शाम को दफ़्तर से लौटते वक़्त मन प्रसन्नता से भरा था। तीन साल बाद नानीजी से लम्बी बातचीत का अवसर मिलने वाला था। इस बीच कई बार चन्दू के पत्रों से ऐसा लगा था कि अब नानीजी से मुलाक़ात नहीं हो पाएगी। एक बार तो उसने यहाँ तक लिख दिया था कि ’’दादी अब एक-दो दिन की मेहमान हैं,’’ और मेरा तथा श्रीमतीजी का मन अफ़सोस से भर उठा था। हमारी इतनी सेवा करनेवाली नानीजी हमें छोड़ जाएँगी - इस बात का हमें उतना अफ़सोस नहीं था, जितना इस बात का था कि उनकी एक साध अधूरी ही रह जाएगी - दिल्ली देखने की साध।
कलकत्ता वे पहले देख चुकी थीं और बम्बई की यात्रा उन्हें छः वर्ष पहले हप्पू के जन्म के समय करनी पड़ी थी। पर कलकत्ता-बम्बई का उतना महत्व नहीं था उनके सामने, जितना दिल्ली का था। चन्दू से उन्होंने कई बार लिखवाया भी था ’’दिल्ली देखने की दादी की बड़ी इच्छा है।’’ पर हम डरते थे उनके छुई-मुई स्वास्थ्य से, और ’’जल्दी ही व्यवस्था करूँगा’’ लिख कर मैं बात टाल देता था। पर दिल्ली देखना नानीजी के भाग्य में बदा था। वे न केवल मृत्यु के मुख से निकल आयीं, बल्कि चन्दू के शब्दों में ’पूर्णतः नीरोग’ भी हो गयीं। यह जान कर कि लगभग छः महीने से वे बीमार नहीं पड़ी हैं, हमने जल्दी-से-जल्दी उनकी साध पूरी कर देने का निश्चय किया। तदनुसार ही, पिछले सप्ताह जब सिन्हा साहब अपनी गर्भवती पत्नी की देखभाल के लिए अपनी सासजी को लाने उधर जाने लगे, तब मैंने उनसे नानीजी को भी साथ लेते आने का अनुरोध किया। और, आज सवेरे नौ बजे नानीजी दिल्ली पहुँच गयी थीं। पर साढ़े नौ का दफ़्तर, केवल कुशल-क्षेम पूछ कर ही मुझे जल्दी-जल्दी दफ़्तर के लिए कूच करना पड़ा था।
रोज की तरह, हॉर्न सुनते ही बब्बू-हप्पू नीचे भागे आये और अभी मैं कार के पूरे शीशे भी नहीं बन्द कर पाया था कि बब्बूजी दरवाज़ा ख़ोल कर खड़े हो गये - ’’गियर में मैं डालूँगा।’’ नौ साल के बब्बूजी चाहते तो यह हैं कि कभी-कभी उन्हें भी गाड़ी चलाने का मौक़ा दिया जाए; उनका ख़याल है, गाड़ी चलाने में कुछ नही रखा है, देख-देख कर ही वे गाड़ी चलाना सीख गये हैं; पर मैं ठहरा पिछली पीढ़ी का आदमी, उतना साहस नहीं पाता अपने में - उनकी टाँगों के छोटेपन का सहारा लेकर बात टाल देता हूँ। पर बन्द गाड़ी को गियर में डालने से उन्हें नहीं रोका जा सकता - इसमें कोई ख़तरा भी नहीं दीखता मुझे। सो, मैं बाहर निकल आया और बब्बूजी मेरी सीट पर जा बैठे। हप्पूजी अब तक निकर की जेबों में दोनों हाथ डाले गोल-गोल चमकीली आँखों से चुपचाप अपने ’दादा’ की बढ़ाचढ़ी देख रहे थे - शायद ईर्ष्या और विवशता का भी कुछ भाव था उन आँखों में। पर जैसे ही मैं बाहर आया, उन्हें मानो कोई बिसरी बात याद आ गयी। उत्साह से भर कर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया, कहा - ’’जानते हैं, डैडी, नानी आ गयीं!’’
सवेरे जब नानीजी आयी थीं, बीनू-बब्बू-हप्पू तीनों स्कूल गये हुए थे। इसीलिए हप्पूजी ने यह ’सर्वथा नवीन’ समाचार सुना कर मुझे चमत्कृत कर देना चाहा था। मैंने भी उन्हें निराश नहीं किया, एकदम अनजान बनते हुए पूछा - ’’अच्छा? आ गयीं? कब आयीं?’’
हप्पूजी को मज़ा आ गया। हाथ नचाते हुए बोले - ’’आप तो स्कूल ... नहीं, दफ़्तर गये थे।’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले - ’’लेकिन डैडी, वे ऐसे क्यों चलती हैं?’’ उनकी आँखें मेरे चेहरे पर गड़ गयीं।
’’ऐं? कैसे चलती हैं वे?’’
’’ऐसे ... नील डाउन होकर, धीरे-धीरे, ठुमुक-ठुमुक!’’ - हप्पूजी ने नानीजी की चाल का नमूना पेश किया।
’’बूढ़ी हो गयीं न, बेटे, इसीलिए।’’
’’लेकिन सोने पर तो उनकी टाँगें ऊपर नहीं होतीं?’’ उनके हिसाब से नब्बे अंश का कोण बना कर चलनेवाली को सोने पर भी नब्बे अंश का ही कोण बनाना चाहिए था।’’
’’तू बुद्धू है, बुद्धू!’’ - इस बार जवाब दिया बब्बूजी ने, जो अब तक गाड़ी में चाभी लगा कर और डिकी से कवर निकाल कर हमारे पास आ खड़े हुए थे।
ऐसी बातों का जवाब देना हप्पूजी अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। उन्होंने सिर्फ़ एक शिक़ायत-भरी निगाह बब्बूजी पर डाली, फिर मेरे हाथ का अख़बार और पुस्तक लेकर वे थोड़ा पीछे हट गये। बब्बूजी की मदद से मैंने गाड़ी पर कवर डाला, ताला बन्द किया और तब तीनों जने ऊपर अपने फ़्लैट में पहुँचे।
वहाँ चाय बिल्कुल तैयार थी। बस, हमारी ही प्रतीक्षा हो रही थी।
चाय पीते-पीते ही, बातचीत के क्रम में, मैंने नानीजी से पूछा - ’’अब तो तुम्हारी इच्छा पूरी हो गयी न, नानी?’’
’’भगवान् चाहे, तो क्या न हो! दिल्ली भी देख ही ली।’’ - नानीजी ने बड़े धीमे-धीमे गम्भीर स्वर में कहा।
’’अब कम्पोटराइन ज़्यादा शेख़ी नहीं बघारेंगी आपके सामने! है कि नहीं, नानी?’’ - श्रीमतीजी ने मुस्कराते हुए चुटकी ली।
’कम्पोटराइन’ शब्द ने ही जैसे जोश का एक उबाल ला दिया नानीजी में, कहने लगीं - ’’सच, बड़ा तंग कर रखा था उसने भी ... जब देखो तब, दिल्ली में ऐसा है, दिल्ली में वैसा है; दिल्ली में यह होता है, दिल्ली में वह होता है। अरे, सबको मालूम तो है कि दिल्ली रह आयी हो। तब क्या ज़रूरत बार-बार जताने की। तरकारी ख़रीदने बाजार जाएगी, तो कुंजड़े से कहने लगेगी - दिल्ली में इसका भाव ऐसे है, वहाँ तो इसे कोई पूछता तक नहीं! ... हुँह, अच्छा थोड़े ही लगता है यह सब!’’
कम्पोटराइन को न-जाने क्या दुश्मनी है नानीजी से - इन्हें रुला-रुला मारती हैं। कहने को तो वे नानीजी के गोतिया में (कुल की) हैं, यानी मेरे नानाजी के परदादा और कम्पोटर (कम्पाउण्डर) साहब के दादा अपने भाई थे; गाँव में दोनों के मकान भी बगल-बगल हैं, क्योंकि एक ही मकान के दो हिस्से किये गये थे; फिर भी वे हमेशा कोई-न-कोई बात लेकर लड़ती रहती हैं नानीजी से, अनाप-शनाप प्रसंग लेकर नीचा दिखाती रहती हैं इन्हें। एक बार तो वे इतना लड़ी थीं कि नानीजी को कहना पड़ा था - ’’मरोगी, तो तुम्हें कीड़े पड़ेंगे और मैं उन्हें चुनूँगी!’’ जब यह प्रसंग नानीजी ने मेरी श्रीमतीजी को सुनाया था, तब श्रीमतीजी ने विनोदपूर्वक पूछ दिया था - ’’हाँ नानी, उनके कीड़े कैसे चुनेंगी आप? घिन नहीं लगेगी आपको?’’ और, नानीजी ने सकपका कर जवाब दिया था - ’’अरी, घिन लगेगी, तो लगे। बेचारी को ऐसे ही कैसे जलने दूँगी!’’ सचमुच, नानीजी की इस उदारता ने ही कम्पोटराइन को सिर चढ़ा रखा है। झगड़ने के दस मिनट बाद ही अगर कम्पोटराइन को कोई गरज़ आ पड़ेगी, तो वे निस्संकोच नानीजी के पास आकर बात करने लगेंगी; जैसे - ’’अरी, सुनती हो परकास (मामाजी) की माँ, रामफल (कम्पोटराइन का छोटा लड़का) ज़िद किये बैठा है कि भौजी के यहाँ से दही ला दो, तभी खाऊँगा! अब दो थोड़ा दही, नहीं तो तुम्हारा देवर भूखा रह जाएगा!’’ और, नानीजी सारी लड़ाई भूल कर मामीजी को पुकारेंगी, कम्पोटराइन को थोड़ा दही देने के लिए कहेंगी। इन दोनों बुढ़ियों की लड़ाई और दोस्ती गाँव-भर में विख्यात है - बड़े चटकारे ले-लेकर लोग इनकी लड़ाई और दोस्ती की कहानियाँ सुनाते हैं!
नानीजी और कम्पोटराइन का साथ लगभग छप्पन वर्ष पुराना है। नानीजी के विवाह के लगभग चार वर्ष बाद कम्पोटराइन का विवाह हुआ था। उस समय कम्पोटराइन की वय चौदह की थी और नानीजी की बाइस की, यानी कम्पोटराइन नानीजी से आठ वर्ष छोटी हैं; फिर भी दर्जे में वे बड़ी हैं - कम्पोटर साहब उम्र में पाँच-छः साल कम होते हुए भी नानाजी के चाचा लगते थे और इस कारण चौदह-वर्षीया कम्पोटराइन ब्याह कर आते ही बाईस-वर्षीया नानीजी की सास बन गयी थीं। आज नानीजी अठत्तर पार कर रही हैं और कम्पोटराइन सत्तर में पहुँच गयी हैं। दोनों ही के बाल लगभग सन बन गये हैं, चेहरे के साथ-साथ पूरा शरीर झुर्रियों से भर गया है और उनके आगे तीन-तीन पीढ़ियाँ हँस-खेल रही हैं। उनके अपने ज़माने के बहुत कम लोग बच रहे हैं अब। तब से अब तक ज़माने में उलट-फेर भी कम नहीं हुए हैं; पर उनके बीच जो प्रतिद्वन्द्विता छप्पन साल पहले आरम्भ हुई थी, वह आज भी ज्यों-की-त्यों क़ायम है, बल्कि समय बीतने के साथ-साथ उसमें वृद्धि ही हुई है। जहाँ कहीं नानीजी को अवसर मिलता है, वे यह जताने से नहीं चूकतीं कि उनके नाती-पोते पढ़-लिख कर अफ़सर-वकील-प्रोफ़ेसर बन गये हैं (कम्पोटराइन के ख़ानदान में कोई अब तक मैट्रिक की सीमा भी नहीं लाँघ सका है) और जहाँ कम्पोटराइन को मौक़ा मिलता, वे यह जताने से बाज नहीं आतीं कि यदि प्रभावशाली कम्पोटर साहब बीच में न पड़ते, तो नानीजी की किसी बेटी की शादी ही न हो पाती। जहाँ कहीं गाँव की औरतों का मजमा इकट्ठा होता, नानीजी बम्बई का बयान शुरू कर देतीं (कलकत्ता कम्पोटराइन भी देख चुकी थीं) और कम्पोटराइन दिल्ली का बख़ान करने लगतीं। नानीजी बम्बई में समुद्र पर हवाई जहाज उतरने-जैसी करामात का ज़िक्र करतीं और कम्पोटराइन दिल्ली में पचास तल्ले के आसमान छूनेवाले मकानों से हवाई जहाजों के टकराने का सजीव चित्रण करतीं। और अन्त में गोष्ठी समाप्त होती ’’तुम डायन हो’’, ’’तुम पेड़ उड़ा ले जाती हो’’, ’’तुमने मेरे बच्चे को खा लिया’’, ’’तुम्हें कीड़े पड़ेंगे’’, आदि के शान्ति-पाठ के साथ।
नानीजी की दिल्ली देखने की प्रबल इच्छा का यही रहस्य था। वे चाहती थीं कि कम्पोटराइन का यह प्रिय विषय उनसे छिन जाए। दूसरी ओर, उन्हें इस बात का पूरा विश्वास था कि कम्पोटराइन के नालायक-फटेहाल बेटे-पोते उन्हें बम्बई कभी नहीं घुमा
सकेंगे और फलस्वरूप समुद्र पर हवाई जहाज उतरने के वृत्तान्त का कभी खण्डन नहीं हो
सकेगा।
पिछली बार जब नानीजी मेरे यहाँ आयी थीं, तब उनमें काफी कुछ दम-ख़म था। पूरी बम्बई की उन्होंने
बिना थके परिक्रमा की थी - मील-दो मील एक साँस में चल लेना उनके लिए साधारण बात
थी। तभी तो, वे रोज़ शाम होते ही
मील-भर दूर बाज़ार से साग-भाजी लाने के लिए उतावली हो उठती थीं। तीन वर्ष पूर्व जब
हम उनके घर गये थे, तब भी उनमें थोड़ी जान थी, श्रीमतीजी को वे स्वयं अपने टोले में नित्य घुमाने ले
जाती थीं। पर इस बार तो जैसे उनमें प्राणवायु के अतिरिक्त कुछ शेष ही न था। उनमें
इतनी शक्ति भी न बची थी कि एक तल्ले की सीढ़ियाँ उतर-चढ़ सकतीं। बड़ी मुश्क़िल से, रुक-रुक कर, वे नीचे उतरती थीं और दरवाज़े पर खड़ी कार तक पहुँचती
थीं। आँखें भी उनकी क़रीब-क़रीब जवाब दे गयी थीं - पाँच-छः फ़ुट से दूर की हर वस्तु
उन्हें धुएँ में लिपटी नजर आती थी। इसी का नतीजा था कि हप्पू उन्हें कभी बब्बू
दिखाई देता था और श्रीमतीजी कभी बीनू। एक बार तो वे सड़क पर ज़रा-सा ऊपर उठे कंक्रीट
से ठोकर खाकर मुँह के बल गिर पड़ीं और अभी उस दर्द की मालिश चलते कुछ ही दिन बीते
थे कि पुनः बाथरूम की चौखट से भिड़ कर उन्होंने पूरे डेढ़ महीने मालिश कराने और
कराहने की व्यवस्था कर ली। इसके बाद उनके एक कदम भी अकेली चलने की हमने मनाही कर
दी - बिना बॉडी-गार्ड के विचरने-योग्य वे एकदम नहीं थीं।
पर यह शारीरिक दुर्बलता दिल्ली का कोना-कोना छान डालने की उनकी तीव्र उत्कंठा
पर कोई प्रभाव न डाल सकी थी। दिल्ली पहुँचते ही उन्होंने ’’सब-कुछ’’ देख डालने की अपनी इच्छा व्यक्त की और सुविधानुसार
धीरे-धीरे हमने उन्हें क़ुतुबमीनार, लाल क़िला, बिड़ला-मन्दिर, राष्ट्रपति-भवन, दोनों सचिवालय, संसद्-भवन, राजघाट, शान्ति-वन, नेहरू-संग्रहालय, इण्डिया गेट, चाँदनी चौक, कनॉट प्लेस, बुद्धजयन्ती पार्क, आदि दिल्ली के जितने भी दर्शनीय स्थान थे, दिखा दिये। पर उन्हें कुछ और चीज़ों की तलाश थी। कई
भवनों के नीचे खड़ी होकर उन्होंने पूछा - ’’क्यों बेटे, यही वह पचास तल्लोंवाला मकान है, जिससे हवाई जहाज़ टकराते हैं?’’ और, मैंने जब उनसे कहा कि दिल्ली तो क्या, देश-भर में पचास तल्लों का कोई मकान नहीं है, तो उन्हें जैसे विश्वास न हुआ, बोलीं - ’’लेकिन कम्पोटराइन तो कहती थी। ज़रूर ’सदरा’ (दिल्ली शाहदरा) में होगा। वह वहीं रहती थी। सदरा बड़ा है न
दिल्ली से? एक दिन ले चलना वहाँ!’’ और, जब मैंने उन्हें बताया कि शाहदरा तो गाँव है दिल्ली
के मुक़ाबले, तब उन्हें सहसा विश्वास न
हुआ। उन्होंने एक-दो पड़ोसिनों से भी इस बारे में पूछताछ की और जब उनसे भी यही जवाब
मिला, तब उनके मुँह से बेसाख़्ता
निकल पड़ा - ’’हे भगवान्, कितनी लीला है उस कुत्ती के पेट में। नरक में भी उसे
जगह मिलेगी?’’
फिर एक और दिन नानीजी कहने लगीं - ’’तुमने तो न-जाने यह सब क्या-क्या ’अरकचबथुआ’ दिखा दिया मुझे। न वह कुआँ दिखाया, जिसके पानी से इत्तर की ख़ुश्बू आती है और जिसकी एक
बूँद चाट लेने से पुराना-से-पुराना दमा ख़त्म हो जाता है; न ही उस मन्दिर में ले गये, जिसके साधु बाबा चेहरा देखते ही पिछले जन्म से अगला
जन्म तक बता देते हैं; वह सिंहासन भी तुमने नहीं
दिखाया, जिस पर बैठ कर पहली बार
बर्माजी (ब्रह्माजी) ने आदमी बनाया था। यह सब किल्ला, चबूतरा, खम्भा देख कर क्या होगा?’’
मैंने उन्हें समझाया कि यहाँ न तो कोई वैसा कुआँ है, न कोई त्रिकालदर्शी महात्मा किसी मन्दिर को पवित्र कर
रहे हैं और न ही ब्रह्माजी का कोई सिंहासन यहाँ स्वर्ग से टपका है। पचास तल्ले के
मकान की तरह वे सब चीज़ें भी कम्पोटराइन के दिमाग़ में ही हैं। तुम गाँव जाकर
कम्पोटराइन के झूठ का भण्डाफोड़ कर देना।
नानीजी थोड़ा सोच में पड़ गयीं, फिर बोलीं - ’’लेकिन वह तो यही कहेगी कि मैंने वे सब चीज़ें देखीं ही
नहीं, यों ही इधर-उधर घूम कर
चली आयी। बहस में उससे कोई जीत सकता है! अब देखो न, तुम कहते हो कि बस के कंडट्टर (कंडक्टर) को सौ-डेढ़ सौ
ही मिलते हैं और वह कहती है कि चरण बाबू (कम्पोटराइन के बड़े पुत्र) दिल्ली में
पाँच सौ पाते थे, जब रिटायर हुए। और, जब हमने पूछा कि परडन-फंट (प्राविडेंट फ़ंड) के रुपये
से मकान की मरम्मत क्यों नहीं करा ली, तब बोली - ’जब नौकरी करता था, तब भी रुपया अपनी रंडी (रखैल) को दे देता था और जब
नौकरी छूटी, तब भी उसी को देकर ख़ाली
हाथ लौट आया।’ अब बताओ, क्या कहे आदमी? इसीलिए कोई उपाय तो सोचना पड़ेगा।’’
मैं चिन्ता में पड़ गया, थोड़ी देर बाद बोला - ’’तब तुमने कुछ सोचा है उपाय?’’
’’हाँ, एक उपाय आता है मेरी समझ में।’’ - नानीजी बड़ी गम्भीरता से बोलीं - ’’मैं कहूँगी की वह ऊँचा मकान तो मैंने देखा, पर पचास तल्ले का नाम ऐसे ही परसिद्ध है, उसमें कुल पैंतालिस ही तल्ले हैं। इसी तरह, वह कुआँ भी मैंने देखा, पर उसके पानी से दमा नहीं, थाइसिस ठीक होता है। वह साधु बाबा भी सिर्फ़ सामने
आनेवालों के ही बारे में नहीं बताते हैं, और भी बहुत-सी बातें बताते हैं - मुझे देखते ही कहने
लगे कि तुम्हारी एक सास कम्पोटराइन मेरे पास कुछ साल पहले आयी थी; वह पहले जन्म में सूअर थी और अगले जन्म में मेहतरनी
बनेगी। ... ’’
अब मुझसे न रहा गया, ठठा कर हँस पड़ा। नानीजी लजा गयीं, उनकी गम्भीरता सलज्ज मुस्कान में बदल गयी। एकदम चोरी
करते पकड़ गये बच्चे की-सी दशा हो गयी उनकी।
जब हँसी कुछ थमी, तब मैंने पूछा - ’’और बर्माजी के सिंहासन के बारे में क्या कहोगी, नानी?’’
’’तू तो हँसता है। सच, खेल नहीं कर रही मैं। उस डायन से ऐसे निपटे बिना ग़ुज़ारा
नहीं है।’’ - नानीजी ने गम्भीर बनते
हुए शिक़ायत की।
’’अरी नानी, मैं तुम पर थोड़े ही हँस रहा हूँ। मैं तो इस बात पर
हँसा कि जब कम्पोटराइन अपने पिछले-अगले जन्म के बारे में सुनेंगी, तब कितनी भद होगी उनकी सब औरतों में!’’ - मैंने समझाने की कोशिश की।
नानीजी ख़ुश हो गयीं - ’’वह तो होगी ही।’’ फिर तनिक रुक कर बोलीं - ’’बर्माजी के सिंहासन का क्या है? कह दूँगी, आजकल उसी सिंहासन पर तो बैठते हैं साधु बाबा! और क्या? क्यों, ठीक रहेगा न?’’
’’अरे, बिल्कुल!’’ नानीजी की बुद्धि की दाद दिये बिना मैं न रह सका, उनसे लिपट गया, पर अगले ही क्षण वे चिल्लाने लगीं - ’’अरे, छोड़-छोड़। हड्डी टूट गयी मेरी!’’
किसी महात्मा ने कहा है कि मनुष्य के हृदय के सबसे निकट उसका दुश्मन होता है, उसे वह किसी भी क्षण अपने से अलग नहीं करता। नानीजी
ने इस उक्ति को शत-प्रतिशत सिद्ध कर दिया। वे अपना भरा-पूरा घर छोड़ कर आयी थीं, जहाँ पुत्रवधु, पोते, उनकी बहुएँ-बच्चे, सब थे, पर दिन-भर में नानीजी जितनी बार कम्पोटराइन की चर्चा करतीं, उतनी बार अपने घरवालों की नहीं। चाहे सब्ज़ी काटने का
प्रसंग हो चाहे शादी-ब्याह का, उन्हें उससे सम्बद्ध कम्पोटराइन की कोई-न-कोई कहानी याद आ ही
जाती और वे उसे बड़ी तन्मय होकर सुनाने लगतीं। इन सब कहानियों का निष्कर्ष यही
निकलता कि कम्पोटराइन को न तो किसी काम का ढंग आता है, न वे अच्छा व्यवहार जानती हैं और न ही कोई उन्हें
पसन्द करता है - उनके घरवाले भी उन्हें काँटा ही समझते हैं। वे बड़े गर्व के साथ बतातीं
कि कम्पोटराइन की पुत्रवधुएँ और पोतों की बहुएँ जब कभी एकान्त पाती हैं, इनसे कम्पोटराइन की शिक़ायत शुरू कर देती हैं और ये इस
डर से कि जान लेने पर कम्पोटराइन इनसे लड़ने लग जाएँगी, उनसे जल्दी-जल्दी अपनी जान छुड़ाती हैं - हाँ, जो-कुछ वे माँगती हैं, ये ज़रूर दे देती हैं, उन बेचारियों के भाग्य पर इन्हें तरस आता है।
एक दिन श्रीमतीजी ने नानीजी से पूछ दिया - ’’हाँ नानी, आप उनसे एक बार जम कर लड़ क्यों नहीं लेतीं, ताकि वे आगे उलझने की हिम्मत न करें।’’
’’उँह, उसको कुछ शरम है! अभी लड़ेगी, सबको सरापेगी - ’तेरा बेटा मर जाए, पोता मर जाए, नाती मर जाए’ कहेगी और फिर घण्टा-भर बाद आकर मिमिआएगी - ’ए परकाश की माँ, परसों गंगा-दशहरा है - चलोगी न नहाने?’ मैं पहले तो जवाब नहीं दूँगी, पर जब वह तंग करेगी, तब कहूँगी - ’जाऊँ चाहे न जाऊँ, तुम्हें क्यों फिकिर पड़ी है?’ वह बोलेगी - ’अरे, ऐसे क्यों बोलती हो? अगर तुम जाओ, तो साथ ही चली चलूँ!’ मैं कहूँगी - ’अरे बाप, मैं जाऊँगी तुम्हारे साथ? कहीं वहीं नदी में मुझे परवह कर दिया, तो? न, अब नहीं आऊँगी तुम्हारे चक्कर में।’ पर वह इसकी कोई परवाह नहीं करेगी, बोलेगी - ’बैलगाड़ी पर जाओगी न? वही भोर पाँच बजे चलोगी, और क्या? मुझे भी पुकार लेना।’ और बस, लड़ाई खतम!’’
’’तो आप सचमुच पुकारती हैं
उन्हें? साथ ले जाती हैं?’’ - श्रीमतीजी ने प्रश्न किया।
’’अरे, तब क्या करूँ? दया आ जाती है। न ले जाऊँ, तो हरामज़ादी को ले कौन जाएगा? पैदल चलेगी आठ कोस, तो राह में ही दाँत बिदोर देगी।’’ - बोलते-बोलते नानीजी किसी गम्भीर
चिन्ता में खो गयीं।
नानीजी को कम्पोटराइन के हितों की सचमुच बड़ी चिन्ता थी। जब भी मैं उनके घर
पत्र लिखने लगता, तब वे यह ज़रूर कहतीं कि
कम्पोटराइन के घर का हाल पूछ लेना। पर चन्दू को न जाने कितनी चिढ़ थी कम्पोटराइन से
- वह उनके बारे में कोई सूचना ही नहीं देता। फलतः चन्दू का पत्र सुन कर नानीजी
उदास हो जातीं। एक दिन बोलीं - ’’कम्पोटराइन का कोई हाल-समाचार नहीं मिला। पता नहीं, कैसी है; मरती है कि जीती है!’’
मैंने जवाब दिया - ’’मज़े में ही होंगी, नानी। अगर वे मर गयी होतीं, तो चन्दू ख़बर ज़रूर देता।’’
नानीजी गम्भीर हो गयीं - ’’उँह, ऐसा काहे कहता है रे। मरें बेचारी के दुश्मन!’’
’’फिर तो आपका ही नम्बर
आएगा, नानी!’’ - मैंने कहा।
नानीजी से इसका कोई उत्तर न बन पड़ा। कुछ देर वे चुपचाप बैठी रहीं, फिर बोलीं - ’’इस बार चन्दू को लिखना कि कम्पोटराइन के घर का
हाल-समाचार दो - तुम्हारी दादी ने पूछा है। और हाँ रे, यह भी लिख देना कि मैंने यहाँ क्या-क्या देखा -
पुराने बादशाह का महल, आजकल के राजा का महल
(राष्ट्रपति भवन), गाँधी बाबा और जवाहिरलाल
के समधीवाली कबरें (समाधियाँ), कुत्ता का खम्भा (क़ुतुबमीनार) और क्या नाम है उसका, हाँ, बिरुआ का मन्दिर (बिड़ला मन्दिर), सब लिख देना। मेरे लौटने में तो देर है अभी - पता
नहीं, याद रहे कि न रहे। चन्दू
बता देगा ’सब’ को।’’
लेकिन उन्हें आगे कुछ कहने नहीं दिया बब्बू-हप्पू ने। वे उनसे सब नामों के सही
उच्चारण कराने लगे। वे हर बार ग़लती करतीं और इन्हें हँसने का मसाला मिल जाता।
राष्ट्रपति-भवन को उन्होंने, कई बार समझाये जाने पर भी, ’रासपति-भवन’ से भिन्न कुछ नहीं कहा। गाँधीजी और नेहरूजी की
समाधियों को कब्र क्यों न कहा जाए, यह भी उनकी समझ में न आया। उनका दावा था कि उन्होंने
सैंकड़ों कब्रें देखी थीं और ये समाधियाँ भी उनसे भिन्न नहीं थीं। उनका कहना था कि
गाँधीजी और नेहरूजी के समधी मुसलमान थे और ये उन्हीं की कब्रें थीं - हमें ही ठीक
जानकारी नहीं थी उनके बारे में। इसी तरह, ’क़ुतुबमीनार’ का भी अर्थ उन्होंने किसी ’कुत्तू की मीनार’ से अलग नहीं लगाया। हाँ, बिड़ला मन्दिर उनकी समझ में अवश्य आ गया, क्योंकि दान-धर्म करनेवाले बिड़लाजी का नाम उन्होंने
कई बार सुन रखा था; पर यह बात भी उनके गले से
नीचे नहीं उतरी कि बिड़लाजी ’ख्रिस्तान’ (ईसाई) नहीं, मारवाड़ी थे और इसलिए उनकी यह समस्या भी समस्या ही रही कि
कोई ख्रिस्तान हिन्दुओं के लिए इतना-कुछ क्यों करता था। कम्पोटराइन ने उन्हें एक
बार बताया था कि बिड़ला साहेब ख्रिस्तान हैं और उनके इस कथन का विश्वास नानीजी को
बिड़ला-मन्दिर में अंग्रेजों को प्रवेश करते देख कर हो गया था, नहीं तो हिन्दू मन्दिर में भला किसी विलायती आदमी को
घुसने दिया जा सकता था!
और, जिस दिन चन्दू के पत्र
में यह लिख कर आया कि कम्पोटराइन के पोते की बहू के लड़का हुआ है और उनके घर में
किसी के भी न होने के कारण मेरी मौसीजी को सारी व्यवस्था करनी पड़ी, उस दिन नानीजी को बड़ा क्रोध आया, तुरन्त बोलीं - ’’वह ’नौटंकी’ (कम्पोटराइन) कहाँ गयी हुई है?’’
’’अपनी मझली बेटी के यहाँ!’’ - मैंने पत्र देख कर कहा।
’’हाँ, उसको काहे को रहेगी घर-पतोहू की फिकिर। घूमती फिर रही
है छम्मकछल्लो बन कर! भला कहो तो, अगर मेरी बेटी न आयी होती तो क्या हाल होता बेचारी का। ऐसे कहीं
घर चलता है! इतनी लापरवाही! मेरी बेटी निगोड़ी भी तभी आ पहुँचती है मायके, जब कम्पोटराइन को नौकरानी की जरूरत होती है। भगवान्
सहाय है कुतिया का, और क्या! रुपया-पैसा भी
सब मेरी बेटी को ही ख़र्च करना पड़ा होगा। दरिदरिन (दरिद्रा) करमसाँड़ है। लेकिन घर
की दूसरी औरतें भी कहाँ चली गयी थीं?’’
’’गयी होंगी मायके-ससुराल!
और क्या?’’
’’हाय-हाय, बेचारी लखन बहू! पहिलौंडी छोरी बेचारी। उसको तो मार
ही दिया था सबने! लेकिन ख़ैर, भगवान् सबको देखता है। आ गयी मेरी बेटी, अच्छा हुआ। जाऊँगी, तब पूछूँगी हरामज़ादी से - ऐसे ही गिरथाइन (गृहस्थिन)
बन कर घर चलाती है? डूब मर ढकनी-भर पानी में
- न हो घर में पानी भी, तो दे दूँ अपने यहाँ से!’’ - नानीजी थोड़ा रुकीं, फिर उन्होंने पूछा - ’’हाँ बेटा, जच्चा-बच्चा सब ख़ैरियत से तो हैं न?’’
’’हाँ, ठीक हैं दोनों!’’
’’चलो, धनबाद भगवान को। दोनों जिएँ-जागें, फलें-फूलें - एक से एक लाख हों!’’ नानीजी ने आसमान की ओर हाथ जोड़ कर ये
शब्द उचारे।
इसके बाद दो-एक क्षण वे मौन सोचती रहीं, फिर बोलीं - ’’कुतिया घूमने गयी है। तब तो चन्दू उसे कुछ बता ही
नहीं सका होगा मेरे घूमने-फिरने के बारे में!’’
’’कैसे बता सका होगा। जब
आएँगी, तब बता देगा।’’ - मैंने कहा।
’’अरे, क्या ठिकाना इस चन्दुआ का भी। या तो भूल जाएगा, या फिर कहेगा, कौन जाए कत्था छेड़ने उस लोमड़ से। वह बेहद घबराता है न
उससे। सब डरपोक ही निकले हमारे घर, नहीं तो उसकी मज़ाल थी कि हमारे आँगन में खड़ी हो कर हमारे ही
ख़ानदान को सराप जाती!’’ -
नानीजी के चेहरे पर गहरा
क्षोभ व्याप गया।
’’अरी नानी, लँगटे से तो भगवान् भी डरते हैं - तुम्हारा ही कहना
है न?’’ - मैंने कहा।
वे तुरन्त शान्त पड़ गयीं - ’’हाँ, वह तो है ही। इज़्ज़तदार अपनी इज़्ज़त बचावे कि लँगटे के आगे
अपना भी बस्तर (वस्त्र) ख़ोल कर फेंक दे। मैं तो कहती हूँ, भगवान् भी उससे पनाह माँगेगे, कहेंगे - ’चल, भाग फिर धरती पर। न तेरे लिए सुरग में जगह, न नरक में - तू सात आसमान के नीचे मिरतुभुवन
(मृत्युभवन) में ही गूह गींज!’’
इतनी निकृष्ट कम्पोटराइन! पर नानीजी को उनके बिना चैन भी न पड़ता था। वे पाँच महीने
रहीं मेरे यहाँ, पर एक दिन भी ऐसा न गया, जब दो-चार बार उन्होंने कम्पोटराइन का नाम न लिया हो।
बात करने को इतने सारे विषय थे, इतने नाते-रिश्तेदार थे, पर उनका ज़िक्र कभी-कभार ही आता, और जब आता, तब भी अन्त में उसमें कम्पोटराइन ज़रूर घुस जातीं और
हम मुस्कुरा पड़ते। नानीजी के मन-प्राण पर इस तरह छायी थीं कम्पोटराइन कि उनके बिना
एक कदम भी चलना इनके लिए मुश्क़िल था। इनका हर काम कम्पोटराइन को दिखाने के लिए
होता था। उन्होंने इस तरह इन्हें ग्रस लिया था। कभी-कभी हम कहा भी करते थे कि
शत्रुता की ऐसी अजीबोग़रीब कहानी शायद ही कहीं देखने को मिले।
जब निश्चित कार्यक्रम के अनुसार नानीजी के लौटने में कुल बीस दिन रह गये, तब एक दिन वे कहने लगीं - ’’बेटे, उस मुँहजली को तो इस बात का विश्वास ही नहीं होगा कि
तुम्हारे पास मोटर है और मैं मोटर में ही दिल्ली में घूमी-फिरी। वह मोटर का मतलब
बस ही लगाएगी। गाँव की औरतें भी बस को ही ’मोटर’ कहती हैं।’’
मैं चिन्ता में पड़ गया, ढूँढ़ने लगा समस्या का समाधान; अन्त में बोला - ’’तुम समझा देना सबको कि चार-पाँच आदमी बैठनेवाली मोटर
में तुम घूमी-फिरी थीं, पचीस आदमीवाली में नहीं। सब मानेंगी क्यों नहीं, जरूर मान जाएँगी।’’
’’अगर मान ही जातीं, तब क्या सोचना था! वह कुतिया चिल्ला-चिल्ला कर आसमान
सर पर उठा लेगी और सबको परतीत हो जाएगा कि मैं बस में ही घूमी, जिस पर चार आने दे कर सब लोग चढ़ सकते हैं।’’ झुर्रियों के बीच से झाँकती नानीजी की
छोटी-छोटी आँखें करुण भाव से ओतप्रोत थीं।
मैंने कहा - ’’फिर क्या किया जाए? उन्हें कैसे होगा विश्वास?’’
’’एक उपाय है बेटा!
तुम्हारे पास वह बक्सा है न ... ’’
’’बक्सा? कौन-सा बक्सा? बक्से तो कई हैं घर में।’’
’’अरे वह बक्सा नहीं; जिससे फ़ोटो उतरता है न, वह बक्सा। उसी से एक फ़ोटो उतार लो मेरे मोटर में
बैठने का। तब वह कितना भी चिल्लाएगी, उसकी कोई नहीं मानेगा।’’ और, नानीजी ने अपनी निरीह दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी।
’’उँह, यह कौन बड़ी बात है! अगले रविवार को ही लो!’’ - मैंने उन्हें आश्वस्त किया। वस्तुतः
नानीजी की दशा पर मुझे रहम आता था और कम्पोटराइन के साथ युद्ध में विजय दिलाने के
लिए मैं उनकी हर सहायता करने को सदा तत्पर रहता था।
पर फ़ोटो नहीं उतर सकी। इस बातचीत के तीसरे ही दिन चन्दू का पत्र आया, जिसमें सूचना थी कि कम्पोटराइन अपनी बेटी के यहाँ से
लौटने के बाद सख़्त बीमार पड़ गयी हैं - उनके बचने की उम्मीद कम है। और, नानीजी ने ज़िद ठान ली कि वे आज ही प्रस्थान करेंगी
गाँव के लिए। हमने बहुतेरा समझाया कि इतना घबराने की बात नहीं है, कम्पोटराइन ठीक हो जाएँगी; पर वे बोलीं - ’’न-न, पता नहीं, क्या हाल है बेचारी का - देखभाल भी उसकी होती है ठीक से कि
नहीं!’’
’’क्यों, घर-भर आदमी हैं। देखभाल क्यों नहीं होगी?’’ हमने कहा।
’’अरे, घर में उसे कोई पूछता है! कहा न, सब चाहते हैं कि मर जाए!’’ - नानीजी ने सफ़ाई दी।
’’तो तुम क्या करोगी जाकर? अपनी देह तो तुम सम्भाल नहीं पातीं, उनकी क्या देखभाल करोगी!’’
’’अब जितना होगा, करूँगी ही। अपने से नहीं होगा, अपनी पतोहू-बहुओं से कराऊँगी। कुछ न होगा, तो आख़िरी समय उसके पास बैठी तो रहूँगी, एक गिलास पानी तो दे दूँगी उसे - बेचारी सूखे गले तो
नहीं मरेगी न!’’ नानीजी की आँखें भर आयीं।
’’लेकिन मुझे कहाँ छुट्टी
मिलेगी? मैं छोड़ने कैसे जाऊँगा
तुम्हें?’’ - मैंने अपनी मजबूरी जतायी।
’’मैं अकेली ही चली जाऊँगी।
तुम गाड़ी में बैठा देना। वहाँ मैं उतर जाऊँगी। या फिर टेलीग्राफ़ दे देना चन्दू को, आकर उतार लेगा।’’ - नानी घिघिआयीं।
’’लेकिन नानी, चौबीस घंटे का सफ़र है। बीच में बाथरूम-आथरूम जाओगी
ही। अगर कहीं लड़खड़ा पड़ीं, तो?’’
’’उँह, इतनी क्या छुई-मुई हो गई हूँ मैं! और फिर मर जाऊँगी, तो मर जाऊँगी - छुट्टी होगी।’’
’’लेकिन नानी, गाड़ी में रिज़र्वेशन कहाँ मिलेगा आज का?’’
’’अब छोड़ रिजव-विजव। ऐसे ही
बैठ कर चली जाऊँगी। बूढ़ी देख कर कोई-न-कोई बैठने की जगह तो दे ही देगा। चल, जल्दी कर!’’
इस तरह, नानीजी एकदम तुल गयीं
जाने पर। हमने लाख समझाया कि दो-चार दिन और रुक जाओ, पर वे न मानीं, न मानीं। आख़िर, मैंने एक परिचित रेलवे-कर्मचारी की मदद से थ्री-टायर
में उनके लिए एक लोअर बर्थ रिजर्व करायी और फिर चन्दू के नाम एक्सप्रेस तार भेज कर
उन्हें गाड़ी पर बैठा दिया।
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