तीनों आत्माएँ उस दिव्य उद्यान में विश्रामार्थ रुक गयीं। तीनों देवदूत भी वहाँ के अनुपम सौन्दर्य का आत्मविभोर हो रसपान करने लगे।
कुछ क्षण उपरान्त एक देवदूत की तन्द्रा भंग हुई और वह
बुदबुदाया - ’’ओह! कितना विलम्ब हो गया।
एक तो, शरीर छोड़ने के बाद
आत्माएँ पहले ही बहुत सारा समय इधर-उधर घूमने-फिरने में नष्ट कर चुकी हैं और अब
मार्ग में यह उद्यान पड़ गया। ... धर्मराज से कहना ही पड़ेगा। यह उद्यान हम दूतों के
मार्ग की एक विकट बाधा है। या तो हमारा मार्ग बदल दिया जाए, या फिर यह उद्यान ही यहाँ से हटा दिया जाए। ...’’ तभी उसका ध्यान अपने अधीनस्थ आत्माओं
के वार्तालाप की ओर आकर्षित हुआ।
एक आत्मा कह रही थी - ’’मैं तो सन्तुष्ट हो गयी! अपने सेठजी के प्रेम का मुझे
पूरा विश्वास हो गया! कितना रोये वे मेरे लिए - ’बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स’ की मीटिंग छोड़ दी! वह बेशक़ीमती पलंग और बिछावन भी, जिस पर मैं लेटी थी, उन्होंने बात-की-बात में दान कर दिया। मेरे शरीर से
आभूषण भी नहीं उतरने दिये उन्होंने। फिर ... ओह! ... कितने बहुमूल्य वस्त्र में
लपेट कर वह मेरा शव श्मशान ले गये! रुपये भी बहुत लुटाये शव-यात्रा में! मेरे नाम
पर उनकी सारी कृपणता हवा हो गयी। मुझे स्वर्ग दिलवाने के लिए ही तो उन्होंने इतना
ख़र्च किया - हज़ारों रुपये बात-की-बात में लुटा दिये। अफ़सोस! मुझे पहले नहीं मालूम
हुआ कि वे मुझे इतना प्यार करते हैं! तब शायद ...’’ वह आगे न बोल पायी - उसका स्वर रुँध
गया।
देवदूत आत्मा की बातें सुन कर मुस्कुरा पड़ा।
अब तक दूसरी आत्मा ने बोलना आरम्भ कर दिया था - ’’सचमुच बहन! तुम्हारे सेठजी ने जीवन-भर की कृपणता
पल-भर में बिखेर कर रख दी। बहुत-सारे प्राणी तुम्हारा जय-घोष कर रहे होंगे -
तुम्हारी शान्ति के लिए अन्तर्मन से प्रार्थना कर रहे होंगे। तुम्हें अवश्य-ही
स्वर्ग मिलेगा। मेरे स्वामी ने भी कुछ कम नहीं किया। कितने परेशान हो उठे वे मेरे
प्रस्थान की बात सुन कर। तुरन्त दौड़े आये। फिर, संवेदना व्यक्त करने के लिए आये लोगों से कितनी प्रशंसा
की मेरी। लगता था, उनका हृदय फट जाएगा। शोकवश
दफ़्तर भी नहीं गये, छुट्टी करवा दी। सारे
कर्मचारी मेरी शव-यात्रा में शामिल हुए। चन्दन की लकड़ी से उन्होंने मेरा दाह-संस्कार
सम्पन्न् किया - शुद्ध घी ही तो एक मन डलवा दिया। उन्होंने अपना सारा जीवन
अंग्रेज़ी ढंग से बिताया - रात-रात-भर क्लबों में सुरा-सुन्दरियों का सेवन किया; पर आज वे सिर मुँड़ाने और वैदिक रीति से संस्कार कराने
को तैयार हो गये। यह उनके प्रेम का ही तो प्रमाण है। सचमुच, मैंने कभी नहीं सोचा था कि वे मुझे इतना प्यार करते
हैं, अन्यथा मैं उनके साथ
विश्वासघात नहीं करती!’’ - कहते-कहते इस आत्मा का भी कंठ अवरुद्ध हो गया।
पहली आत्मा ने उसे ढाँढ़स बँधाया - ’’तुम व्यर्थ चिन्ता करती हो, बहन! ... विश्वासघात मैंने भी किया है और तुमने भी।
पर इससे क्या होता है! हमने यदि चार पाप किये हैं, तो सौ पुण्य किये हैं। दीन-दुःखियों में जो धन बाँटा
है, वह सब क्या व्यर्थ जाएगा? दरिद्र-कंगालों का आशीर्वाद तुम्हें भी निश्चय ही
स्वर्ग ले जाएगा।’’
देवदूत के अधरों पर पुनः एक कुटिल रेखा खिंच गयी।
कुछ क्षण शांति रही, फिर पहली आत्मा ने ही कहना आरम्भ किया - ’’चिन्ता तो इस बेचारी को देख कर होती है!’’ उसने तीसरी आत्मा की ओर संकेत किया - ’’इसने न तो दान-पुण्य ही किया और न पति का प्यार ही
पाया। भूख और लांछनाओं ने इसे अवकाश भी कहाँ दिया कि मन्दिर जा कर कुछ दान-पुण्य
कर सकती। फिर, इसे पति भी एक ही मिला।
इसने शरीर त्यागा तो उसकी आँखों से आँसू तक न निकले। मूर्ख-निकम्मे की तरह चुपचाप
शव पर सिर रखे बैठा रहा - न तो क्रियाकर्म की व्यवस्था की और न दान-पुण्य की। पास
में पैसे नहीं थे, तो क्या हुआ - ऐसे मौक़े
पर कर्ज़ तो मिल ही जाता। पर उसे क्या? पत्नी को स्वर्ग भेजने की इच्छा होती, तब न! न-जाने क्या फल भुगतना पड़ेगा इसे! लड़के-बाले भी
तो नहीं हैं, जो कुछ अर्पण दें -
उद्धार करें।’’
देवदूत ने मुस्कुरा कर तीसरी आत्मा की ओर देखा। वह गुमसुम
बैठी थी - चिन्ता में निमग्न! पहली आत्मा की कोई बात भी शायद उसने न सुनी थी।
तभी अचानक देवदूत चमक पड़ा। बड़ी तेज़ी से एक प्रकाश-पिंड उठा
आ रहा था। उद्यान में जमा असंख्य आत्माएँ और देवदूत उधर ताकने लगे। कुछ क्षणों में
ही प्रकाश-पिंड पूर्वोक्त तीसरी आत्मा के पास आ कर रुक गया। तीसरी आत्मा हर्ष से
विह्वल हो उठी - विक्षिप्त की भाँति उठ कर नवागंतुक आत्मा से लिपट गयी।
आत्माएँ तो आत्माएँ, देवदूतगण भी आश्चर्य-अवाक! बड़ा ही विलक्षण दृश्य था।
ऐसा दृश्य पहले कभी किसी ने न देखा था। बिना देवदूत के अकेली आत्मा मृत्युलोक कैसे
चली आयी - यह बात किसी की समझ में न आ रही थी।
तभी युगल आत्माओं के संयुक्त प्रकाश-पिंड के समक्ष एक प्रखर
प्रकाश-पुंज प्रकट हुआ और इसके साथ ही सभी देवदूत नतमस्तक हो गये। सारी आत्माएँ और
देवदूत हतप्रभ थे, किंकर्तव्यविमूढ़।
प्रकाश-पुंज धीरे-धीरे युगल आत्माओं के प्रकाश-पिंड की ओर
बढ़ा और फिर उसमें एकाकार हो गया। सभी देवदूत और आत्माएँ अनिमेष देखती रहीं इस
अभूतपूर्व दृश्य को, पर दृश्य बड़ा क्षणिक
सिद्ध हुआ। दो पल भी न बीते होंगे कि प्रकाश-पुंज अन्तर्धान हो गया। धर्मराज दोनों
आत्माओं को अपने में समेट कर प्रस्थान कर चुके थे!
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