श्रीमतीजी का सवाल सुन कर मुझे थोड़ी परेशानी हुई। परन्तु फिर सोचा कि शायद किसी से शर्माजी के पद के बारे में चर्चा हुई होगी और इन्हें उनके पद की ठीक-ठीक याद नहीं रही होगी, इसीलिए पूछ रही हैं। सो, मैंने कहा - ’’ईश्वर को धन्यवाद! तुममें भी भुलक्कड़पन आ रहा है! वे समाचार-सम्पादक हैं, इतनी-सी बात तुम भूल गयीं?’’
लेकिन इस बात का कोई जवाब न दे कर श्रीमतीजी ने दूसरा सवाल
किया - ’’वे लेख-वेख भी लिखते हैं
न?’’
मैंने कहा - ’’आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो! कितना अच्छा
लिखते हैं वे! साहित्य में उनका अच्छा स्थान है!’’
’’और उनकी तनख़्वाह कितनी है - तुमसे कम या ज़्यादा?’’ - तीसरा सवाल हुआ।
इस तीसरे सवाल ने मुझे चौंका दिया। मैं समझ गया कि मुझ पर
ही कोई हमला होने वाला है - यह उसी की भूमिका है! पत्रकार-साहित्यकार की बीवियाँ
भी तो थोड़ा पैतरा बदल कर ही सामने आना पसन्द करती हैं! लेकिन अब करता क्या? फँस जो चुका था! आसन्न संकट के लिए अपने को तैयार
करते हुए मैंने जवाब दिया - ’’उनकी तनख़्वाह निश्चित रूप से मुझसे ज़्यादा है। तभी तो
उन्होंने मोटर भी रख छोड़ी है!’’
’’तब, सुन लो!’’ - उनके इन तीन शब्दों ने मुझे आगाह कर दिया कि मेघों का
उमड़ना-घुमड़ना समाप्त हो गया है - अब केवल बिजलियाँ चमकेंगी और उसके बाद इतनी ज़ोर
से पानी बरसेगा कि मैं डूबने-उतराने लगूँगा। वही हुआ भी। उन्होंने अपना भाषण आरम्भ
किया - ’’आज फिर वे सब्ज़ी-मंडी गये
थे। वहाँ से ढेरों सब्ज़ियाँ खरीद लाये हैं। कौड़ी के मोल! समझे? कौड़ी के मोल! तुमसे कहो, तो बोलोगे - ’वह कोई भले आदमियों के जाने की जगह है? कोई देखे या सुनेगा, तो क्या कहेगा?’ अब बोलो, तुम क्या कहोगे? शर्माजी भले आदमी नहीं हैं?’’
सच कहता हूँ, बड़ी खीझ हुई शर्माजी पर! मन में आया, जाकर पूछूँ कि दो पैसे की बचत के लिए वे क्यों मंडी
दौड़ जाते हैं; और खुद दौड़ें, तो दौड़ें, मुझ पर रोड-रॉलर क्यों दौड़वा देते हैं! लेकिन अभी यह
सब पूछने का अवसर कहाँ था - अभी तो मुझे श्रीमतीजी को अपनी बात समझानी थी! अतः
धीमे-से बोला - ’’अरे भाई, तुम बेकार सब्ज़ी-मंडी के लिए परेशान होती हो। वहाँ भी
सब्ज़ियाँ कोई फेंकी थोड़े-ही चलती हैं। मन-दो-मन खरीदो, तो दो-तीन रुपये की बचत होती है। अब तुम्हीं सोचो न, अपने यहाँ प्राणी ही कितने हैं - सब मिला कर तीन। तीन
आदमियों पर हफ़्ते-भर में कितनी सब्ज़ी लगेगी? बहुत, तो आधा मन! और, आधा मन पर दस-बारह आने से ज़्यादा की बचत क्या होगी!
फिर, यहाँ से मंडी जाने का
बस-भाड़ा करीब ढाई आने रख लो और उधर से अपने सिर पर तो लाऊँगा नहीं, कुली ही लाएगा - वह दस-बारह आने से कम नहीं लेगा। ऊपर
से दो-तीन घंटे का समय बर्बाद होगा, वह अलग! तब बतलाओ, क्या फायदा है मंडी जाने का?’’
लेकिन साहब, जिस तरह आँधी आने पर सड़कें अपने-आप साफ़ हो जाती हैं, उसी तरह श्रीमतीजी के आवेशपूर्ण शब्दों ने बात-की-बात
में मेरे सारे शब्दों को उड़ा कर एक ओर कर दिया। वे बोलीं - ’’अब मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है, श्रीमानजी! अपने पाठकों के लिए ही रख छोड़िए ये
चिकनी-चुपड़ी बातें। भला बताओ तो, आज आलू क्या भाव लाये थे?’’
’’चार आने सेर!’’ - मैंने भाव एक आना कम करके बतलाया।
’’वे लाये बारह आने के पाँच सेर!’’ - और, श्रीमतीजी ने इस तरह मेरी ओर देखा, जिस तरह अदालत में सबूत-पक्ष का वकील कठघरे में खड़े
अभियुक्त को देखता है।
’’फूलगोभी क्या भाव मिली थी?’’ - उन्होंने दूसरा सवाल पूछा।
मैंने कहा - ’’तीन आने सेर!’’ इस बार भी मैंने भाव में एक आने की
कमी की।
’’और वे कैसे लाये, मालूम है? छः आने के पाँच सेर!’’ - श्रीमतीजी बोल कर मुस्कुरायीं।
’’ऐं!’’ - मैं परेशान हो उठा - ’’असम्भव! इतना अन्तर हो ही
नहीं सकता!’’
’’फिर, लगा लो शर्त! अभी-अभी मिसेज़ शर्मा गयी हैं। उन्होंने
ही बतलाया मुझे। उनसे पुछवा देती हूँ।’’ - श्रीमतीजी की ’करो या मरो’ की इस भावना ने सचमुच
मेरी बोलती बन्द कर दी।
एक क्षण वे चुप रहीं, फिर बोलीं - ’’इसीलिए तो कहती हूँ कि
मंडी में कौड़ी के मोल सब्ज़ियाँ मिलती हैं। अब टमाटर को ही ले लो। यहाँ क्या भाव है?’’
मैंने दीन वाणी में कहा - ’’पाँच आने सेर!’’ यह भाव मैंने ठीक बतलाया।
’’वे लाये हैं बारह आने के पाँच सेर! मटर भी उन्हें इसी
भाव मिला। तुम्हें किस भाव मिला था?’’ - अब तक श्रीमतीजी के चेहरे पर विजयी का दर्प आ चुका
था।
मैं तो हारा हुआ था ही, अपनी खीझ स्थानीय
सब्ज़ीवालों पर उतारी - ’’साले गला काटते हैं। मटर भी पाँच आने सेर ही दिया!’’
’’और सबसे सस्ती तो बंदगोभी है! जानते हो, क्या भाव मिली उन्हें?’’
मैंने भोले-भाले बालक की तरह पूछा - ’’क्या भाव मिली?’’
’’चार आने के पाँच सेर!’’
मैं तो आसमान से धरती पर आ गिरा। चार आने सेर मैंने खरीदी
थी। इन नेत्र-विस्फारक उद्घाटनों के कारण अब तक मेरी भी उत्सुकता कुछ जाग चुकी थी, सो पूछा - ’’पालक-मूली भी लाये हैं
क्या वे?’’
’’हाँ!’’ - श्रीमतीजी ने उत्तर दिया - ’’पालक तीन आने का पाँच सेर
और मूली ढाई आने में पाँच सेर!’’
अब मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि सतयुग और कलियुग में केवल कुछ
मीलों का अन्तर है। मंडी में सतयुग के लोग बसते हैं और यहाँ कलियुग के। कम-से-कम
ये सब्ज़ीवाले तो कलियुग के ही हैं, नहीं तो इस तरह बेईमानी कैसे करते! ये लोग पालक तीन
आने सेर बेच रहे थे और मूली दो आने सेर! इतनी मुनाफ़ाख़ोरी! मैं दंग रह गया!
लेकिन केवल दंग रहने से काम थोड़े ही चलता। अब तो सब्ज़ी-मंडी
भी जाना ही था। सो, मैंने श्रीमतीजी का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि
अगले रविवार के प्रातःकाल मंडी जाऊँगा।
अब प्रायः नित्य ही श्रीमतीजी से इस बारे में मेरी चर्चा
होने लगी कि कौन-कौन सी सब्ज़ी कितनी-कितनी लाऊँगा। रोज़ एक-दो नयी सब्ज़ियों के नाम
लिस्ट में दर्ज होने लगे। परन्तु शनिवार के दिन अपना भार थोड़ा कम कराने में मुझे
सफलता मिल गयी। इस तर्क के आधार पर, कि अधिक सब्ज़ियाँ होने पर दो कुली करने पड़ेंगे और फिर
उन सबका घर में इस्तेमाल भी नहीं हो सकेगा, बहुत-सी सब्ज़ियों के नाम
लिस्ट से उतर गये - केवल आठ सब्ज़ियाँ बच रहीं। लेकिन साथ-ही, यह शर्त भी लगा दी गयी कि
हर रविवार को मंडी जाकर मैं सब्ज़ियाँ ले आया करूँगा। मैंने एतराज़ भी किया कि एक मन
सब्ज़ी का एक हफ़्ते में इस्तेमाल कैसे हो सकेगा, पर श्रीमतीजी ने ये कह कर
मेरा मुँह बन्द कर दिया कि इसकी ज़िम्मेदारी उन पर है - मैं देखता ही रह जाऊँगा कि
एक हफ़्ते के अन्दर वे किस तरह एक मन सब्ज़ी को पार लगा देंगी।
शनिवार की शाम को श्रीमतीजी ने मुझे इस बात से सावधान कर
दिया कि इधर सब्ज़ियों के भाव और गिरे हैं, इसलिए मंडी में भाव और भी
कम हो गये होंगे। इसके साथ ही, कल सवेरे का कार्यक्रम भी बन गया। कार्यक्रम इस
प्रकार था - और दिनों की तरह आठ बजे की बजाय मैं सात बजे ही सोकर उठ जाऊँगा। अगर
नहीं उठूँ, तो वे दूध की ठंडी बोतल मेरे चेहरे से सटा देंगी और
मुझे इसका बुरा नहीं मानना होगा। फिर, हाथ-मुँह धोकर मुझे ख़ाली
चाय पीनी पड़ेगी - नाश्ते के लिए नहीं रुकना होगा। चाय पीते समय भी मुझे अख़बार पढ़ने
को नहीं मिलेगा - उसे वे छुपा देंगी, क्योंकि अख़बार देख कर
मेरी नीयत डोल सकती है। चाय पीने के बाद एक मिनट की भी देर किये बिना मुझे कपड़े
पहनने पड़ेंगे और बच्चों के जागने से पहले ही मुझे अलख जगाने के लिए सड़क पर निकल
जाना होगा, अन्यथा मेरा बचपना मुझे कुछ समय बच्चों के साथ बिताने
के लिए मजबूर कर देगा। मतलब यह, कि साढ़े सात बजे मुझे उस बस के ऊपर होना होगा, जो सड़क के ऊपर होगी।
ऐसा ही हुआ भी। दूध की ठंडी बोतल का शीतल स्पर्श न मिले, इस भय से मैं छः बजे ही उठ गया और घड़ी की ओर
ताकते-ताकते एक घंटा गुज़ारा। सात बजे मैं बिस्तर से उठा, तो ऐसा लगा, जैसे ’मोनो’ की कास्टिंग-मशीन में फ़िट कर दिया गया होऊँ - ’’खट्-खट्-खट्-खट्, खट्-खट्-खट्-खट्’’ सारा शरीर काँप रहा था। उसी हालत में
मुँह-हाथ धोया, चाय पी और लड़खड़ाते कदमों
से सड़क पर आ खड़ा हुआ। खड़े-खड़े पन्द्रह मिनट बीत गये, पर कोई बस न आयी। कहने की आवश्यकता नहीं कि चुपचाप
खड़े रहने से, चलने-फिरने की अपेक्षा, अधिक ठंड लगती है; अतः निश्चय किया कि पैदल ही चल पड़ूँ - ठंड से भी
बचूँगा और ढाई आने पैसे भी बचेंगे।
तो, उन दिनों, जब कि शिमला में बर्फ गिरने का रिकॉर्ड टूट रहा था और उस रिकॉर्ड
के टुकड़े बुरी तरह दिल्ली में गिर रहे थे, मैंने ढाई मील का सफर ’लेफ़्ट-राइट’ करके तय किया। उसी दिन मुझे इस बात का भी भरोसा हो
गया कि यदि मैं चाहूँ, तो फ़ौज में ख़प सकता हूँ।
ख़ैर साहब, सब्ज़ी-मंडी के निकट पहुँच गया। अब मुश्क़िल से आधा मील और
चलना था। तभी रास्ते में सब्ज़ियों की कुछ दुकानें मिलीं। मैं जानता था कि इन
दुकानों में भी सब्ज़ियों के दाम वही होते हैं, जो मेरे घर के पास की दुकानों में। सोचा, ज़रा कलियुग के भाव की भी जानकारी ले ही लूँ। अतः एक
दुकान में भाव पूछे, तो ये जवाब मिले - आलू
तीन आने सेर, फूलगोभी ढाई आने सेर, टमाटर तीन आने सेर, मटर तीन आने सेर, बंदगोभी दो आने सेर, बैंगन चार आने सेर, मूली डेढ़ आने सेर और पालक दो आने सेर! यही आठ
सब्ज़ियाँ मुझे ख़रीदनी थीं। इनके इतने सस्ते भाव कलियुग की दुकानों में सुनने को
मिले, तो श्रीमतीजी की इस बात
पर पूरा विश्वास हो गया कि सब्ज़ियों के भाव गिर गये हैं और अब मंडी में एक मन
सब्ज़ी शायद एक-डेढ़ रुपये में ही मिल जाएगी।
ख़ुशी में शायद पैर भी फूल उठते हैं, जल्दी आगे बढ़ते ही नहीं। कम-से-कम मैंने ऐसा ही अनुभव
किया। मैं चाह रहा था कि जल्दी-से-जल्दी मंडी पहुँच जाऊँ और पैर, लगता था, आगे बढ़ने की बजाय पीछे जा रहे थे। आख़िर, किसी तरह प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त हुईं और मैं
अपने जीवन में पहली बार सतयुग के बाज़ार में दाख़िल हुआ। सबसे पहले फलों की दुकानें
मिलीं। ढेर-के-ढेर फल, सुन्दर-सुन्दर! लेकिन रास्ते
की बात मत पूछिए। पत्तों और टूटी टोकरियों के ढेर, जिन पर पानी बरसने के बाद लोगों ने जी-भर धान के खेत
की तरह कादो किया था। अतः बहुत सम्भल-सम्भल कर पैर बढ़ाने लगा। रास्ते में सड़े फलों
की भी वर्षा हुई थी, सो थोड़ी दुर्गन्ध भी
स्वाभाविक ही थी। अतएव नाक पर रुमाल रख लिया और अपनी दृष्टि दुकानों से हटा कर
रास्ते पर जमा दी। लेकिन कई चक्कर मारने के बाद भी जब सब्ज़ी की कोई दुकान न मिली, तो मैं परेशान हो उठा। मन में आया कि कहीं रविवार के
दिन केवल फल ही तो नहीं बिकते; लेकिन तभी शर्माजी की याद आ गयी - वह भी तो रविवार को ही
आये थे। आख़िर, एक फलवाले से पूछा - ’’क्यों भाई, आज सब्ज़ियों की दुकानें नहीं हैं!’’ उसने एक बार मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर कहा - ’’आज ही क्यों, यहाँ सब्ज़ियों की दुकानें कभी नहीं रहतीं।’’ मैं परेशान! थोड़ा अटक कर बोला - ’’मैं समझा नहीं! यह सब्ज़ी-मंडी ही तो है?’’ ’’जी हाँ, है तो सब्ज़ी-मंडी ही, पर यहाँ केवल फल बिकते हैं। कहिए, तो ये नारंगियाँ दूँ! बहुत अच्छी हैं और सस्ती भी
इतनी कि ...’’ मैंने बीच में ही उसे
रोका - ’’नहीं-नहीं, भाई साहब, मुझे फल नहीं, सब्ज़ियाँ चाहिए।’’ शायद फलवाले को मेरी हालत पर दया आ गयी।
उसने कहा - ’’तो आप अगली बिल्डिंग में
जाइए। यह फल बाज़ार है और वह सब्ज़ी बाज़ार!’’
’प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः’। शगुन अच्छा नहीं हुआ। लेकिन शगुन विचारने का अभी
अवसर कहाँ था। जल्दी-जल्दी, प्रेमिका की गली में तमाचे खाये हुए प्रेमी की तरह, वहाँ से बाहर निकला और चन्द कदम आगे चल कर दूसरी
बिल्डिंग में दाख़िल हुआ। इस बिल्डिंग में - नहीं, मैं बिल्डिंग बेकार कहे जा रहा हूँ - विशाल गोल अहाते
में भीड़ काफ़ी थी, यह मैंने दरवाज़े पर से ही
देख लिया। दरअसल, दूरदर्शी मैं शुरू से रहा
हूँ। मेरी श्रीमतीजी भी मेरी इस दूरदर्शिता का लोहा मानती हैं, हालाँकि यह शिक़ायत उनकी बराबर रही है कि निकट की चीज़
मुझे नहीं सूझती और अपने इस कथन का प्रमाण भी वे बड़ा ज़ोरदार उपस्थित करती हैं।
जानते हैं, वह प्रमाण क्या है? मेरा चश्मा, जिसका नम्बर ’प्लस’ कुछ है - क्या है, सो नहीं बताऊँगा। ख़ैर साहब, सिकन्दर की तरह मैं उस अहाते में दाख़िल हुआ। यहाँ भी
रास्ते की लगभग वही दशा थी, जो मैंने फल-बाज़ार में देखी थी। फ़र्क सिर्फ इतना था कि सड़े
फलों का स्थान सड़ी सब्ज़ियों और गोभी तथा साग के पत्तों ने ले लिया था। लेकिन इस
प्रसंग को छोड़िए, क्योंकि यह बात शायद वहाँ
की विशेषताओं में से एक थी - तभी तो, वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति को इसकी परवाह न थी कि
वह डनलपिलो के गद्दे पर चल रहा है, या सड़े पत्तों के फच्-फच् कर रहे कीचड़ पर।
हाँ, तो पहले आलू की कुछ दुकानें मिलीं। कुछ ग्राहक भी खड़े थे
दुकानों पर। उन ग्राहकों के सवालों और उन्हें मिलनेवाले जवाबों पर ग़ौर किया, तो पता चला, भाव एक रुपये में पाँच सेर का था। सुनते ही, विश्वमित्र, त्रिशंकु और कर्मनाशा, तीनों याद आ गये। बाहर पन्द्रह आने में पाँच सेर और
मंडी में एक रुपये में पाँच सेर! वाह रे, भगवान! ठीक ही कहा है किसी ने कि जहाँ भी जाओ, क़िस्मत साथ जाती है। एक दुकानदार से इस सम्बन्ध में
पूछा भी। वह बोला - ’’जनाब, यह आलू बाहर पाँच आने सेर से कम नहीं मिलेगा। आलू भी
तो तरह-तरह के होते हैं।’’ यों, बात मेरी समझ में नहीं आयी, पर मैंने दर्शाया यही कि सारा रहस्य बख़ूबी मेरी समझ
में आ गया। इसी तरह, दस-पन्द्रह दुकानों का
चक्कर लगाने के बाद एक दुकान पर गया, तो उसने चौदह आने के पाँच सेर का भाव बतलाया। मेरी
जान-में-जान आयी। पाँच सेर पर कम-से-कम एक आने की तो बचत हुई। झट से एक झल्लीवाले
को बुलाया। उसने मेरे घर तक सामान पहुँचाने के बारह आने पैसे बतलाये। मैंने कहा - ’’ठीक है!’’ और दुकानदार से पन्द्रह सेर आलू तौलवा लिया।
अब आगे-आगे मैं बढ़ा और पीछे-पीछे झल्लीवाला। फूलगोभी की
दुकानें आ गयी थीं। भाव बतलाया गया, दस आने के पाँच सेर। कुछ मोल-भाव करना चाहा, तो दुकानदार ने पूछा - ’’कितनी गोभी लेनी है?’’ मैंने बतलाया - ’’पाँच सेर!’’ इस पर उसने ऐसी मुख-मुद्रा बनायी, जैसे मैंने एक नये पैसे की गोभी माँगी हो; बोला - ’’एक भी नया पैसा कम न होगा।’’ क्या करता, पाँच सेर गोभी ली - ढाई आने की बचत हुई! अब बंदगोभी
की दुकानें देखीं। सर्वत्र आठ आने के पाँच सेर का भाव था। पाँच सेर वह भी ली - दो
आने की बचत हुई। फिर मटर ख़रीदा, तेरह आने के पाँच सेर - यहाँ भी दो आने की बचत। अब टमाटर की
एक दुकान पर गया। दुकानदार ने चौदह आने के पाँच सेर का भाव बतलाया। मैंने कहा - ’’बाज़ार में तीन आने सेर मिल जाता है, फिर यहाँ ख़रीदने से फ़ायदा?’’ अभी दुकानदार ने जवाब भी नहीं दिया था
कि पीछे से एक धक्का लगा और मैं उसके टमाटर के ढेर पर भहरा पड़ा। दुकानदार ’हाँ-हाँ’ करने लगा। पर जो होना था, वह तो हो चुका था। लजायी बिल्ली की तरह उठ कर पीछे
देखा - पीठ पर सब्ज़ियों की कम-से-कम ढाई मन भारी बोरी लादे वह मज़दूर थोड़ा आगे बढ़
गया था। वह इस तरह निश्शंक भाव से बढ़ा जा रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। ’’बदतमीज़!’’ - मेरे मुँह से इतना ही निकला और दृष्टि हाथों तथा कोट
पर लगी टमाटर की चटनी पर चली गयी। विश्वास मानिए, अपने नये धुले कोट की हालत पर मुझे रोना आ गया और जब
रोना आए, तो रुमाल निकालना ही पड़ता
है। रुमाल निकाल कर हाथ पोंछने के बाद अभी कोट पोंछ ही रहा था कि दुकानदार बोला - ’’आपको कितना टमाटर लेना है?’’ मैंने कहा - ’’ढाई सेर!’’ उसने तराज़ू सम्भाला, और उस पर टमाटर चढ़ाता हुआ बोला - ’’ये सारे पिचे हुए टमाटर आपको लेने होंगे।’’ मैं भला क्या जवाब देता! चुपचाप
स्वीकार कर लिया। ढाई सेर पर दो पैसे की बचत और टमाटर मिले पिचे हुए।
ख़ैर जनाब! क़िस्मत की बात! आगे बढ़ा। बैंगन ख़रीदने लगा।
दुकानदार ने भाव बतलाया - एक रुपये के पाँच सेर! मैंने पूछा - ’’कम नहीं होगा?’’ उसने पूछा - ’’कितना लेना है!’’ मैंने बतलाया - ढाई सेर!’’ सुनते ही वह गर्दन टेंढी करके तेज़
आवाज में बोला - ’’बाबूजी, हथकड़ी किसी और को पहनाओ! मुझे नहीं बेचना ढाई सेर!’’ मैं हतप्रभ! ऐसा लगा, जैसे किसी राह चलती लड़की को छेड़ दिया हो और उसने शोर
मचा कर भीड़ जमा कर दी हो। चुपचाप वहाँ से हट गया और एक दूसरे दुकानदार से, जिसे हथकड़ी का डर नहीं था, उसी भाव में ढाई सेर बैंगन खरीदा। हिसाब लगाया, तो दो आने का लाभ दिखाई
पड़ा। फिर, पालक और मूली भी ढाई-ढाई
सेर ख़रीदी - छः आने में पाँच सेर के भाव से। इन दोनों को मिला कर करीब तीन आने का
लाभ हुआ।
सारी सब्ज़ियाँ ख़रीदी जा चुकी थीं - पूरे एक मन! अब सीधे घर
की राह ली। झल्लीवाला पीछे-पीछे चलने लगा। रास्ते में मैंने हिसाब लगाया - कुल
मिला कर पन्द्रह आने की बचत हुई थी, जिसमें से बारह आने झल्लीवाले को देने थे। सोचा, अच्छा हुआ कि पैदल आया, बस नहीं पकड़ी, नहीं तो रहे-सहे तीन आने में से भी ढाई आने चले जाते।
लेकिन ज्यों-ज्यों मैं सारी परिस्थिति पर विचार कर रहा था, त्यों-त्यों शर्माजी पर खीझ बढ़ती जा रही थी। मैं सोच
रहा था - ’’पता नहीं, किस सब्ज़ी-मंडी से, किस तरह वे सब्ज़ियाँ लाते हैं। भला बतलाइए, सवेरे छः बजे से दिन के दस बजे तक दो पैसे की बचत के
लिए कौन मरना पसन्द करेगा - वह भी आजकल, जब शिमला उत्तरी ध्रुव बन रहा है और दिल्ली शिमला!
फिर, दो पैसे की बचत भी
कल्पना-मात्र ही है, क्योंकि जहाँ सामान्यतः
पन्द्रह सेर सब्ज़ी में पूरे हफ़्ते का काम चलता, वहाँ अब एक मन सब्ज़ियाँ समाप्त की जाएँगी और उन्हें
सिर्फ अकेले नहीं समाप्त किया जाएगा - उनके साथ ढेर सारे तेल, नमक और मसाले को भी सूली पर चढ़ने के लिए विवश किया
जाएगा। दरअसल, यह कम-से-कम पाँच-छः
रुपये सप्ताह घाटे का सवाल है।’’
इन्हीं सब बातों पर विचार करता सिर झुकाये चला जा रहा था। चिन्तन
में वस्तुतः यह एक बहुत बड़ा गुण है कि वह समय की दूरी घटा देता है। मेरी तन्द्रा
तब भंग हुई, जब घर केवल एक फ़र्लांग
दूर रह गया। और, जब तन्द्रा भंग हुई, तब मेरा पीछे मुड़ कर देखना भी स्वाभाविक ही था। पर यह
क्या! सब्ज़ियाँ केवल मेरे दिमाग़ में थीं - झल्लीवाला तो न-जाने कब-कहाँ से साथ छोड़
चुका था।
अब यह दूसरी चिन्ता सिर पर सवार हुई - श्रीमतीजी को क्या
मुँह दिखाऊँगा? झल्लीवाले के गुम होने की
बात कहता, तो लगभग वही दशा की जाती, जो यह कहने पर कि रुपये गुम हो गये। आखिर, बहुत माथा मारने पर एक उपाय सूझा और उसे ही मैंने
कार्यान्वित भी किया। घर पहुँच कर मैं गुमसुम एक ओर बैठ गया। श्रीमतीजी को यह बात, स्वभावतः ही, कुछ अजीब-सी लगी। उन्होंने पास आकर पूछा - ’’क्या बात है? सब्ज़ियाँ कहाँ हैं?’’
मैंने धीमे से कहा - ’’सब्ज़ी-मंडी नहीं जा सका। राजीव को ज़रूरत थी, उसी को रुपये उघार दे दिये।’’
’’हाँ, यह तो होना ही था! मैं जानती थी कि ऐसी ही कोई आफ़त टूटेगी!
... आखिर, क्या तुम्हारे सभी दोस्त
ऐसे ही कंगले हैं? सबेरे-सबेरे हाथ में ढकना
लेकर भीख माँगने निकल पड़ते हैं? यह राजीव कौन है?’’ - श्रीमतीजी का क्रोध अपने परम पर था।
मैंने कहा - ’’तुम नहीं जानतीं उसे! बहुत भला आदमी है। उसकी बीवी की
तबीयत ख़राब है, इसीलिए परेशानी में था!’’
’’अरे, यह सब बहाना है। कोई बीमार-वीमार नहीं होता। ये सब रुपये
ठगने के हथकंडे हैं!’’ -
श्रीमतीजी ने अपनी निश्चित
राय व्यक्त की।
मैंने भी अपनी आवाज़ में थोड़ा आक्रोश भरा और कहा - ’’देखोजी, मेरे दोस्तों को बुरा-भला कहने का तुम्हें कोई अधिकार
नहीं है। मैं ख़ुद उसकी बीवी को देख आया हूँ। वह सचमुच बीमार है। तुम्हें रुपये
वापस मिल जाएँगे, बस!’’
श्रीमतीजी को शायद याद आ गयी यह बात कि अपने मित्रों के
विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता। अतः वे पैर पटकती वहाँ से चली गयीं।
मैं भी कुछ देर बाद, भोजन करने के उपरान्त, घर से निकल गया। पर यह चिन्ता बराबर सिर पर सवार रही
कि रुपये कहाँ से आएँगे? मेरा झल्लीवाला मित्र ’राजीव’ मुझे रुपये कैसे वापस करेगा - कब करेगा? आख़िर, एक उपाय सूझा - कोई सम्पादक बन्धु ही ’राजीव’ का स्थान ले सकते हैं! अतः एक मित्र के घर बैठ कर मैंने यह
वृत्तान्त तैयार किया। अब मुझे पूरा विश्वास है कि राजीव की लाज रह जाएगी।
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