कितना वज्र सन्नाटा छाया है। लगता है, सृष्टि की धड़कन ही बन्द हो गयी है। प्रलय के बाद की-सी शान्ति के ही अनुरूप फैला है अन्धकार भी - मौत की चादर ने जैसे ढँक लिया है सबको। बिल्ली की चमकती आँखें भी शायद आज नहीं भेद सकेंगी तिमिरावरण को। पर न, कौन जाने, बिल्ली न हो उतनी असमर्थ - उसे सर्वत्र उजाला-ही-उजाला दिखे। सब सामर्थ्य का ही तो खेल है - अमावस्या सहज ही पूर्णिमा में बदल जाती है और पूर्णिमा अमावस्या में।
हाँ, बगल के कमरे में दिन का-सा प्रकाश है। समाये नहीं समा रहा
है उजाला - किवाड़ों के जोड़ों से होकर फूट पड़ना चाहता है। सन्नाटा भी नहीं ही है -
कुछ फुसफुसाहट-सी सुनाई दे रही है। कभी गिलास से बोतल टकराने की हल्की ’टन्’ और कभी शीशे की चूड़ियों की मादक खनखनाहट भी। सौभाग्य वहाँ
जागृत है।
देखूँ उठ कर? किवाड़ों के दग़ाबाज़ जोड़ों की लूँ मदद? चुरा लूँ प्रकाश? बटोर लूँ थोड़ी मुखरता? न ... मुझे सहन न होगा - प्रकाश से नहीं, अन्धकार से मेरा नाता है। दुर्भाग्य कैसे देख सकेगा
सौभाग्य को? एक सिक्के के दो पहलू कभी
देखते हैं एक-दूसरे को? केवल अनुभव करते हैं एक-दूसरे के अस्तित्व को, ढोये फिरते हैं पीठ पर भार।
मैं दूसरा पहलू हूँ सिक्के का - राजचिह्न मेरी पीठ पर है।
मेरा काम है राजचिह्न के आदेश का पालन करना, मुनादी करना - सौ पैसे, पचास पैसे, पच्चीस पैसे, दस पैसे, पाँच पैसे, तीन पैसे, दो पैसे, एक पैसा। पर एक पैसा भी मूल्य नहीं है मेरा - वहाँ भी
राजचिह्न पीठ पर सवार है। बिना राजचिह्न के मुझे कोई स्वीकार न करेगा। पर यदि मैं
न होऊँ, तो? राजचिह्न का मूल्य कौन समझेगा! ... पर यह तो विद्रोह
का चिह्न है। और, असमर्थ विद्रोही बराबर ही
कुचला जाता है!
तब? सोने की कोशिश करूँ। असमर्थ को जागना नहीं चाहिए। इसी में
उसका कल्याण है। राजू मेरी बगल में बेख़बर सोया है - उसे क्या पता, मैं उसके पास हूँ या नहीं? रानी बगल के पलंग पर सोयी है - उसे क्या पता कि उसकी
माँ उसके पास है या नहीं। किन्तु अभी अगर वह जाग जाए, तो?
तो वह चिल्लाएगी, शोर मचाएगी, विद्रोह करेगी। चार साल की अबोध बालिका है, तो क्या हुआ? जागरण उसमें विद्रोह लाएगा, और चूँकि वह अक्षम है, इसलिए पिट जाएगी, उसे फिर सुला दिया जाएगा! वह-तो-वह, दो साल के राजू का भी यही हाल होगा। इनका जागना न तो
इरा को सहन होगा और न ठाकुर साहब को। कोई भी समर्थ अपने आनन्द में खलल बर्दाश्त
नहीं कर सकता।
पर नींद जो नहीं आती। मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि अभी थोड़ी
देर पहले बगल के कमरे का दरवाज़ा ख़ुला होगा, प्रकाश का एक थोका इस कमरे के अन्धकार को ढकेल कर बढ़
आया होगा, ठाकुर साहब ने इरा के
वक्ष सहला कर अपने आने की सूचना दी होगी, जागी इरा फिर भी ’सोयी’ ही रही होगी, और जब उन्होंने अपनी दोनों बाहों में उसे सोयी अवस्था में
ही उठाया होगा, तब वह हौले-से उठ गयी
होगी। इसके बाद का भी दृश्य मुझे स्पश्टतः दिखाई पड़ रहा है। प्रकाशमान कमरे में
पहुँच कर बाँहों में लटके-लटके ही उसने ठाकुर साहब का मुँह चूम लिया होगा, फिर मुस्कुराते हुए अपनी आँखें खोल दी होंगी। हर बार
ऐसा ही होता है। मैं कई बार देख चुका हूँ। इस मदहोशी के आलम में कई बार तो वे
दरवाज़ा उठगाना भी भूल जाते हैं। शायद ज़रूरत भी नहीं इसकी। डर किस बात का? फलतः, उस कमरे का प्रकाश, सौभाग्य, इस कमरे के अन्धकार, दुर्भाग्य, को चिढ़ाता रहता है।
उफ़्, रानी ने करवट बदली। कहीं जाग न जाय। अनर्थ हो जाएगा। बेचारी
पिट जाएगी। मैं उसे अपनी गोद में सटा कर थपकियाँ दे दूँ? पर उठूँ कैसे? मैं तो ’सोया’ हूँ। कैसी विवशता है।
ख़ैर, सो गयी बेचारी। भाग्य अच्छा है उसका।
भाग्य, भाग्य, भाग्य! उँह! कितनी बुरी चीज़ है यह भाग्य भी! सृष्टि का सबसे
बड़ा तानाशाह! आदमी भागता फिरता है इसके पीछे हाथ जोड़ कर - कितना अपमान सहता है, कितनी लांछनाएँ बर्दाश्त करता है! मुझे अच्छी तरह याद
है, उस रात मैं भी अपना भाग्य
जगाने गया था। उससे पिछली ही रात मैंने पहली बार देखा था इरा का प्रेम, उत्तेजना जगाने का ठाकुर साहब का ढंग। मैंने भी आधी
रात को चुपके-से उठ कर इरा के वक्ष सहलाये थे, फिर उसे बाँहों मे उठा कर अपने पलंग पर लाने की कोशिश
की थी। सोचा था ... अब क्या बताऊँ, बहुत-कुछ सोचा था। पर उस दिन इरा जागी नहीं, सोयी थी, और ऊपर उठाते समय जब जागी थी, तब चण्डी-रूप में - मैंने उसका प्रेम नहीं, क्रोध पाया था और दोनों बच्चे जाग कर हक्के-बक्के-से
मेरा चेहरा देखने लगे थे। कहाँ थी उसमें प्रेम की वह ऊष्मा, वासना की वह आग, जो मैंने पिछली रात देखी थी? वह तो बर्फ़ से भी अधिक ठंडी थी - वज्र कठोर! मेरी
प्रज्वलित कामना उसे पिघला नहीं सकती थी। बस, कभी-कभी ही थोड़ा परिवर्तन परिलक्षित होता है उसमें -
या तो तब, जब उसकी वासना का चक्र
बड़ी तेज़ी से घूमने लगता है और उस ताप से बर्फ़ पिघलने लगती है; या फिर तब, जब उसे मेरी दशा पर तरस आता है। कोई सम्बन्ध न होने
पर भी, साथी मुसाफ़िर पर रहम खा
कर कभी-कभी लोग चलती गाड़ी में एक गिलास पानी नहीं दे देते हैं! फिर, मैं तो उसका पति हूँ, उसके दोनों बच्चों का ’बाप’!
गिलास ठनकने के दो मिनट के अनन्तर ही होंठ चटखने की कितनी तेज़
आवाज़! उफ़्, बर्फ़ का पानी चट्टानों
से टकराता हुआ तेज़ी से रास्ता बना रहा है नीचे उतरने का - मचल रहा है अतल गहराइयों
में जल्दी-से-जल्दी पहुँचने को!
बर्फ़ कब पिघलती है, शिला कब पानी बनती है - यह केवल ठाकुर साहब जानते हैं, और उस रात बगल के कमरे का प्रकाश इस कमरे के अन्धकार
में घुस आता है। या फिर ठाकुर साहब के स्पर्श से ही शिला पिघल उठती है। उनकी
उँगलियों में हीरे की अँगूठियाँ हैं न! साथ ही, उनकी हथेलियाँ उस नायाब चीज़ की सुगन्ध भी छोड़ती रहती
हैं, जो बड़े ’स्नेह’ से लाकर उन्होंने बगल के कमरे में रख दी होती है। हर
चार-पाँच दिन पर ऐसा होता है, बर्फ़ में आग लगती है और इसकी सूचना इरा तथा ठाकुर साहब, दोनों को होती है। तभी तो, उस रात ’सोयी’ इरा जागती रहती है और प्रकाश के एक भभके के साथ प्रवेश करके
ठाकुर साहब उसे उठा ले जाते हैं - दुलारने को, प्यार जताने को, उसका ताप हरने को!
पर शुरू-शुरू में ऐसा नहीं होता था - कोई दो साल तक ऐसा
नहीं हुआ था। उन दिनों दूध की मक्खी नहीं था मैं, नौकर भी नहीं था ठाकुर साहब का। दोस्ती का रिश्ता था
हमारा, और इरा हम दोनों की
उपभोग्या थी। वह विजित वस्तु थी और हम दोनों विजय के साझीदार! ठाकुर साहब के शब्दों
में, इरा द्रौपदी थी दो
पाण्डवों की - मैं अर्जुन था और ठाकुर साहब भीम! हमारा बराबर का हक़ था उस पर।
तदनुसार ही, हम तीनों एक साथ बैठते थे, हँसते-बोलते थे, खाते और पीते थे - इरा परेशान हो जाती थी प्यार के
दोतरफ़ा वारों से। संकोच और झिझक का नामोनिशान तक न था हमारे बीच - बस, जब आँखों को चुभने का अंदेशा होता था, तब मरकरी लाइट का बटन उठा कर नाइट लाइट का बटन दबा
दिया जाता था।
लोग शायद थूकेंगे मुझ पर, यह वृत्तान्त सुन कर। ऐसे पति के साथ भला किसकी
सहानुभूति होगी! लेकिन यदि पत्नी मिली ही इस शर्त पर हो, तो?
हाँ, मेरे विवाह की भी एक कहानी है - उतनी ही अनोखी, जितनी मेरी आज की ज़िन्दग़ी।
इरा उन दिनों दाल-मण्डी में बैठती थी। उसने अपनी माँ की
गद्दी सम्भाली थी। लेकिन ठाकुर साहब की और मेरी नज़र उस पर तभी से थी, जब उसने गद्दी नहीं सम्भाली थी - ’बच्ची’ थी! हम बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे इरा का ’नथ’ उतरने की। हर एक-दो महीने पर याद दिलाते थे उसकी माँ को, और वह हमारी बेक़रारी की आग में घी डाल देती थी यह कह
कर - ’’थोड़ा तो सब्र करें, हुज़ूर! अभी भला वह किस लायक है!’’ और फिर, एक दिन जब उसने पूछ दिया था - ’’क्या नजराना मिलेगा, हुज़ूर?’’ तब ठाकुर साहब ने जहाँ पाँच सौ की बात कही थी, वहाँ मैंने अनायास ही एक हज़ार की घोषणा कर दी थी।
मुझे ऐसा लगा था कि पाँच सौ कह कर ठाकुर साहब ने इरा के सौन्दर्य का अपमान किया
है। पर बेला बाई को एक हज़ार की रक़म भी अपमानजनक ही लगी थी, उसने कहा था - ’’बस हुज़ूर? यही है जौहरी की परख? इतनी सस्ती ख़ूबसूरती के लिए ही बेक़रार हैं आप? बाँदी सौ जूतियाँ खाने को तैयार है, बन्दापरवर, अगर इरा का नथ पाँच हज़ार से कम में उतरे!’’ और, उसके बाद मुझमें और ठाकुर साहब में होड़ चल पड़ी थी। उन
दिनों मैं भी कुछ कम न था - वकील बाप झूठ की कमाई का ढेर छोड़ गये थे और मैं दोनों
हाथों से उसे लुटा रहा था। अन्ततः ठाकुर साहब ने सत्रह सौ इक्यावन पर पहुँच कर
ब्रेक लगा दिया था और मैं बेला बाई के चढ़ाने पर, दो हज़ार पाँच सौ इक्यावन रुपये भेंट करके, इरा के नथ तक पहुँच गया था। ठाकुर साहब शुरू से ही
व्यावहारिक आदमी रहे हैं - बयार देख कर पीठ ओड़ना जानते हैं। मेरी सफलता पर बधाई
देते हुए उन्होंने कहा था - ’’यार, मैं तो तुम्हारी जीत भी अपनी ही समझता हूँ। किसी तीसरे साले
की जीत नहीं हुई, इसकी मुझे बेहद ख़ुशी है!’’
उँह, ठाकुर साहब पलंग के बोल्ट कसवा क्यों नहीं देते? कितनी आवाज़ होती है! लेकिन उन्हें असुविधा भी क्या
होती होगी बोल्टों के ढीलेपन से। मैं ही ध्यान हटा लेता हूँ उधर से - दीवार की तरफ़
मुँह कर लेता हूँ। कैसा अजीब-अजीब-सा होने लगता है दिल में।
इस दिल ने ही तो बर्बाद कर
दिया मुझे। न दिल होता, न फेंकता फिरता, न फटेहाल बनता। इतने बड़े वकील का बेटा मैट्रिक से आगे
न बढ़ पाया, इससे बड़ा दुर्भाग्य और
क्या होगा मेरा! पाँच साल तक पढ़ता रहा बनारस में, हज़ार रुपये से भी अधिक ख़र्च किये हर महीना, फिर भी इण्टर तक न कर सका। बाईजियों के चरण चाँपने से
फ़ुर्सत मिलती, तब न किताब छूता -
घुंघरुओं की झनकार दिमाग़ से उतरती, तब न किताबी बातें समातीं उसमें। बस, दिन में क्लास चला जाता, हाज़िरी लगवा देता - रात को मुझे कहाँ थी फ़ुर्सत! वी.
आई. पी. (अत्यधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति) जो था दाल-मण्डी का! और, जो हाल होता है ऐसे वी. आई. पी. लोगों का, वही मेरा भी हुआ। मेरे कॉलेज-जीवन का वह चौथा वर्ष था, जब अपने इकलौते बेटे की तीरन्दाज़ी के कारण घुल-घुल कर
जी रही विधवा माँ पूर्णतः घुल गयी - सदा के लिए चली गयी इस संसार से, और वह पाँचवे वर्ष का आरम्भ था, जब ख़ानदानी मकान की बिक्री से प्राप्त रक़म के एक अंश
के बदले में मैंने इरा के नथ को हाथ लगाया था।
लेकिन एक बात है। इरा के प्रति मेरा लगाव हार्दिक था। उसका
नथ उतारने के बाद मैं किसी और कोठे पर नहीं गया, और कहीं जाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई। मुझे उससे
प्यार हो गया था - मैं उसी के साथ ज़िन्दग़ी बिता देना चाहता था। और-तो-और, ठाकुर साहब जो उसके पास जाते थे, वह भी मुझे अच्छा नहीं लगता था। वे उसे हाथ लगाते थे, तो मेरी आँखें कड़ुआने लगती थीं। पर मैं उन्हें रोक
नहीं सकता था - वह एक वेश्या का कोठा था और ठाकुर साहब मेरे मित्र थे; सैंकड़ों ही सुन्दरियों को हमने एक साथ हाथ लगाया था; यही नहीं, दोनों को एक साथ कमरे में रहने दिया जाए, इसके लिए हम उन्हें अतिरिक्त धन देते थे। किसी के
सौन्दर्य को एक साथ मिल कर नोचने-खसोटने में हमें एक अजीब ख़ुशी होती थी। पर इरा
मात्र सुन्दरी ही तो नहीं थी, वह मेरी हृदयेश्वरी भी थी - एकमात्र हृदयेश्वरी। मैंने अपनी
बची-ख़ुची सारी सम्पत्ति धीरे-धीरे उसे भेंट कर दी, ताकि शेष सबकी ओर से उसका मन फिर जाए - ठाकुर साहब की
ओर से भी - और वह सम्पूर्णतः मेरी हो जाए, कोठा छोड़ कर घर बसा ले एक। और, मेरा वह प्रयास व्यर्थ नहीं गया - इरा के मन में उस
जीवन के प्रति विराग उत्पन्न हुआ; सभ्य संसार में आने की - अपने घर की स्वामिनी और अपने
बच्चों की माँ कहलाने की - कामना उसके अन्तर में जागी। पर पत्नी वह मेरे जैसे
कंगाल-अप्रतिष्ठित की नहीं, ऐश्वर्यशाली प्रतिष्ठित ठाकुर साहब की बनना चाहती थी।
मेरे सामने स्पष्ट हो गया - इरा मेरी पत्नी तो नहीं ही
बनेगी, उसके दर्शन भी अधिक समय
तक नहीं कर सकूँगा अब! कितनी गहरी पीड़ा हुई मुझे, कह नहीं सकता। आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं
रहा मेरे पास!
पर आत्महत्या करने की नौबत नहीं आयी। एक दिन ठाकुर साहब ने
कहा - ’’मैंने सब ठीक कर लिया है।
वह तुमसे विवाह कर लेगी।’’
’’पर वह तो आपसे विवाह करना चाहती है!’’ - मैंने शंका व्यक्त की।
’’अरे दोस्त, मैं क्या करूँगा शादी! कोई तुम्हारी तरह छुट्टा-क्वाँरा हूँ
मैं। बीवी है, जवान बच्चे हैं। तुम इन
सब बातों की चिन्ता मत करो। सब ठीक हो जाएगा।’’ - ठाकुर साहब ने मुझे आश्वस्त किया।
’’लेकिन मेरे साथ ग़रीबी की ज़िन्दग़ी कैसे बिताएगी वह - मेरी
समझ में कुछ नहीं आ रहा!’’ - अपना संशय मैंने साफ़-साफ़ उनके सामने रख दिया।
’’मेरे रहते तुम ग़रीबी की ज़िन्दग़ी क्यों बिताओगे भला? अपने ’लक्ष्मी धाम’ में रहना। ख़ाली करा दूँगा दो कमरों का एक फ़्लैट।’’
’’लेकिन उसका तो बहुत किराया है। कहाँ से दूँगा मैं?’’
’’अँह, निरे भोंदू हो तुम। भला तुमसे किराया लूँगा मैं? वह मकान जैसे मेरा है, वैसे ही तुम्हारा है, वैसे ही इरा का है। तुम निश्चिंत हो कर रहो। बस, अगले इतवार को हो जाएगी शादी - आर्यसमाज में!’’
मेरी तो अक़्ल ग़ायब! अचानक यह सब क्या हो गया! ठाकुर साहब
की मित्रपरायणता के आगे मेरा माथा झुक गया, भर्राये स्वर में बोला - ’’आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूँगा मैं!’’
’’पागल!’’ - ठाकुर साहब ने मुस्कराते हुए मेरी पीठ थपथपायी।
तभी एक दूसरी आशंका ने मुझे विचलित किया; मैंने पूछा - ’’लेकिन बेला बाई?’’
’’उँह, तुम छोड़ो यह सब चिन्ता! मैंने सब ठीक कर दिया है। एक तो
बुढ़िया यों ही मर रही है, बीमार है। फिर, मीरा भी तो अब तैयार हो गयी है। उसकी नथ का सौदा
मैंने दो-ढाई के बदले दस हज़ार में तय कर लिया है। बुढ़िया ख़ूब समझती है इसका मतलब!
फिर यह भी मालूम है उसे कि हाक़िम-हुक्काम मेरे हाथ में हैं; चाहूँ तो बिना एक पैसा दिये उसे हाजत के अन्दर करा कर
इरा को बाहर निकाल लूँ - मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किसी से वेश्यावृत्ति नहीं करायी जा सकती।
और आख़िरी बात, मेरे लठधरों के आगे वह
चूँ नहीं कर सकती।’’
और, इस तरह, इरा मेरी विवाहिता पत्नी बन कर ’लक्ष्मी धाम’ के इस फ़्लैट में आ गयी। उसके प्रति अपनी प्रबल आसक्ति
के कारण, इस ’पत्नीत्व’ का अर्थ समझते हुए भी, मैंने उसका पति बनने में आनन्द अनुभव किया - मैं उससे
दूर नहीं रह सकता था। शुरू में उसका यह पत्नीत्व मुझे अधिक ख़ला भी नहीं - इरा और
ठाकुर साहब, दोनों ने ही मुझसे बराबरी
का बर्ताव किया। अपने ’दाम्पत्य’ जीवन में ठाकुर साहब की दख़लअन्दाज़ी को उनका उचित अधिकार मान
मैंने अपने-आपसे समझौता किया। इरा के दो पति थे, जिनमें से एक मैं था।
उफ़्, ठाकुर साहब इतने निर्दयी क्यों हो जाते हैं! किस तरह
कराह रही है इरा! पर क्या कर सकता हूँ मैं? उसे भी तो सुख मिलता है इसी में। हाँ, दुःख केवल मुझे होता है, वास्तविक छटपटाहट केवल मुझे होती है। इस पीड़ा से मौत
मेरी आएगी, सिर्फ़ मेरी, और किसी की नहीं। इस समय कितनी तेज़ है मेरे दिल की
धड़कन। मुझे निस्सन्देह हृदय रोग हो जाएगा। बच नहीं सकता मैं। किससे कहूँ अपनी यह
व्यथा? कौन समझेगा इसे? उफ़्, बन्द कराओ भगवान्, बन्द कराओ यह लीला। मैं पागल हो जाऊँगा। हाँ, सीत्कार कुछ धीमी पड़ी ... विलुप्त हो रही है ... हो
गयी। भगवान् कभी-कभी सुन लेता है मेरी, आदमी चाहे न सुने।
इरा को ही ले लें। उसने यदि सुनी होती मेरी बात, तो आज यह नौबत क्यों आती! रानी जब पैदा हुई थी, तभी मैंने उससे कहा था कि अब हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ गयी
है - हमें केवल अपनी नहीं, बच्चों की भी सोचनी चाहिए; उनके मान-अपमान और लोकप्रतिष्ठा का भी ध्यान रखना
चाहिए। हमें चुपचाप बनारस छोड़ देना चाहिए। उस समय तक इरा का व्यवहार ठीक था मेरे
प्रति - ठाकुर साहब के साथ-साथ मेरा भी ध्यान रखती थी वह। मुझे प्रेम से
खिलाती-पिलाती थी - मेरी इच्छा-अनिच्छा को मूल्य देती थी। उस दिन उसने जवाब दिया
था - ’’मैं भी चिन्तित हूँ इस
बारे में। लेकिन फिर सोचती हूँ - सौ-सवा सौ में कैसे होगा गुज़ारा। नौकरी से नहीं
चल पाएगा। इसलिए मेरा विचार है, यदि कुछ पूँजी इकट्ठी हो जाए हमारे पास, तो तुम कोई धन्धा कर लो। और, पूँजी के लिए ठाकुर को ऐंठना ही पड़ेगा - उसे छोड़ देना
बेवकूफ़ी होगी।’’ उसका तर्क मेरी समझ में आ
गया था। मैंने उससे सहमति जता दी थी। ठाकुर साहब की दो सौ रुपये की नौकरी भी कुछ
महीने बाद मैंने केवल इसलिए स्वीकार कर ली थी कि मैंने समझा था, इरा की व्यूह रचना का ही एक अंग है यह भी!
पर उसके बाद भयंकर परिवर्तन आ गया दोनों में। इरा ने मुझसे
सीधे मुँह बात करना छोड़ दिया - अपने स्पर्श के अधिकार तक से वंचित कर दिया मुझे।
मैं उसका दास हो गया - वह स्वामिनी बन गयी। हम तीनों का साथ बैठना भी बन्द हो गया।
ठाकुर साहब अब जब भी आते, मुझे किसी काम से बाहर भेज देते। फिर, फ़्लैट के एक कमरे का दरवाज़ा बाहरी बरामदे पर ख़ुलता है, उसे सभी किरायेदारों को जता कर ठाकुर साहब ने अपने
कब्ज़े में ले लिया और उस पर अपना ताला डाल दिया - उन्हें अपने ’निजी कार्यालय’ के लिए उसकी ज़रूरत थी। काम करते-करते विश्राम के लिए
उन्होंने एक पलंग भी उसमें डलवा लिया। यों, यह कार्यालय कभी-कभी दिन में भी ख़ुलता है और ठाकुर
साहब यहाँ बैठ कर कुछ लिखा-पढ़ी करते हैं, पर तब इस कमरे और उस कमरे को जोड़नेवाला दरवाज़ा नहीं
ख़ुलता है, उधर से बन्द रहता है -
यदि ख़ुलता भी है, तो दो-चार मिनट के लिए, संवादों के आदान-प्रदान के लिए - ताकि लोगों को
सन्देह न हो, हालाँकि असलियत की
जानकारी भीतर-भीतर सबको है। पर रात को जब ’निजी कार्यालय’ ख़ुलता है, तब निश्चय ही यह बीच का दरवाज़ा भी ख़ुलता है और पूरी
रात ख़ुला रहता है - कभी-कभी तो, जैसा कि बता चुका हूँ, उठगाया भी नहीं जाता और उनकी सारी लीला मुझे कलेजे पर
पत्थर रख कर देखनी पड़ती है। कितनी बड़ी परीक्षा देनी पड़ती है मुझे अपने धैर्य की -
सहनशक्ति की!
आँ? इस कमरे में अचानक इतना उजाला कैसे आ गया? ओह, किवाड़ ख़ुल गये हवा के दबाव से। बगल के कमरे में फैल रहा है
दूधिया प्रकाश। लगता है, थक कर चूर हो गये थे दोनों - बत्ती बुझाने की भी सामर्थ्य
नहीं रही थी उनमें। सामने ही पड़े हैं पलंग पर - नंग-धड़ंग। ठाकुर साहब की एक हथेली
अब भी पड़ी है इरा के बायें वक्ष पर - और उनकी दायीं जाँघ दबी है इरा की दोनों
जाँघों के बीच। कहाँ इरा की कोमल कंचन-काया और कहाँ ठाकुर साहब का काला-खुरदुरा
भारी-भरकम शरीर। कैसी बेमेल लगती है यह जोड़ी! पर यह वासना क्यों जाग रही है मेरे
मन में? क्यों इच्छा हो रही है कि
उसी पलंग पर जा कर लेट जाऊँ इरा की दूसरी तरफ़ और उसका मुँह कर लूँ अपनी ओर? ईर्ष्या, भूख, दोनों ही। पर अंजाम? मारा जाऊँगा। ... न, मैं अपनी आँखें फेर लूँ। कितना निर्लज्ज हो जाता है
मनुष्य भी! पर अभी यदि रानी जाग जाए, तो? क्या सोचेगी यह दृश्य देख कर? ... उफ़्! भयानक! किवाड़ उठगा ही दूँ। मैं
बाप हूँ, मेरी कुछ ज़िम्मेदारी है।
किवाड़ उठगा दिये मैंने। अँधेरा फिर से व्याप गया इस कमरे में।
पर अब रानी सुरक्षित है, राजू सुरक्षित है, मैं भी थोड़ा हल्का हूँ।
सवेरा होने ही वाला है अब। अज़ान सुनाई पड़ रही है। थोड़ी देर
बाद ही चिड़ियाँ चीखने लगेंगी। फिर पूर्वी क्षितिज का मुँह पीड़ा से लाल हो उठेगा और
सूरज जन्म लेगा। इरा भी चुपचाप उठ कर इस कमरे में आ जाएगी, लेट जाएगी रानी की बगल में। फिर, बीच का दरचाज़ा बन्द होगा और तब बाहर ताला लगने की
आवाज़ सुनाई पड़ेगी।
पर मैं? मैं क्या करूँ? चुपचाप उठ कर चला जाऊँ अभी ही? इरा अपनी राह छोड़ेगी नहीं और मैं उसकी राह पर चल नहीं
पाऊँगा। पता नहीं, कौन-सी ठोकर प्राणान्तक बन
जाए। हाँ, मैं उठूँ। और कोई उपाय
नहीं है।
लेकिन रानी? राजू? उनका क्या हाल होगा? माँ से उनका नाता ही क्या है? मैं ही उनकी माँ भी हूँ और बाप भी। इरा की माँ बनने
की कामना ज़रूर थी, पर वह बन न सकी - वेश्या ही रही।
फिर? ... फिर क्या करूँ मैं? मैं पति नहीं तो बाप तो हूँ। न सही मालूम कि वे मेरे
बच्चे हैं या ठाकुर के, पर दुनिया तो मुझे ही उनका बाप कहेगी - वे स्वयं भी मुझे ही
तो बाप मानते हैं!
ठीक है, आज रथ-यात्रा का मेला है। मैं उन्हें मेला दिखाने ले जाऊँगा
और फिर ... फिर क्या? रथ चल पड़ेगा, यात्रा शुरू हो जाएगी।
क्या? इरा का क्या होगा? जब तक वह वेश्या बनी रहना चाहेगी, यहाँ रहेगी; और जब माँ बनना चाहेगी, चली आएगी मेरे पास। ये बच्चे मेरे हैं और इसलिए इनकी
माँ भी केवल मेरी पत्नी होगी।
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