड़ोसी भी रहे हैं?’’

’’हाँ, मित्रा और कौल, दोनों को बुलवा लिया है। इसी बहाने उनसे भी पहचान हो जाएगी आपकी! ... वैसे पहचान भी क्या होगी! वह तो धीरे-धीरे ही जान पाएँगे आप, लेकिन ... मीन माइंडेड लोग हैं, कहते फिरेंगे कि बुलाया नहीं। ... खैर, जल्दी तैयार होकर जाइए। उन लोगों के आने के बाद बातचीत भी नहीं हो पाएगी हमारी!’’ और, वे मुग्ध भाव से हम सबको निहारती, इठलाती चली गयीं।

अब हमारे लिए मजबूरी हो गयी सजने-सँवरने की - मेज़बान की बात तो रखनी ही थी। सो, मन मसोस कर, हम इस तरह तैयार हुए, जैसे पड़ोस में चाय पीने नहीं, सिनेमा या थियेटर देखने जा रहे हों। लेकिन सचमुच, आगे की बातें सिनेमा या थियेटर से कुछ कम मनोरंजक सिद्ध नहीं हुईं। ज्यों ही हम (मेरे अलावा इला और दोनों बच्चे - शेखर और प्रवीण) उनके बरामदे में पहुँचे, मिसेज़ बख्शी ने दो कदम आगे बढ़ कर हमारा स्वागत किया - कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हवाई जहाज़ से निकलने पर किसी विदेशी प्रधान मन्त्री का स्वागत एक प्रधान मन्त्री करता है। फिर, वे हमें मानो राष्ट्रपति भवन ले गयीं - ड्राइंग रूम के दरवाज़े पर मिस्टर बख्शी ने मुस्कुराते हुए मुझसे हाथ मिलाया, फिर हमारी तरफ मुँह किये-किये ही, पीछे हटते हुए, वे हमें स्प्रिंगदार सोफ़ों की ओर ले गये। इस बीच उनकी और उनकी श्रीमतीजी की दृष्टि बराबर मेरे और मेरी श्रीमतीजी के चेहरे पर गड़ी रही - करीब-करीब वैसे ही, जैसे अध्ययनरत विद्यार्थी की नज़र किताब से नहीं उठती।

बख्शी-परिवार के ड्राइंग-रूम की सजावट देख कर हमें मानना पड़ा कि उनके जीवन में व्यवस्था और रुचि में कलात्मकता थी। कमरे में दो सेट सोफ़े थे - एक सेट स्प्रिंगदार गद्दीवाला और दूसरा लकड़ी का। दो ओर आमने-सामने दोनों ट्रिपल-सीटर रखे थे और बाक़ी दो ओर क्रमशः गद्दी और लकड़ीवाले दो-दो सिंगल-सीटर। बीच में एक बड़ी-सी डबल-डेकर तिपाई थी और चारों कोनों पर एक-एक छोटी गोल तिपाई। हर तिपाई पर एक-एक ऐश-ट्रे तो थी ही, चारों गोल तिपाइयों पर आबनूस की एक-एक सुन्दर कलाकृति भी रखी थी। समस्त सोफ़े और तिपाइयाँ एक सुन्दर गलीचे पर धरी थीं। एक दीवार में बनी बुक-शेल्फ़ में अंग्रेज़ी की कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें सजी थीं, जिन्हें देख कर ऐसा लगता था, जैसे वे अभी-अभी दुकान से लायी गयी हों - उन्हें किसी ने छुआ तक हो। एक दूसरी दीवार में बनी थी टॉय- शेल्फ़, जिसके शीशों के अन्दर से बड़े सुन्दर-सुन्दर खिलौने झाँक रहे थे। शेष दोनों दीवारों में क्रमशः एक-एक वार्ड-रोब और आलमारी बनी थी और उनकी बगल में अवस्थित था एक-एक दरवाज़ा। बुक- शेल्फ़ के ऊपर मेडोना का चित्रवाला एक बड़ा-सा, सुन्दर, कैलेंडर लटका था। कमरे में फ्ऱेम की हुई तस्वीरें कुल दो थीं; दोनों छपी हुई पेंटिंग - एक लैंडस्केप और दूसरी पोर्टेट। वह पोर्टेट मेरी जानी-पहचानी थी - किसी समयइंडिया वीकलीमें छपी थी और मुझे बहुत पसन्द आयी थी। मैं भी उसे फ्ऱेम कराना चाहता था, पर किन्हीं मँगतू की कृपा से वह अंक ही हमारे हाथ से निकल गया था। सुप्रसिद्ध चित्रकार शाण्डिल्य के उस चित्र ने पुनः मुझे अपनी ओर आकर्षित किया और मैं उसके पास जा खड़ा हुआ। भयंकर तूफ़ान में अकेली खड़ी वह ख़ानाबदोश गड़रिया युवती, जिसके फट कर तार-तार हो गये दुपट्टे को आँधी उड़ा ले जाना चाहती थी, पर जिसे उसने दोनों मुट्ठियों से कस कर पकड़ रखा था।इंडिया वीकलीने इस चित्र का शीर्षक दिया था - ’’आवरण का मोह’’ मैं कुछेक क्षण उस चित्र को निहारता रहा, फिर वापस अपनी जगह लौट आया।

मेरे वापस आते ही मिस्टर बख्शी ने प्रश्न किया - ’’पसन्द आयी पेंटिंग?’’

मैंने कहा - ’’बहुत!’’

’’मुझे भी बहुत पसन्द है। मेरे एक फ्रेंच आर्टिस्ट फ्रेंड ने अपनी आर्ट का यह नमूना मुझे भेंट किया था!’’ - मिस्टर बख्शी बोले।

सुन कर मैं थोड़ा चौंका, प्रतिवाद करने को भी उद्यत हुआ, लेकिन फिर जल्दी ही सम्भल गया, बात बदलते हुए बोला - ’’सचमुच आप लोगों की रुचि बड़ी परिष्कृत और कलात्मक है। इतने सुन्दर ढंग से आपने सजाया है अपना ड्राइंग-रूम कि प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिलते।’’ मैं, वास्तव में, मन-ही-मन सोच रहा था कि अपना कोई कमरा अगले दस साल तक भी मैं शायद ही इस तरह सजा पाऊँ।

’’थैंक्स फ़ॉर कॉम्प्लिमेंट!’’ - मिस्टर बख्शी ने कहा और मिसेज बख्शी ने बात आगे बढ़ायी - ’’अजी, दो कमरों में आदमी क्या-क्या करे। इतना किराया रख छोड़ा है इन ब्लैक मार्केटियर्स ने कि ... मेरे पास अगर एक बँगला होता या चार कमरों का फ़्लैट ही होता, तो दिखा देती लोगों को। अब गार्डनिंग को ही लीजिए ... मन मसोस कर रह जाती हूँ। कहाँ की जाए गार्डनिंग? इन सेठ के बच्चों की छाती पर? ... ’’

’’जी हाँ, वह तो है ही। शहरों में ये सब सुभीते कहाँ!’’ - मैंने कहा।

’’हीयर यू आर। दिस् इज़ अनप्लेज़ेंट रीयलिटी!’’ - मिस्टर बख्शी ने कहा - ’’खैर, तो आप यहाँ फ़ाइनेंस मिनिस्ट्री में आये हैं! ... मेरा खयाल है, हिन्दी-ऑफिसर की पोस्ट क्लास वन ही होगी!’’

’’जी हाँ,’’ मैंने जवाब दिया - ’’जूनियर स्केल की!’’

’’ओह! दैट डज़ण्ट मैटर। क्लास वन आफ़्टर ऑल क्लास वन है।’’ - मिसेज़ बख्शी ने मेरा हौसला बढ़ाया - ’’पटने में आप क्या करते थे? गवर्नमेण्ट सर्विस में तो आप नये-नये ही आये हैं ?’’

’’जी हाँ, वहाँ मैं एक हिन्दी-दैनिक में सहायक सम्पादक था।’’

’’हिन्दी-दैनिक? सहायक सम्पादक? एक्सक्यूज़ मी, मैं समझी नहीं।’’

’’असिस्टैण्ट एडीटर इन हिन्दी डेली।’’ - मैंने तुरन्त अनुवाद पेश किया।

’’ओहो! तो आप जनर्लिस्ट थे। सचमुच बड़ी ख़ुशी हुई आपको अपने पड़ोसी के रूप में पाकर।’’ - मिस्टर बख्शी बोले - ’’बस, यही है कि यहाँ मिलना-जुलना ज़रा सम्भल कर कीजिएगा। ऑल सेल्फ़िश पीपल! पहले तो इस तरह मिलेंगे, जैसे आपके रिलेटिव हों, लेकिन फिर हिस्सा वसूलने लगेंगे, दुश्मनी ठान लेंगे। यह मित्रा जो है आपके नीचे के फ़्लैट में, वह है तो महज़ सेक्शन ऑफ़िसर, लेकिन कुछ पूछिए शान की - बात-बात में जताएगा कि गैजेटेड ऑफ़िसर है। क़रीब - क़रीब यही हाल कौल का भी है - मेरे नीचे के फ़्लैट में जो रहता है, वह - एक गवर्नमेंट हायर सेकंडरी स्कूल का प्रिंसिपल है और समझता है कि हर कोई आठवें दर्जे का लड़का ही है। ... अरे, यहाँ कम कौन है तुमसे? मैं ख़ुद एम. एस-सी. हूँ, मेरी बीवी एम. कॉम. है। दोनों अच्छी ही जगहों पर काम कर रहे हैं, लेकिन ... ’’

’’अरे हाँ, माफ़ कीजिएगा मेरी बेअदबी।’’ - मैंने चौंक कर कहा - ’’आप लोगों के बारे में तो मैंने कुछ पूछा ही नहीं। कहाँ लगे हैं आप लोग?’’

’’मैं यहाँ फ़िज़िकल लेबोरेट्री में सीनियर साइंटिफ़िक असिस्टेण्ट हूँ। बस, एकाध महीने में ही तरक़्क़ी होनेवाली है - जूनियर साइंटिफ़िक ऑफ़िसर बन जाऊँगा। यों, पैसे का तो कुछ फ़ायदा नहीं होगा, लेकिन गैजेटेड स्टेटस मिल जाएगी। यह वासन्ती भी गवर्नमेण्ट सर्विस में ही है; पी. एस. है होम मिनिस्ट्री के एक डिप्टी सेक्रेटरी की। इसकी तरक़्क़ी का भी चांस ही गया है - बस, आज-कल में चल रही है बात। इसे भी गैजेटेड पोस्ट मिल जाएगी।’’

’’ओह, बड़ी ख़ुशी की बात है। ... बच्चे-वच्चे? ... ’’

सुन कर मिस्टर बख्शी ठठा कर हँस पड़े और मेरे सवाल का जवाब दिया मिसेज़ बख्शी ने - ’’अभी तीन ही साल तो हुए हैं शादी को। और फिर, जब तक हज़ार रुपये की आमदनी हो, कौन फँसे इस जंजाल में! अभी सातेक सौ रुपये मिल जाते हैं - बस तीन सौ की कसर है। इन तरक्कियों के बाद यह कसर भी पूरी हो जाएगी, तब ... ’’

’’तब दूसरी तरफ भी तरक़्क़ी करेंगे आप लोग।’’ - मैंने हँसते हुए उनकी बात पूरी की - ’’अच्छा ख़याल है आपका। काफी सावधानी से काम ले रहे हैं आप लोग।’’

तभी दो पुरुष और दो स्त्रियाँ कमरे में दाख़िल हुईं और बख्शी-दम्पति ’’आइए-आइए’’ कहते हुए उनकी ओर बढ़ गये। मैं भी इला के साथ-साथ शिष्टाचारवश हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। जब सब लोग सोफ़ों के घरौंदे में गये, तब मिस्टर बख्शी ने बड़ी पुरजोश आवाज़ में उनसे हमारा परिचय कराया - ’’मीट आवर न्यू नेबर्स - मिस्टर ऐंड मिसेज़ ... ’’ बोलते-बोलते वे रुक गये और तब उनकी कठिनाई समझ कर मैंने वाक्य पूरा किया - ’’सिन्हा।’’

अब मिस्टर बख्शी की रुकी गाड़ी आगे बढ़ी - ’’रिनाउंड जर्नलिस्ट, ऐंड नाउ क्लास वन सीनियर स्केल ऑफ़िसर ऑफ़ गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया!’’

परिचय कराने का यह ढंग मुझे थोड़ा बेहूदा लगा, मन में यह भी आया कि जूनियर-सीनियर स्केल की उनकी भूल सुधार दूँ, पर तभी मिस्टर बख्शी ने आँख मार कर मुझे चुप रहने का इशारा किया और दोनों पड़ोसियों का परिचय देने लगे - ’’हीयर इज़ मिस्टर मित्रा। आपके ठीक नीचे हैं। वेरी नाइस ऐंड सिम्पल मैन - इस हद तक सिम्पल कि लोगों ने बेईमानी करके कई साल तक इनकी तरक्की रोके रखी, और अब, अभी हाल में, इन्हें सेक्शन ऑफ़िसर की पोस्ट मिली है।’’ दुबले-पतले, गोरे, सुन्दर लगभग चालीस वर्ष के उन बंगाली सज्जन से ’’आपसे मिल कर बड़ी ख़ुशी हुई’’ कहते हुए मैंने हाथ मिलाया।

अब लगभग पचास-वर्षीय स्थूलकाय कौल महोदय का परिचय दिया गया - ’’ऐंड मीट मिस्टर कौल - थौरो जेंटिलमैन। हमारे नीचे के फ़्लैट में हैं। ही इज़ प्रिंसिपल ऑफ़ गवर्नमेंट हायर सेकंडरी स्कूल। आप तो दिल्ली में नये हैं, शायद मालूम हो, इनकी भी पोस्ट गैजेटेड है। और साहब, सच पूछिए, तो यह कुछ भी नहीं है। इनके पढ़ाये हुए कितने ही लड़के आई. . एस. बन गये, पर ये ... माइ गॉड ... डाउन विथ फ़ेवरेटिज़्म ... इन्हें अब तक इन्सपेक्टर ऑफ़ स्कूल्स से भी ऊँची पोस्ट मिलनी चाहिए थी - ऐट लीस्ट क्लास वन पोस्ट।’’

उनसे भी मैंने हाथ मिलाया और फिर हम सब बैठ कर बातचीत करने लगे। यों, चुप कोई नहीं बैठा था, हर कोई बोल रहा था, हँस रहा था, फिर भी मुझे लगा, जैसे सबके दिल-दिमाग़ पर कोई बोझ पड़ा है - दिल से तो आवाज़ ही निकल रही थी और हँसी। बातचीत का विषय भी अक्सर घूम-फिर कर प्रशासन की अव्यवस्था पर जाता था - हर कोई अपने दफ़्तर की बुराइयों का ही रोना रोने लगता था और सुननेवाले ऊबने लगते थे। उधर देवियों की भी बातचीत घूम-फिर कर एक ही विषय पर जाती थी - नये फ़ैशन के कपड़े, आभूषण और घरेलू सामान पर।

बातचीत इसी तरह घिसट रही थी, जब शामू नाश्ते की चीज़ें और चाय की दो ट्रे रख गया। मिसेज़ बख्शी ने सबको एक-एक प्लेट पकड़ायी औरसेल्फ़ हेल्पका अनुरोध किया। सबने अपनी-अपनी प्लेट में थोड़ी दालबीजी, एक-एक रसगुल्ला, एक-एक केक-पीस और एक-एक समोसा रख लिया।

अब खाते-खाते ही मिसेज़ बख्शी ने इला से पूछा - ’’कहिए, कैसा है रसगुल्ला?’’

’’बहुत अच्छा है!’’ - जवाब मिला।

’’अन्नपूर्णा से मँगवाया है। बड़ी मुश्क़िल से मिला।’’ - श्रीमती बख्शी अपनी पड़ोसिनों को लक्ष्य कर कहने लगीं - ’’जब शामू पहुँचा वहाँ, तब स्टॉक ही ख़त्म हो चुका था रसगुल्ले का, लेकिन दुकान का मालिक उस समय वहीं था, बोला कि बख्शी साहब के लिए तो रसगुल्लों का इन्तज़ाम करना ही पड़ेगा और अपने नौकर को हुक़्म दिया कि मेरे घर के लिए जो रसगुल्ले रखे हैं, वही दे दो। अपनी देखी जाएगी। ... और साहब, तब कहीं ये बारह रसगुल्ले मिल पाये।’’

श्रीमती बख्शी की बात सुन कर पड़ोसिनों के चेहरे पर एक अजीब-सा भाव आया, फिर भी वे मुस्कुरा कर उनके कथन का समर्थन करती रहीं। पर अभी दो-चार मिनट ही बीते होंगे कि मिसेज़ कौल बोल उठीं - ’’यह दालबीजी कहाँ से मँगवा ली आपने? पुरानी लग रही है। दालबीजी तो, बस, वेंगर्स से लेनी चाहिए। मैं तो वहीं से लेती हूँ।’’

’’आप ठीक कह रही हैं,’’ - मिसेज़ बख्शी बोलीं - ’’थोड़ी पुरानी हो गयी है। तीन दिन पहले रमेश आगरे गया था, वहीं से मँगवायी थी। मुझे तो, भई, आगरे के सिवा कहीं की दालबीजी नहीं भाती। सब कूड़ा देते हैं।’’

तभी मिसेज़ मित्रा ने बातचीत का रुख़ मोड़ दिया - ’’एई क्रोकारी शेट तो नोतून लाग राहा हाय। एई कोब माँगवाया, मिसेज़ बोक्शी? आच्छा हाय।’’

’’पिछले हफ़्ते।’’ - मिसेज़ बख्शी ने उत्साह से भर कर जवाब दिया - ’’बड़ा गला काट रहे हैं ये क्रॉकरीवाले भी - पचास का दिया।’’

’’लेकिन हाय आच्छा। आपना तो कूछ बाजार का भाव मालूम नेईं। गोत बोच्छोरई तीन सेट ले लीया था, पोंइसोट्टी-पोंइसोट्टी का। बाश, काम चोल राहा है। आब तो ओइशा शेट एक शो टाका में भी नेई मिलेगा!’’

’’हाँ, सचमुच, क्या मिलेगा अब।’’ - मिसेज़ कौल अपनी साड़ी का पल्लू दिखाती हुई बोलीं - ’’यह साड़ी पिछले साल सिर्फ डेढ़ सौ में ली थी! लेकिन अब, जानती हैं, क्या क़ीमत है इसकी? पूरे ढाई सौ। उस दिन चाँदनी चौक गयी, तो पूछा और सन्न रह गयी। कितनी आग लग गयी है बाज़ार में। उफ़्, नोट तो ऐसे जल रहे हैं, जैसे पीपल के पत्ते।’’

इन लोगों की बातचीत के विषय और ढंग से मुझे बड़ी बोरियत हो रही थी, सो अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया - ’’यही तो मज़े की बात है। हम एक ओर तो आग बुझाना चाहते हैं और दूसरी ओर उसमें पीपल के पत्ते भी डालते जा रहे हैं। आग बुझाने का हमारा ढंग भी तो निराला ही है।’’

’’बिल्कुल सही फ़रमाया आपने।’’ - मिस्टर कौल उछल पड़े - ’’एक दिन इस फ़ैशन की आग में, देखिएगा, सब जल मरेंगे, कोई नहीं बचेगा।’’

’’लेकिन कोई करे भी क्या?’’ - मिसेज़ कौल ने ही अपने पति को जवाब दिया - ’’आख़िर, रहना तो सोसाइटी में ही है! कीजिए यह सब, तो कोई सीधे मुँह बात भी करे।’’

’’अरे, करे, तो करे। बात करने के पीछे क्या जान दे दी जाए?’’ - मिस्टर कौल ने ज़रा तेज़ आवाज़ में कहा।

’’अब आपकी तरह हर कोई शिवशंकर तो बन नहीं जाएगा।’’ - मिसेज़ कौल के स्वर में वितृष्णा तैर रही थी - ’’दुनिया में रहना है, तो उसके साथ ही चलना भी पड़ेगा। ... ’’

’’एक्शकिउज़ मी, काउल साहिब!’’ - मिस्टर मित्रा ने अपने सुनहले फ्रेम के चश्मे को ज़रा ठीक से नाक पर जमाते हुए कहा - ’’आपका मिसेज़ का बात गोलोत नेईं हाय ... ’’

बीच में ही मिसेज़ बख्शी ने दखल दिया - ’’मिस्टर मित्रा, ह्वाई डोंच यू स्पीक इन इंगलिश ह्वेन हिन्दी इज़ नॉट कन्वीनिएंट टु यू? इट लुक्स फ़नी टु हीयर यू स्पीकिंग हिन्दी!’’

मिस्टर मित्रा के चेहरे पर लज्जा और आक्रोश का भाव गया, पर जवाब देने में देर नहीं की उन्होंने - ’’दैट इज़ नॉट माई फॉल्ट, मिशेज बोक्शी। दीश ब्लडी लैंग्वेज इज़ लाइक दिश। बट आइ कांट हेल्प इट। यू नो, मिशेज काउल डजण्ट नो इंग्लिश ... ’’ बोलते-बोलते उन्होंने मेरी ओर एक भेदती निगाह फेंकी, मानो पूछ रहे हों - तुम्हारी बीवी भी जानती है अंग्रेज़ी कि नहीं?’’

’’ओह, यू आर राइट। सॉरी फ़ॉर इंटरप्शन!’’ - मिसेज़ बख्शी के खेद में भी दर्प की झलक थी - ’’आई फ़ॉरगॉट एबाउट मिसेज़ कौल।’’

मिस्टर मित्रा ने अपनी बात आगे बढ़ायी - ’’हाँ, तो हाम आपको बाताता हाय कि ड्रेश का बोरा ओशोर होता हाय। जे कोनो दिन हाम मामूली, माने आड़ाई-तीन टाका गोज का, कापरा पोन के आपिस जाता हाय, शाला डाइरेक्टर ठीक शे बात भी नेईं कोरता, बाक-बाक कोरता हाय, आउर जे दिन आच्छा कापोर में जाता हाय, दिन शाला चुप कोरके देखता हाय, हाशी का शाथ बात कोरता हाय। ओरे किया बोलेगा, शाला चापरासी भी बोकुनी शुनने से पोहिले कापोर देखता हाय! ... माने बिबोशता है आदमी का। किया कोरेगा?’’

मिसेज़ कौल उत्साह से भर उठीं, अपने पति की ओर इशारा करते हुए मिस्टर मित्रा से बोलीं - ’’अरे, छोड़िए इनकी बात। इनको तो बच्चों को उपदेश देते-देते उपदेश देने की आदत पड़ गयी है। कपड़ा ज़्यादा महँगा हो जाएगा, तब देखिएगा, ये अंडरवियर पहन कर स्कूल जाएँगे। ... तभी तो तरक़्क़ी नहीं मिलती!’’

मिस्टर कौल को, ज़ाहिर है, यह रिमार्क भाता। उन्होंने अपनी पत्नी पर एक शिक़ायत-भरी नज़र डाली, फिर मुझे लक्ष्य कर कहा - ’’औरतों को समझाना सचमुच बड़ा मुश्क़िल है। अच्छी बातें तो उनके दिमाग़ में धँसती ही नहीं।’’

’’अच्छा-अच्छा। बड़े आये दिमाग़वाले। देख लिया - अब चुप रहिए। औरतें होतीं, तो देख लेते दुनिया, दे लेते उपदेश!’’ - मिसेज़ कौल ग़ुस्से से काँप रही थीं।

अब मैंने ज़रा ग़ौर से मिस्टर कौल और उनकी श्रीमतीजी को देखा। दोनों के पहनावे-ओढ़ावे और रूप-सज्जा में ज़मीन-आसमान का अन्तर था। मिस्टर कौल ने मामूली-से कपड़े का कुर्ता-पाजामा पहन रखा था और उनके खिचड़ी केश बिना तेल के बिखरे हुए थे, जब कि लगभग पैंतालीस-वर्षीया मिसेज़ कौल ने केवल सौ-एक रुपये की साड़ी पहन रखी थी, बल्कि उनके गालों पर रूज़ और होठों पर लिपस्टिक की लाली भी बिखरी हुई थी। तो, यह विवाद नया नहीं, काफी पुराना था। मिस्टर कौल के प्रति मेरा मन सहानुभूति से भर गया और किसी तरह मैंने दोनों को शान्त किया। पर इसके बाद बैठक अधिक देर तक चल सकी - कोई दस मिनट बाद ही हम सब उठ गये।

वस्तुतः इतना ही परिचय काफ़ी था हमारे लिए। उस रात हम मियाँ-बीवी ने एकमत से यह स्वीकार किया कि कुबड़े ज्योतिषी की सितारों की बुलन्दीवाली बात पड़ोसियों के सन्दर्भ में लागू नहीं होती, और यदि हमने सावधानी से काम लिया, तो हमारे पारिवारिक जीवन पर उल्कापात होते देर लगेगी। सो, श्रीमतीजी ने अपनी जीभ काट कर और मैंने अपने कान पकड़ कर निश्चय किया कि इन पड़ोसियों से हम यथासम्भव दूर ही रहेंगे।

पर बख्शी-दम्पति छोड़नेवाला कम्बलसाबित होने लगे। जब कभी उनके सामने समय काटने की समस्या होती, वे हमारे यहाँ धमकते और इधर-उधर की, पड़ोसियों की, निन्दा करके हमारे कान जो पकाते सो पकाते ही, उल्टे-सीधे स्वयं हमारी भी निन्दा आरम्भ कर देते। कभी कहते, ’’बच्चों को किस सड़ियल स्कूल में डाल दिया आपने भी - सेंट ज़ेवियर्स या फ्रैंक ऐन्थोनी में डालना था।’’ और कभी कहते, ’’इन सोफ़ों को देख कर तो ऐसा लगता है, जैसे नीलामी से उठा लाये हैं।’’ एक बार तो उन्होंने मुझे अपनी घड़ी को पटक कर नयी पाँच-छः सौ की घड़ी खरीदने की भी राय दी, क्योंकि क्लास वन अफ़सर होने पर वह ऐसा ही करते। आख़िर, सुनते-सुनते एक दिन धीरज खो बैठा, तो मैंने कह दिया - ’’भई, कहना तो ठीक है आपका, लेकिन क्लास वन के बदले में कहाँ देता है कोई कुछ। सब माँगते हैं रुपया, और मुझे रुपये मिलते हैं कम - सिर्फ चार सौ। तब क्या करूँ, कैसे करूँ - आप ही बताइए कोई राह।’’ सुन कर मिस्टर बख्शी ने राह तो कोई नहीं बतायी, वे जल्दी से जोड़ने लगे मेरी कुल तनख़्वाह - ’’बत्तीस रुपये सिटी एलाउन्स और साठ रुपये हाउस रेंट एलाउन्स, यानी कुल चार सौ बानवे रुपये, यानी कट-छँट कर साढ़े चार सौ मिलते होंगे। फिर ठीक ही कहते हैं आप। जब सात सौ में हम दो आदमियों का ख़र्च नहीं चल पाता, तब ... ’’ उनके स्वर में अभिमान की इतनी बदबू थी कि मेरा सिर भिन्ना उठा।

अपने मकान के बाक़ी तीन किरायेदारों में से मिस्टर कौल ही मुझे भाये थे और उन्हीं से कभी-कभार दो-चार बातें करने में मुझे आनन्द आता था, पर उनकी पत्नी को हम लोग पसन्द थे - हम लोगों से अधिक हमारे रहने-सहने का ढंग उन्हें पसन्द था, हमबैकवर्डथे; इसलिए अपने पति को मुझसे बातचीत करते देखते ही वे उन्हें किसी बहाने से पुकार लेती थीं। उधर, मित्रा-दम्पति अपने-आपमें ही सिमट कर रहनेवाले जीव थे - गैर-बंगालियों कोमेरुआ-खोट्टासमझने की भावना अब तक उनमें जड़ें जमाये हुई थी। केवल बंगाल उनका देश था और उससे बाहर के सब लोग विदेशी थे। फिर, उनमें हीनता की भावना भी बेहद थी - मेरा क्लास वन होना उन्हें बड़ा ख़लता था, हालाँकि मैंने कभी स्वयं यह अनुभव नहीं किया कि मैं उनसे कुछ बड़ा हूँ। एक पत्रकार कभीअफ़सरहो ही नहीं सकता - वह तो प्रूफ़ उठानेवाले और जनरल मैनेजर से भी बराबरी का ही सम्बन्ध रखता है। जोअफ़सरहो जाता है, वह वस्तुतः पत्रकार होता ही नहीं - आज भी मेरी यही धारणा है। पर मिस्टर मित्रा ने शुरू से अब तक अफ़सर और अफ़सरी  ही देखी थी इसलिए वे मुझे अपने बराबर मान ही नहीं पाते थे। एक दिन तो आँगन में बैठ कर उन्होंने अपने एक मित्र से बात करते हुए ये वाक्य इतनी ऊँची आवाज़ में कहे कि ऊपर बैठे मुझ तक पहुँच जाएँ - ’’राज तो छिलो इंगरेजदेर! एखुन कि? एई कांग्रेजी राजे बूट पालिशवाला शोब मिनिश्टर होये आसछे। दुई टाकार लोग अफिशर हच्छे - क्लास वन हच्छे। इंगरेजदेर राजे अफिशर माने अफिशर। फेरिआला शोब कि गैजेटेड अफिशर होतो?’’ (राज तो अंग्रेज़ों का था। अब क्या? इस कांग्रेसी राज में सब बूट पालिशवाले मिनिस्टर बन कर रहे हैं। दो टके के लोग अफ़सर बन रहे हैं - क्लास वन अफ़सर अंग्रेज़ों के राज में अफ़सर का मतलब अफ़सर था। फेरी लगानेवाले लोग क्या गैजेटेड अफ़सर होते थे?)

लेकिन इसके बावजूद मुझे मित्रा-दम्पति और मिसेज़ कौल से कोई शिक़ायत थी। अपने सोचने, समझने और व्यवहार करने के लिए वे स्वतंत्र थे - अपने मन में जो चाहें, समझें; अपने घर में जो चाहें, कहें या करें। वे कम-से-कम ज़बर्दस्ती हमसे टकराते तो थे। पर बख्शी-दम्पति तो जैसे उधार वसूलने पर तुले थे हमसे। एक ओर वे हमसे सम्बन्ध भी बनाये रखना चाहते थे और दूसरी ओर हमें नीचा दिखाने का कोई अवसर भी नहीं छोडते थे। मियाँ-बीवी, दोनों का यही हाल था।

एक दिन मिसेज़ बख्शी ने मुझसे कहा - ’’कोई नॉवेल-टॉवेल है आपके पास?’’

मैंने कहा - ’’ नॉवेल? होंगे तो कुछ, लेकिन हिन्दी के!’’

’’हिन्दी में अच्छा लिखते हैं लोग?’’

’’क्यों नहीं, बहुत अच्छे-अच्छे उपन्यास हैं हिन्दी में।’’

’’दीजिए तो एक। ज़रा देखूँगी।’’

और, मैंने उन्हेंगोदानदे दिया, पर अगले ही दिन शामू उसे लौटा गया।

इसके दो दिन बाद मिसेज़ बख्शी आकर बोलीं - ’’कैसा होपलेस नॉवेल दिया आपने!’’

मैं भौंचक, बोला - ’’गोदानतो बहुत ही अच्छा उपन्यास है!’’

’’होगा। मुझे तो नहीं जमा। एमेच्योर एफ़र्ट है। कोई नया-नया ही राइटर दीखता है।’’

अब मैं क्या कहूँ। जी में आया कि दो-चार कड़वे-कड़वे सुना दूँ उनकी बेअक़्ली पर, लेकिन फिर कुछ सोच कर बोला - ’’नहीं, ऐसा तो नहीं है। लेकिन ख़ैर, आपको पसन्द नहीं आया, तो ... अब क्या कहा जाए। अपनी-अपनी पसन्द है।’’

’’हाँ, इंग्लिश के नॉवेल्स के मुक़ाबले कुछ जमा नहीं। दरअसल, हिन्दी की चीज़ें मैंने पढ़ी भी नहीं हैं। शुरू से अंग्रेज़ी की किताबें पढ़ती रही हूँ। मोपस्संट की कहानियाँ मुझे सबसे अच्छी लगीं। आपने पढ़ी है उसकी कोई कहानी? ... पढ़िए, ज़रूर पढ़िए।’’

अब ऐसी मूर्खा से, जो मोपासाँ का सही नाम भी नहीं जानती थी, मैं क्या बहस करता, बोला - ’’देखूँगा।’’

लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो गयी, उन्होंने आगे कहा - ’’आजकल मैं एक नॉवेल पढ़ रही हूँ, बहुत अच्छा नॉवेल है।’’

स्वभावतः ही, मुझे पूछना पड़ा - ’’कौन-सा नॉवेल?’’

’’मौघम का नाम सुना है आपने? बहुत अच्छा इंग्लिश राइटर है। उसी का नॉवेल है - ऑफ़ या ऑन, मैं भूल रही हूँ, ह्यूमन बॉण्डेज।’’

’’नहीं, मैंने नहीं सुना ऐसा कोई नाम। दरअसल, अंग्रेज़ी से मेरा कोई ख़ास लगाव नहीं रहा।’’ - मैंने कहा। अब मैं क्या उससे यह कहता कि आप जैसी पाठिका पाकर सॉमरसेट मॉम का कल्याण हो जाएगा। केवल मैट्रिक तक अंग्रेज़ी-साहित्य से सम्बन्ध रखनेवाली उस अंग्रेज़ीदाँ एम. कॉम. से यह कहना तो बेवकूफ़ी ही होती कि बी. . में मैंने केवल अंग्रेज़ी-साहित्य में ऑनर्स लिया था, बल्कि एक अंग्रेज़ी-दैनिक में भी चार साल सह-सम्पादकी कर चुका था। वे तो, बस, मुझे हिन्दी में एम. . जानती थीं और इस कारण - उस मूढ़ सेठ की तरह, जिसने एक इंटरमीडियेट पास उम्मीदवार से प्रश्न किया था कि इंटरमीडियेट-फिंटरमीडियेट तो हुआ, मिडिल पास किया है या नहीं - मुझे अंग्रेज़ी से सर्वथा अपरिचित ही मानती थीं।

इधर, मुझे नीचा दिखाने के लिए उनके पास अंग्रेज़ियत का अजीर्ण था, और उधर, इला को दाबने के लिए अपनी साड़ियों तथा गहनों की संख्या और सात सौ रुपये की आमदनी। वे बात-बात पर इला से कहतीं - ’’इतनी महँगाई है। चार-साढ़े चार सौ में कैसे चलता होगा आपका काम? हमें तो सात सौ मिलते हैं और घर में सिर्फ दो आदमी हैं, फिर भी पूरा नहीं पड़ता।’’ और इला जवाब देती - ’’अब चल ही रहा है किसी तरह। चलाएँ, तो क्या करें? ग़रीबों-मजबूरों के क्या दिन नहीं कटते।’’ और ’’हाँ, सो तो है ही।’’ कह कर मिसेज़ बख्शी चुप हो जातीं। इला के मुँह सेग़रीब -मजबूरशब्द सुन कर उन्हें राहत मिल जाती थी।

पर यह सात सौ का नारा भी एकदम ग़लत था, यह मुझे कुछ ही समय बाद मालूम हो गया था। एक दिन मेरे एक पुराने परिचित मिल गये, जो संयोगवश फ़िज़िकल लैबोरेटरी में ही सीनियर साइंटिफ़िक अफ़सर थे। उन्हीं से पता चला कि मिस्टर बख्शी सीनियर साइंटिफ़िक असिस्टेण्ट नहीं, जूनियर साइंटिफ़िक असिस्टेण्ट थे और उन्हें कुल मिला कर तीन सौ के आसपास वेतन मिलता था। दूसरी ओर, उनकी श्रीमतीजी, अर्थात् मिसेज़ बख्शी, किसी डिप्टी सेक्रेटरी की पी. एस. (डिप्टी सेक्रेटरी के प्राइवेट सेक्रेटरी होते ही नहीं, पर्सनल असिस्टेण्ट होते हैं) या पी. . नहीं, बल्कि एक मामूली टाइपिस्ट थीं और उन्हें कुल पौने दो सौ के क़रीब मिलते थे। फिर भी, हमने उन पर कभी यह बात प्रकट नहीं होने दी - सोचा, किसी की दुर्बलता पर क्यों आघात किया जाए, पड़ा रहने दो पर्दा! उन परिचित सज्जन से ही मुझे मिसेज़ बख्शी के शाम को अक्सर घर से लापता रहने के रहस्य का भी पता चला, हालाँकि सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ उस पर। किसी के भी चरित्र के बारे में कोई ऊँची-नीची बात आनन-फ़ानन मान लेने का मेरा स्वभाव नहीं है।

पर ग़लत नहीं कहा था उन्होंने, यह स्वयं मिसेज़ बख्शी ने ही एक दिन जता दिया मुझ पर। उन दिनों मेरी पत्नी मायके (बिहार) गयी हुई थीं - दोनों बच्चे भी उनके साथ ही थे। फिर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मिस्टर बख्शी को जियोफ़िज़िकल रिसर्च इंस्टीट्यूट में किसी काम के सिलसिले में हफ़्ते-भर के लिए हैदराबाद जाना पड़ा। जिस दिन मिस्टर बख्शी गये, उसके दूसरे ही दिन शाम को मिसेज़ बख्शी मेरे पास धमकीं। मैं एक कहानी लिख रहा था, उसे एक ओर करते हुए बोला - ’’आइए, आइए।’’

वासन्ती रंग की नाइलोन की साड़ी और उसी रंग केचमकचाँदनीनाइलोन के ब्लाउज़ में परिवेष्टित मिसेज़ बख्शी मेरे सामने के सोफ़े पर बैठती हुई बोलीं - ’’मैंने डिस्टर्ब किया आपको ?’’ तभी उनके आँचल ने उन्हें डिस्टर्ब किया। यों, आँचल से कुछ ख़ास मतलब नहीं सध रहा था - उसके यथास्थान रहने के बावजूद ब्लाउज़ की ज़रूरत से ज़्यादा कटी गोलाई के अन्दर से उनके बोझिल उरोजों के बीच का गुलाबी दर्रा और ब्रेसियर की सफ़ेदी साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी, फिर भी ख़ानापूरी तो करनी ही थी; उन्होंने मेरी ओर सस्मित देखते-देखते ही उसे फिर से अपनी जगह रख दिया।

’’डिस्टर्ब? नहीं तो। अकेले बैठा-बैठा ऊब गया था, इसीलिए लिखने लगा था!’’ - मैंने जवाब दिया।

’’मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था। अकेलापन ख़ल रहा था। इसीलिए चली आई।’’ - कह कर वे एक अजीब दृष्टि से मुझे देखने लगीं।

’’वह तो स्वाभाविक ही है। ... आज आप लौट भी तो जल्दी आयी हैं।’’

’’क्या करती? दफ़्तर में भी मन नहीं लग रहा था। सोचा, पिक्चर चली जाऊँ, पर अकेले जाना कुछ अच्छा नहीं लगा; आपको टेलीफ़ोन करने की सोची, लेकिन फिर ... अब जाने दीजिए ... कभी-कभी पागलपन सवार हो जाता है मुझ पर!’’ बोल कर एक कॉकेटिशअन्दाज़ से उन्होंने अपनी नाक सिकोड़ी।

मुझे भी कुछ मज़ाक की सूझी, बोल पड़ा - ’’तो आपने मुझे अपनी कम्पनी से महरूम कर दिया बात-की-बात में।’’

’’कहाँ महरूम किया? आपके ही पास तो बैठी हूँ। ... दरअसल, उस समय मैंने सोचा कि आप पसन्द करें भी या नहीं मेरा प्रस्ताव!’’

मैं मुस्कराया - ’’ऐसा कैसे सोचा आपने?’’

’’कोई हमेशा खिंचा-खिंचा रहे, तो और क्या सोचा जा सकता है। साल-भर हो गया साथ रहते, कभी अपनी मर्ज़ी से दो बात भी की है आपने? मैं ही जब-तब छेड़ती रहती हूँ।’’

मैं थोड़ा झेंप गया, झेंपने की बात ही थी, बोला - ’’क्या बताऊँ, मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है!’’

’’औरतों-जैसा ... ?’’ उनके होठों पर फिर एक मादक मुस्कान बिखर गयी।

मैं केवल मुस्कुरा कर रह गया। यह भी कोई जवाब देने-लायक सवाल था?

’’सच बताइये, आप मुझसे खिंचे-खिंचे क्यों रहते हैं? क्या मैं पसन्द नहीं आपको? या कि आप समझते हैं कि एक क्लास वन आफ़िसर एक मामूली-सी औरत को क्या मुँह लगावे?’’ - मिसेज़ बख्शी ने एक बिखर आयी लट को उँगली में लपेटते हुए कहा।

’’नहीं मिसेज़ बख्शी, ऐसी कोई बात नहीं है। आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो गयी है। मुझे बहुत पसन्द हैं आप लोग। और फिर, अफ़सरी तो, आप देख ही रही हैं, कितनी है मुझमें!’’

’’नहीं, मेरा मतलब है, मेरा मॉडर्न होना, ज़माने के साथ चलना, आपको बुरा तो नहीं लगता?’’

’’नहीं तो, बुरा क्यों लगेगा?’’ - मैंने उन्हें समझाया - ’’अब देखिए , हर व्यक्ति की अपनी-अपनी रुचि होती है, सोचने का ढंग होता है। हर कोई एक ही ढंग से कैसे सोच सकता है, कैसे चल सकता है? यह तो को-एक्ज़िसटेन्स का ज़माना है। दूसरों से समझौता किये बिना आदमी एक कदम भी नहीं चल सकता।’’

’’दरअसल, बुनियादी तौर पर मैं भी सोचती आपकी ही तरह हूँ, लेकिन सिचुएशन्स से कॉम्प्रोमाइज़ करना पड़ता है। जिस दुनिया में आदमी रहता है, उसी के साथ चलना भी तो पड़ेगा। नक्कू बन कर पिछड़े रहने में क्या मज़ा है? ख़ैर ... मुझे सचमुच बड़ी ख़ुशी हुई यह जान कर कि यू डू नॉट हैव डिस्लाइक फ़ॉर मी। ... नाउ आइ कैन फ्रीली टॉक टू यू। ... हाँ, तो बताइए, आज कम्पनी देंगे मुझे?’’ - मिसेज़ बख्शी ने पुनः अपने दग़ाबाज़ आँचल को सम्भाला।

’’दे तो रहा हूँ।’’ - मैंने मुस्करा कर कहा।

’’आपकी नज़र बड़ी वैसी है। इस तरह ग़ौर से क्या देख रहे थे?’’ मिसेज़ बख्शी-द्वारा अचानक किये गये इस सवाल ने मुझे चकरा दिया; फिर भी मैं जल्दी ही सम्भल गया, बोला - ’’एक तो खुद दिखाएँ और फिर देखने पर कहें कि क्यों देखा। यों, है तो यह मॉडर्न फ़ैशन ही, लेकिन सच पूछिए, मैडम, तो यह अन्याय है।’’

’’यू मिसचिवस।’’ - कहते समय मिसेज़ बख्शी की आँखें अजीब ढंग से चमक उठीं, बोलीं - ’’बताइए, चलते हैं पिक्चर?’’

’’पिक्चर? अभी कौन-सी पिक्चर मिलेगी? सात बज रहे हैं।’’

’’नौ का शो, जनाब, नौ का! बोलिए, चलेंगे?’’

मिसेज़ बख्शी की नीयत समझने में कुछ बाकी नहीं रह गया था और मैं उनके जाल में फँसने को तैयार नहीं था, इसलिए कहा - ’’सेकंड शो तो, भाई, मुझे जमता नहीं। और फिर, आज मैं यह कहानी पूरी करना चाहता हूँ - मूड आया हुआ है। होगा, कल या परसों चलेंगे, फ़र्स्ट शो में।’’

’’जैसी आपकी मर्ज़ी।’’ - मिसेज़ बख्शी का चेहरा थोड़ा लटक गया। वे कुछ देर सोचती रहीं, फिर बोलीं – ’’अच्छा, फिर चलें, कुछ ड्रिंक ही की जाए। मेरे यहाँ है। चलेंगे या यह भी नहीं?’’

’’ड्रिंक?’’ - मैं हँस पड़ा - ’’इन सब मामलों में मैं निहायत बैकवर्ड हूँ, मिसेज़ बख्शी। आइ ऐम सॉरी टु डिसप्वायंट यू।’’

मिसेज़ बख्शी की आँखें अंगारे बन गयीं, बोलीं - ’’मैं सब समझती हूँ। मैंने मर्दों को बहुत पास से देखा है। आप मुझसे नफ़रत करते हैं। मैं आपको पसन्द नहीं हूँ। मैं बदसूरत हूँ। इसीलिये ये सब बहाने ... ’’ बोलते-बोलते उनकी आवाज़ भर्रा गयी, उनकी आँखों में आँसू भर आये।

मैंने इस स्थिति की कल्पना की थी - दो क्षण के लिए मैं हक्का-बक्का रह गया, फिर यन्त्रचालित-सा उठ कर उनके पास पहुँचा और उनके सिर पर हाथ रख कर बोला - ’’ विश्वास मानिए, मिसेज़ बख्शी। ऐसी कोई बात नहीं है। मैं आपकी इज़्ज़त करता हूँ। आपका दिल दुखाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं सचमुच नहीं पीता। वैसे, आप कहें, तो मैं आपके पास बैठ कर शर्बत पी लूँगा, आप जो चाहें, सो पीजिएगा! डोंट मिसअण्डरस्टैण्ड मी!’’

पर मिसेज़ बख्शी पर इसका असर कुछ दूसरा ही हुआ। वे एक झटके से उठ खड़ी हुईं - ’’मुझे आपसे बात नहीं करनी। ऐसे हैंडसम नहीं हैं आप कि मैं मर जाऊँगी!’’ बोलते-बोलते वे बाहर निकल गयीं।

लेकिन अगले ही दिन शाम को वे फिर आयीं मेरे पास और धमकी दे गयीं कि अगर मैंने कल की घटना को प्रचारित किया, तो वे मेरे पारिवारिक जीवन में आग लगा कर रख देंगी। मैंने उन्हें बड़े ही संयत भाव से उत्तर दिया कि वे चाहे आग लगावें या पानी बरसावें, मैं किसी की कमज़ोरी का नाजायज़ फायदा उठाने या मज़ाक उड़ाने में विश्वास नहीं रखता - वे निश्चिंत रहें। और, मेरा ख़याल है, उन्हें मेरी बात पर विश्वास भी हो गया, क्योंकि हैदराबाद से लौटने के बाद भी मिस्टर बख्शी का व्यवहार मेरे प्रति पूर्ववत् रहा - उनसे यह नहीं कहा गया था कि उनकी ग़ैरहाज़िरी में मैंने उनकी पत्नी से लिबर्टी लेने की कोशिश की थी। मिसेज़ बख्शी का व्यवहार अब पूर्ववत् हो गया था, मानो इस बीच कभी कुछ हुआ ही हो।

यों, हुई तो यह एक अच्छी बात, पर अब तक अन्दर-ही-अन्दर मेरा मन बख्शी-दम्पति से बेहद खट्टा हो चुका था। हर बात में अतिशयोक्ति, हर काम कॉम्प्लेक्स से भरा हुआ। आखिर, आदमी कब तक ख़ाली लिफ़ाफ़े को भरा बताए, और सिर्फ भरा ही बताए, उसके मजमून के काल्पनिक वर्णन को सुन-सुन कर दाद भी देता रहे। इस तरह पागल बनना या बनाया जाना मुझे कतई पसन्द था, पर मजबूरी थी - मैं नहीं चाहता था कि उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचे। पर उन्हें जैसे मुझे ठेस पहुँचाने में ही मज़ा आता था। इधर उन्होंने मुझे और-तो-और, इस बात के लिए बैकवर्ड कहना और कोसना शुरू कर दिया था कि मेरे मित्रों की संख्या बहुत कम थी - मैं अनसोशल था। अब वे अक्सर अपने मित्रों के नाम और कारनामे सुना-सुना कर मुझे बोर करने लगे थे। अपने विदेशी मित्रों के नाम लेते समय तो उनके मुँह का जैसे ज़ायका ही बदल जाता था। फिर, बीच-बीच में वे यह भी जता देते थे कि उनका मित्र उन्हें अमेरिका, या हॉलैण्ड, या इंगलैण्ड, या जर्मनी बुलवाने की व्यवस्था कर रहा है। अपने मित्रों-परिचितों की संख्या इधर शायद बढ़ायी भी थी उन्होंने, क्योंकि अब अक्सर उनके यहाँ कोई--कोई व्यक्ति चाय या डिनर पर आता था। और, दुर्भाग्य मेरा, उनमें से कई मौक़ों पर वे मुझे भीप्रेमवशबुला लेते थे। पर वहाँ जाकर मैं ख़ुश कभी हो सका, क्योंकि उनका परिचय कराने का ढंग वही पहले दिनवाला-जैसा होता था और अब मिस्टर मित्रा और मिस्टर कौल की स्थिति में मैं अपने को पाता था। लेकिन इस सामाजिकता से उन्हें स्पष्टतः लाभ था। मिसेज़ बख्शी इधर ज़रूर कभी-कभी एकाध दिन या रात के लिए ग़ायब हो जाती थीं, पर उनके घर में चीज़ों की संख्या बढ़ रही थी। छः महीनों के अन्दर-अन्दर उनके यहाँ रूम-कूलर, रेफ्रि़जरेटर और ऐसी ही कुछ दूसरी चीज़ें गयीं। चीज़ें गयीं, यह भी ठीक, पर इतने से ही उन्हें सन्तोष होता। वे अक्सर हमें चिढ़ाते यह कह कर - ’’आप भी ख़रीद लीजिए एक। इतना पैसा बचा कर क्या करेंगे?’’ सुन कर मेरे मुँह में गाली जाती, जी में आता कि उधेड़ कर रख दूँ बखिया, लेकिन फिर यह सोच कर चुप हो जाता कि पागलों से क्या मुँह लगना - बेचारे दया के पात्र हैं; पड़ा रहने दो आवरण, जब तक रख सकें; अन्त में तो उसे हटना ही है, उन्हें निरावरण होना ही है - ऐसे झिलमिले आवरण से वे कब तक ढँक सकेंगे अपनी लाज?

पर आज मुझे मालूम हो गया है कि इस नाइलोन के युग में आधुनिकता-पसन्द लोगों के घृणित चरित्र का आवरण भी नाइलोन का ही है - पारदर्शक! वे निश्शंक भाव से नाइलोन ओढ़ते हैं और अपनी नग्नता के लिए लजाने की बजाय पूछते हैं - ’’अच्छा लग रहा है ?’’ इसीलिए इला और मैंने आज निश्चय किया है कि हम मकान बदल लेंगे - अपनी नग्नता के लिए उन्हें लाज नहीं आती, तो आए, हमें तो आती है और इसलिए हमें उनके सामने से हट जाना चाहिए।

ऐसा क्या हुआ आज? बताता हूँ।

आज दोपहर में मिस्टर बख्शी आकर मुझसे कहने लगे कि शाम को उनके एक अमेरिकन मित्र और उनकी पत्नी चाय पर रहे हैं, इसलिए मुझे भी चाय वहीं पीनी होगी। पहले तो मैंने टालना चाहा, पर वे ज़िद करने लगे कि वह अमेरिकन छः-सात साल पहले दिल्ली आया था और तभी से उनका मित्र है - इतना निकट का मित्र है कि कुछ पूछिए। कितनी ही चीज़ें उसने अमेरिका से भेजी हैं इनके लिए। वह तो इन पर बहुत ज़ोर डाल रहा है अमेरिका चलने के लिए, पर कुछ कठिनाइयों की वजह से यहीहाँनहीं कर पा रहे हैं। अपने ऐसे मित्र से भला वे मुझे कैसे मिलाएँ। सो, अन्त में मुझे राज़ी होना पड़ा।

निश्चित समय पर अमेरिकन दम्पति आये और मुझे बुलाया गया। परिचय की रस्म अदा की गयी और तब बातचीत आरम्भ हुई। मैं उनसे उनके देश और जीवन के बारे में पूछता रहा और वे मुझसे यहाँ के बारे में पूछताछ करते रहे। बख्शी-दम्पति भी बड़े उल्लास से वार्तालाप में योगदान करते रहे, चुटकुले सुना-सुना कर ठहाके लगाते रहे। चाय-नाश्ता साथ-साथ चल रहा था।

चाय का क्रम उस समय लगभग समाप्ति पर था, जब शामू ने आकर धीरे से मिसेज़ बख्शी के कान में कुछ कहा। मिसेज़ बख्शी उठ कर बाहर गयीं और जब उन्हें लौटने में थोड़ी देर हुई, तब मिस्टर बख्शी भी किसी बहाने से स्थिति की टोह लेने के लिए कमरे से बाहर निकल गये। कमरे में बाक़ी बच गये केवल अमेरिकन-दम्पति और मैं।

अब अमेरिकन सज्जन मिस्टर हारपर ने बख्शी-दम्पति की प्रशंसा करते हुए मुझसे जो-कुछ कहा, उसका सारांश इस प्रकार है - ’’सचमुच भारतीयों के आतिथ्य का कोई मुक़ाबला नहीं है। इनकी इन्हीं बातों से तो भारत की उच्च संस्कृति का पता चलता है। कल शाम कनॉट प्लेस के हैंडिक्राफ़्ट एम्पोरियम में बख्शी-दम्पति से मुलाकात हुई और इन्होंने आज चाय पर आने के लिए हमें विवश किया। बिना किसी जान-पहचान या स्वार्थ के इस तरह स्वागत-सत्कार करना केवल भारत में ही सम्भव है, और कहीं नहीं।’’

सुन कर, कह नहीं सकता, मेरी क्या दशा हुई। मिस्टर बख्शी की सात साल पुरानी मैत्री का यह अन्तरंग परिचय मेरे लिए एकदम ही कल्पनातीत था। इतना झूठ किसलिए? क्या केवल दूसरों पर या कि मुझ पर यह रौब डालने के लिए कि विदेशियों से भी उनके सम्बन्ध हैं और वे साधारण नहीं हैं! हद हो गयी हीनता की भावना की। फिर भी, मैंने चुप रहना ही उचित समझा - क्यों आवरण हटाओ किसी का। पर हारपर-दम्पति के जाने के बाद जब मिस्टर बख्शी ने मुझसे पूछा कि उनके अमेरिकन मित्र मुझे कैसे लगे, तब उनके शब्द मुझे चिढ़ाते हुए-से प्रतीत हुए और मैंने आवेश में आकर उन्हें निरावरण कर दिया, कह दिया - ’’बहुत अच्छे लगे। लेकिन वे शिक़ायत कर रहे थे कि उनके पत्रों का आप जवाब नहीं देते। बेचारे प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं।’’


सुन कर मिस्टर बख्शी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। इस उत्तर की उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। पर उस ख़ानाबदोश गड़रिया लड़की की तरह अपने फट कर तार-तार हुए आवरण का मोह उनमें भी तुरन्त ही जाग उठा; दो क्षण उपरान्त ही एक बेशर्मी की हँसी हँसते हुए उन्होंने जवाब दिया - ’’बड़ा मज़ाकिया आदमी है वह - बातें ख़ूब बनाता है। यह तो गनीमत समझिए कि उसने यह नहीं कहा कि मेरी-उसकी कोई जान-पहचान ही नहीं है।’’

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