मधुकर को रात-भर नींद नहीं आयी थी। उसके कानों में बार-बार
मकान-मालिक की कर्कश ध्वनि गूँजती रही थी - ’’अगर कल तक पूरा किराया न मिला, तो ... ’’ इससे आगे के शब्द हालाँकि मकान-मालिक ने अपने मुँह में ही रोक
लिये थे,
फिर भी मधुकर के कानों ने उन्हें पकड़ लिया था - ’’मय सामान और बाल-बच्चों के सड़क पर नज़र आओगे।’’
इन शब्दों ने, स्वभावतः ही, मधुकर के आत्मसम्मान पर एक साथ कई घनघनाती चोटें की थीं और
वह तिलमिला गया था; पर
इस तिलमिलाहट में क्रोध से कहीं अधिक क्षोभ और ग्लानि थी। वह इस हद तक निरीहता से
जकड़ा हुआ था। उसकी पत्नी, शालिनी, के पास अब केवल तीन सस्ती साड़ियाँ बच गयी थीं और उनमें से
भी एक ने दो जगह से दम तोड़ दिया था। ब्लाउज़ भी केवल दो बचे थे,
और पेटीकोट तो एक ही था। स्वयं उसके पास दो फटे-पुराने पैंट
रह गये थे,
जिन्हें घर में ही धोकर और प्रेस करके वह अपनी मर्यादा
बचाये रखने का प्रयत्न करता था। दोनों कमीज़ों के कॉलर और कफ़ उलटे जाने पर भी दाँत
निपोड़ने पर आमादा थे और एकमात्र बनियान तो जैसे झिलमिली बन रही थी। यही हाल दोनों
बच्चों का भी था - देखकर लगता था, जैसे भीख माँगने निकले हों। अभी चार दिन पहले कॉरपोरेशन
प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका ने उनमें से एक से कह भी दिया था - ’’पढ़ने आते हो, या भीख माँगने।’’
कैसी लानतें बरस रही थीं उस पर! मजनूँ के टीले के पास की
गन्दी बस्ती की एक झोंपड़ी, फिर भी किराया चुकाने में असमर्थता, कॉरपोरेशन के फ्ऱी प्राइमरी स्कूल में बच्चे,
फिर भी उनके लिए निकर-कमीज़ का अभाव, सस्ते ऑस्ट्रेलियन गेहूँ की रोटियाँ,
और दाल रहने पर सब्ज़ी नदारत और सब्ज़ी रहने पर दाल,
फिर भी फ़ाके करने की नौबत; दस रुपये की मिल की साड़ी से पत्नी सन्तुष्ट,
फिर भी नग्नता उभर-उभर आये; कभी-कभी तो लेख-कहानियाँ लिखने के लिए काग़ज़ और स्याही का भी
अभाव! और,
यह सब तब था, जब पाठक उसकी रचनाएँ पसन्द करते थे - वह अक्सर छपता रहता
था। कैसी पराकाष्ठा थी नियति के व्यंग्य की।
अनपढ़-उजड्ड मकान-मालिक के चले जाने पर शालिनी ने एक
सस्ते-से प्याले में गुड़ की चाय मधुकर के सामने चटाई पर रखते हुए बड़ी आजिजी से कहा
था - ’’मेरी बात मानो। ले लो किसी दोस्त से कर्ज़। इतने सारे तो
दोस्त हैं तुम्हारे - अच्छे-अच्छे ओहदों पर, पैसे वाले। मुँह खोलते ही तुम्हारी जेब भर देंगे। ... ’’
’’यही तो बात है, शालू! मैं कर्ज़ नहीं ले सकता - मर जाऊँगा,
पर कर्ज़ नहीं लूँगा। हाथ नहीं पसारूँगा किसी के सामने!’’
मधुकर ने बड़े बेमन से चाय की एक चुस्की लेकर कहा था।
’’लेकिन कल जब वह हमारे सिर से साया छीन लेगा,
तब क्या होगा - ज़रा यह भी तो सोचो। साठ रुपये बाक़ी हो गये
हैं उसके - तीन महीने का किराया। वह नहीं छोड़ेगा इस बार। देख लेना,
कल हम राह के भिखारी बन जायेंगे।’’
चाय की गर्मी ने शायद मधुकर में कुछ जोश भर दिया था - ’’तुम निश्चिन्त रहो। न हम मकान छोड़ेंगे और न राह के भिखारी
बनेंगे। किराया उसे मिल जायेगा। मैं सुबह-सुबह ही निकलता हूँ कल। तीन-चार पत्रों
में पैसे बाक़ी हैं - किसी-न-किसी से तो वसूल कर ही लूँगा।’’
और, तदनुसार ही, आज सुबह साढ़े आठ बजते-न-बजते वह अपनी झोंपड़ी से निकल पड़ा था
और एक मील पैदल चल कर खैबर-पास के बस-स्टॉप पर आ खड़ा हुआ था।
बस-स्टॉप लगभग ख़ाली ही था - अभी दफ़्तर जाने वालों की भीड़ शुरू
नहीं हुई थी। कुल चार-पाँच जने थे वहाँ। हाँ, सड़क के किनारे-स्थित चाय, पकौड़ियों और मिठाइयों की दुकानों में हलचल अवश्य थी। उनमें
से एक में ज़ोर-ज़ोर से रेडियो भी बज रहा था, जिसके रेडियो-सिलोनी गीतों की स्वर-लहरी बस-स्टॉप पर खड़े
लोगों का मनोरंजन कर रही थी। पर मधुकर किसी और ही दुनिया में खोया था - गीतों के
बोल उसके कानों से टकराकर बिखर जाते थे; उसका मानस उनके स्वागत के लिए एकदम ही तैयार न था।
काश, मैंने पढ़ाई न छोड़ी होती। - वह अचानक बुदबुदाया।
तो, वह सन् 1942 में पहुँचा हुआ था - 22 साल पहले की दुनिया में, जब वह ब्रह्मस्वरूप हाईस्कूल की नवीं कक्षा का छात्र था।
उन्हीं दिनों ’भारत छोड़ो’ आंदोलन आरम्भ हुआ था और रातोंरात सारे देश में एक ज्वाला
धधक उठी थी। उसी ज्वाला की लपटों को ऊपर उठाने के प्रयत्न में उसने रेल-लाइनें
उखाड़ी थीं,
डाकघर जलाया था और अन्त में दो साल की क़ैद पाकर अपनी
पढ़ाई-लिखाई की पूर्णाहुति दे दी थी। फिर आगे बढ़ने का उसका डौल नहीं बैठा था और
उसके पिता ने एक मारवाड़ी के यहाँ उसे खाता लिखने पर नौकर रखा दिया था। इस मारवाड़ी
की गद्दी पर वह चार-पाँच साल रहा था और इसी बीच बहरू मुख़्तार अयोध्याप्रसाद की
पाँचवीं तक शिक्षा प्राप्त पुत्री, शालिनी, से उसका विवाह हुआ था। पर खाता लिखने का काम उसे मोह कभी
नहीं पाया था - अपना अधिकांश समय वह कहानी-पत्रिकाएँ पढ़ने में बिता देता था।
कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते ही उसे कहानियाँ लिखने का भी शौक़ चर्राया था और उसने आठ-दस
कहानियाँ लिख मारी थीं, जो अन्ततः विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से सधन्यवाद वापस आ गयी
थीं। लेकिन इससे साहित्य के प्रति उसका झुकाव कम नहीं हुआ था - एक-न-एक दिन अपना
नाम छपा देखने का संकल्प दिन-दिन दृढ़तर ही होता गया था। और तब,
एक दिन उसकी मुलाक़ात सत्येन्द्र से हुई थी,
जो आगरा का ही निवासी था और दिल्ली के एक दैनिक पत्र में
उप-सम्पादक लगा हुआ था। सत्येन्द्र ने ही साहित्य जगत् में आने के लिए उसे
प्रोत्साहन दिया था और दिल्ली लाकर अपने पत्र में प्रूफ़-रीडर लगवा दिया था। तब से,
1950 से, ही वह दिल्ली में निवास कर रहा था। हालाँकि दो साल बाद ही
उक्त दैनिक बन्द हो गया था, फिर भी उसने दिल्ली छोड़ने की बात नहीं सोची थी और एक
प्रकाशक के यहाँ प्रूफ़-रीडर की नौकरी पकड़ ली थी। तब से अब तक कई नौकरियाँ बदलने के
बाद पिछले दो साल से वह बेकार बैठा था - केवल लेख-कहानियों और फुटकर अनुवाद तथा
प्रूफ़-संशोधन के सहारे उसकी जीविका चल रही थी, और इस छोटी-सी अवधि में उसकी आर्थिक अवस्था कितनी सुधरी या
बिगड़ी थी,
इसका अन्दाज़ इस एक बात से ही लगाया जा सकता है कि पहले जहाँ
वह शक्तिनगर में रहता था, वहाँ अब मजनूँ के टीले के पास रह रहा था,
और दोनों बच्चे पहले जहाँ मांटेसरी स्कूल में थे,
वहाँ अब कॉरपोरेशन स्कूल आबाद कर रहे थे।
कोई पन्द्रह मिनट बाद नौ नम्बर की बस आई और मधुकर उसमें
सवार हो गया - सौभाग्य से एक ख़ाली सीट भी मिल गयी उसे। पर दूज के चाँद की तरह उसका
यह सौभाग्य बड़ा ही क्षणिक सिद्ध हुआ। बस के ओल्ड सेक्रेटेरियट पहुँचते-न-पहुँचते
कंडक्टर उसके पास आ खड़ा हुआ, और जब कुल पूंजी एक रुपये का नोट निकालने के लिए मधुकर ने
जेब में हाथ डाला, तब
अकस्मात् उसे याद आया कि वह नोट उसने कल ही दूध वाले को दे दिया था। मधुकर के सारे
शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गयी - लज्जा से उसका मुँह लाल हो गया और देखते-न-देखते
ललाट पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आयीं। फिर भी, घबराहट से भर कर उसने पैंट की जेब में हाथ डाला - शायद कुछ
हो ही। और,
सचमुच उसमें कुछ था - दस पैसे का एक सिक्का। मधुकर को जैसे
नवजीवन मिल गया। दस पैसे ने अशर्फ़ी का मोल पा लिया था। कंडक्टर की ओर उसे बढ़ाते
हुए उसने बड़े संयत स्वर में कहा - ’’आई पी कॉलेज।’’
इस तरह, बीस मिनट का समय और दस पैसे गँवा कर मधुकर ने कुल दो-ढ़ाई
फ़र्लांग की यात्रा की और आई पी कॉलेज के स्टॉप पर भारी कदमों से उतर गया। अभी
तीन-साढ़े तीन मील का सफ़र और बाक़ी था। उसकी आज की यात्रा का पहला पड़ाव दरियागंज था,
जहाँ से निकलने वाले मासिक पत्र ’वसुधा’ में दो महीने पहले उसकी एक कहानी छपी थी और जिसका
पारिश्रमिक अब तक उसे प्राप्त नहीं हुआ था। मधुकर के अधरों पर एक स्मिति-रेखा खिंच
गयी,
अपने भाग्य की विडम्बना पर उसे अनायास ही हँसी आ गयी थी।
उसने जेब से चारमीनार का पैकेट और माचिस निकाल कर सिगरेट जलायी,
फिर चिन्ता-सागर में तैरता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगा।
इस समय उसे अपने बूढ़े पिता की याद आ रही थी,
जिन्हें पिछले छह महीने से एक पैसा भी नहीं भेज पाया था। इस
बीच उनकी कम-से-कम पन्द्रह चिट्ठियाँ आयी थीं और हर चिट्ठी को पढ़ कर मधुकर का
कलेजा मुँह को आ गया था। उसने हर बार निश्चय किया था कि इस बार जैसे ही कुछ रक़म
हाथ आयेगी,
उन्हें भेज देगा; पर भेज वह कुछ भी नहीं सका था, सिवाय आश्वासन भरी चिट्ठियों के। जो व्यक्ति अपने बच्चों का
पेट नहीं भर सकता था ठीक से, पत्नी का तन नहीं ढँक सकता था मोटे-झोंटे से,
वह कैसे कुछ भेजता अपने माँ-बाप को, जो छः सौ मील दूर बैठे थे और सम्भवतः पेट भरने लायक कमा भी
रहे थे। फिर भी,
मधुकर चाहता ज़रूर था उनके पास कुछ भेजना। शुरू से ही वह
उनके पास कुछ-न-कुछ भेजता रहा था। इसे वह अपना कर्तव्य मानता था।
पर आज उसकी मनःस्थिति कुछ और ही थी। वह एकदम दूसरे ढंग से
सोच रहा था आज - बुढ़ऊ सोचते होंगे कि दिल्ली में हम लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।
उन्हें क्या पता कि उनकी पतोहू और पोते नंगे फिर रहे हैं; कंगालों की तरह आधा पेट खाकर जी रहे हैं;
बेटा चार-चार मील पैदल चल कर इस तरह बकाया माँगने जाता है,
जैसे भीख माँगने निकला हो। उनकी कितनी भी बुरी अवस्था होगी,
तो पेट में खाना और तन पर कपड़े तो मिलते ही होंगे। घर अपना
है,
किराये का कोई सवाल ही नहीं - उलटे दस-पाँच रुपये किराये के
भी मिलते होंगे। फिर, दस-बीस
चिट्ठियाँ लिखाने वाले भी आ ही जाते होंगे। अभी नहीं फैली है इतनी शिक्षा कि हर
कोई अपनी चिट्ठी ख़ुद लिख ले। पर उन्हें क्या चिन्ता हमारी। पैसे माँगना उनका
अधिकार है और अपने अधिकार को कौन छोड़ना चाहता है। वे भी क्यों छोड़ें,
तगादा करते जाते हैं ...।
तभी बिलकुल पास से किसी मोटर का कर्कश हॉर्न सुनायी पड़ा।
मधुकर ने चैंक कर देखा - वह अपने विचारों में खोया हुआ एक सड़क पार कर रहा था और एक
कार उससे सट कर आ खड़ी हुई थी। अब, कार ड्राइवर से उसकी जो आँखें मिलीं,
तो जैसे धमाका हुआ - ’’मरने का इरादा करके निकले हो क्या?’’ मधुकर से कोई जवाब न बन पड़ा इसका। वह लज्जित-सा,
जल्दी-जल्दी आगे बढ़कर फ़ुटपाथ पर आ गया और दसेक सेकण्ड बाद
ही विचारों की टूटी श्रृंखला पुनः जुड़ गयी - हर कोई अपने ही स्वार्थ में डूबा हुआ
है। पैसे के लिए तो वे बार-बार तगादा करते हैं, पर मेरी कहानियाँ पढ़ने की उन्हें कभी फ़ुरसत न मिली। कभी एक
शब्द भी जो लिखा होता उनके बारे में। प्रशंसा न की होती, सिर्फ़ यही कहा होता कि मैंने तुम्हारी अमुक रचना पढ़ी। पर,
उन्हें क्या मतलब मुझसे, मेरी रचनाओं से, मेरी सफलता से। क्यों समय बर्बाद करें मेरे पीछे। हुँह!
कहावत सभी कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती, पर चाहता हर कोई यह है कि ताली एक ही हाथ से बजे - मुझे कोई
तक़लीफ़ उठानी न पड़े। ... मैं भी अब भेज चुका रुपये। ले लेंगे रुपये। जब आपको मेरी
चिन्ता नहीं,
तब मुझे ही क्यों हो आपकी चिन्ता? क्यों होनी चाहिए? बिलकुल नहीं होनी चाहिए। इसमें अनुचित कुछ भी नहीं है।
इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद मधुकर के चिन्तन-क्रम ने एक
करवट ली और वह साहित्यकारों की दयनीय आर्थिक स्थिति पर आ गया - इसकी पूरी
ज़िम्मेदारी प्रकाशकों पर है - पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशकों पर। काग़ज़
और छपाई का ख़र्च देते समय उनकी जान नहीं निकलती, पर जहाँ लेखकों को पारिश्रमिक देने की बात आयी कि जूड़ी
बुख़ार चढ़ आया।
लेकिन तभी उसे कुछ ऐसी पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशकों की याद
आयी,
जो रचनाओं के छपने से पहले ही लेखकों को पारिश्रमिक चुका
देते थे,
और अगले ही क्षण उसका स्वर भीग गया - काश! सभी प्रकाशक ऐसे
ही होते। इतनी ही समझदारी होती सब में। फिर क्यों भूखों मरते साहित्यकार?
उन्हें क्यों बेचना पड़ता अपना आत्म-सम्मान?
वे भी आदमी की तरह जी तो सकते। उनकी बीवियाँ और बच्चे भी
आदमी की बीवियाँ और बच्चे तो अनुभव करते अपने को। यह भी कोई बात हुई कि एक रचना
लेकर साल-साल तक दाबे बैठे रहें, फिर छापने के बाद छह महीने पारिश्रमिक के लिए इन्तज़ार
करायें। कैसी शर्मनाक बात है यह, अपने तो पाँच-पाँच सौ रुपये लोगों के यहाँ बाक़ी रहें और साठ
रुपये के लिए कोई ऐरा-ग़ैरा आँखें दिखा जाये।
और तब, एक तीसरी बात उसके सामने उभरी - लेकिन यह साहित्यकार नाम के
जानवर भी तो ऐसे ही हैं। अगर सब ईमानदारी से अपना काम करें और मिलकर रहें,
तो क्यों हो उनका शोषण। पर यहाँ तो गुटबन्दी से ही फ़ुरसत
नहीं है उन्हें! तीन कहानियाँ और कविताएँ लिख कर चाहते हैं कि इतिहास में नाम आ
जाये और इसके लिए बनाते हैं गुट, फँसाते हैं प्रकाशक - साहित्य को करते हैं पीछे और राजनीति
को लाते हैं आगे। लड़ते-मरते हैं आपस में। फिर तो यह होगा ही। कोई अमर नहीं होने का
इस तरह! सुरा,
सुन्दरी और राजनीति ने आजतक किसी को नहीं उबारा। फिर यही
कैसे उबरेंगे?
ये बुलबुले तो फूटेंगे ही एक दिन - कोई रोक नहीं सकता
इन्हें फूटने से। नया-पुराना और आद-वाद। क्या होता है यह सब साहित्य में?
सब गुमराह हैं। ... गुमराह दिखायेगा दूसरों को राह। हुँह
... और मधुकर ने घृणा से भर कर एक ओर थूक दिया।
इसी तरह के विचारों में डूबा, लगभग सवा दस बजे, मधुकर वसुधा के कार्यालय में पहुँचा। अब उसके मन में एक नयी
शंका उठी - कहीं ऐसा न हो कि बेटा हो ही नहीं। फिर तो कनॉट प्लेस तक क्विक मार्च
ही करना पड़ेगा। सिगरेट भी ख़त्म हो चुकी है। आख़िर, उसने बाहर हॉल में बैठे क्लर्कों में से ही एक से
सहमते-सहमते पूछ लिया - ’’रवीन्द्रजी आ गये हैं न?’’ और फ़ैसले के दिन जिस कातरता से अभियुक्त न्यायाधीश का मुँह
ताकता है,
उसी कातरता से वह क्लर्क के होंठों का फड़कना देखने लगा।
’’जी हाँ, अभी-अभी आये हैं। अन्दर ही हैं!’’ - कहकर क्लर्क ने सम्पादक का तख़्ता लटके केबिन की ओर इशारा कर
दिया।
मधुकर ने मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दिया,
फिर हल्के कदमों से सम्पादक के कमरे की ओर बढ़ा।
ज्यों ही मधुकर अन्दर पहुँचा, रवीन्द्रजी ने, अपनी कुर्सी से उठकर ’’आइए-आइए, मधुकरजी!’’ कहते हुए अपना एक हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।
हाथ मिलाकर मधुकर बैठ गया और तब रवीन्द्रजी मुस्कराते हुए
बोले - ’’बहुत दिन बाद दर्शन दिये इस बार। कहिए,
मज़े में तो हैं न?’’
’’जी हाँ, सब कृपा है आपकी! अपनी बताइए!’’
’’ठीक ही है सब। जब आप जैसे साहित्यकार हमारे साथ हैं,
तब फिर क्या चिन्ता मुझे।’’ - रवीन्द्रजी थोड़ा रुके, फिर बोले - ’’लेकिन भाई, आपकी कोई कहानी नहीं आयी इधर। यह भी क्या बात हुई कि हर बार
मुझे ही कहना पड़े।’’
’’नहीं-नहीं, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं ख़ुद ही भेज दूँगा। दरअसल,
इधर बड़ा व्यस्त रहा मैं, सो कोई कहानी लिख ही नहीं सका।’’
’’ख़ैर, तो अब भेज दीजिए। कहिए, कल-परसों तक भेज देंगे?’’ -
बोलकर रवीन्द्रजी ने घण्टी बजायी।
’’अगर पूरी हो गयी, तो अवश्य भेज दूँगा।’’
’’अब अगर-मगर छोड़िए। पूरी तो करने से होगी न! प्लीज़! ज़रूर भेज
दीजिए!’’
तभी चपरासी ने कमरे में प्रवेश किया और रवीन्द्रजी ने उसे
चाय लाने का ऑर्डर दिया, फिर कहने लगे - ’’पैसे अभी ज़रूर नहीं दे पाते हम पूरा ... मेरा मतलब है,
दूसरी पत्रिकाओं की तुलना में; पर विश्वास मानिए, अगर हमारी स्कीम सफल हो गयी, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम एक कहानी के पचहत्तर-सौ नहीं, पूरे पाँच सौ देंगे। बस, यही है कि आपका सहयोग हमें मिलता रहे!’’
’’आप निश्चिन्त रहें, रवीन्द्रजी! सहयोग आपको मिलेगा, अवश्य मिलेगा। जब आप लेखकों का ध्यान रखेंगे,
तब लेखक भी आपका ध्यान रखेंगे ही। और फिर,
पैसा ही तो सब-कुछ नहीं है - आदर-मान भी तो एक चीज़ है ... ’’
’’यह कही आपने बात! हम तो, भाई, जितना भी बन पड़ता है, अपने लेखकों को मान देते हैं। फिर पैसे का ख़याल न हो - ऐसा
भी नहीं है। अब यही देखिए न, इस महीने से एक कहानी के तीस से पैंतीस रुपये कर दिये हैं।
जितना कुछ हमसे हो रहा है, वह सब हम कर रहे हैं, फिर भी दूसरों के बराबर आने में कुछ समय तो लगेगा ही। हाँ,
उग्रतारा वाले क्या दे रहे हैं आजकल?’’
’’पिछली बार तो सौ भेजे थे। अब की नहीं जानता।’’
- मधुकर ने बड़े सहज भाव से कहा।
सुनकर रवीन्द्रजी की भवें थोड़ी सिकुड़ीं,
पर जल्दी ही फैल भी गयीं - ’’ख़ैर यह कोई बड़ी बात नहीं है। ईश्वर ने चाहा,
तो साल बीतते न बीतते हम भी सौ नहीं,
तो श्यामा के बराबर, मतलब पचहत्तर रुपये पर, तो पहुँच ही जायेंगे।’’
’’वह तो ठीक है, रवीन्द्रजी! जैसे-जैसे सम्भव हो, पारिश्रमिक की रक़म बढ़ाइए, पर एक बात, मेरे विचार से, आपको अभी से कर देनी चाहिए ... ’’
’’हाँ-हाँ, कहिए, कौन-सी बात?’’
’’एडवान्स पेमेण्ट की व्यवस्था। इसके बिना बड़ी दिक्कत हो जाती
है। अब यही देखिए न, मार्च
के अंक में मेरी कहानी छपी थी, पर मई हो गयी, पैसे अब तक नहीं मिले। चाहे कम ही मिले,
पर समय पर तो मिले!’’
’’ऐं? पैसे नहीं मिले आपको? अच्छा? मैं नोट किये लेता हूँ। जाँच करके तुरन्त भिजवाता हूँ -
एक-दो दिन में ही।’’ और
रवीन्द्रजी ने पेन्सिल उठा ली।
’’इसमें जाँच क्या करनी है, रवीन्द्रजी? मैं ग़लत थोड़े ही कहूँगा आपसे। दरअसल,
मुझे बड़ी सख़्त ज़रूरत आ पड़ी है, इसलिए भागा-भागा आया आपके पास।’’ मधुकर ने भागते बैल की पूँछ पकड़ी।
तभी चपरासी ने चाय के दो प्याले सामने लाकर रख दिये।
’’अच्छा-अच्छा! कोई बात नहीं। चलिए, चाय तो पीजिए।’’ और चाय की सिप लेते हुए रवीन्द्रजी ने पुनः घण्टी बजायी।
चपरासी हाज़िर हुआ, तो उसे ख़ज़ांची को बुलाने का आदेश मिला।
थोड़ी ही देर में ख़ज़ांची आ पहुँचा और रवीन्द्रजी ने उसे तीस
रुपये और एक वाउचर लाने का हुक़्म दिया।
मधुकर ने टोका - ’’तीस या पैंतीस?’’
ख़ज़ांची चलते-चलते रुक गया।
रवीन्द्रजी मुस्करा पड़े - ’’वह तो इस महीने से किया है न। अगली कहानी के पैंतीस ही
दूँगा।’’
’’यह इस महीने, उस महीने क्या भाई! आख़िर, पेमेण्ट तो मैं इसी महीने ले रहा हूँ। पाँच रुपये से ऐसा
बन-बिगड़ भी क्या जाएगा आपका!’’ - मधुकर ने तनिक शिकायत के लहजे में कहा।
रवीन्द्रजी पुनः मुस्कराये - ’’अच्छा भाई, पैंतीस ही सही। आपको ही पहला बढ़ा हुआ पेमेण्ट। अब तो ख़ुश!
ख़ज़ांची साहब,
पैंतीस ही ले आइए।’’
और, कोई दस मिनट बाद मधुकर जब तुरन्त कहानी भेजने की चेतावनी
पाकर वसुधा के कार्यालय से रवाना हुआ, तब उसकी जेब में पैंतीस रुपये थे। मात्र पैंतीस रुपये,
पर अद्भुत परिवर्तन आ गया मधुकर में। रुपये केवल अच्छे-भले
आदमी को पागल ही नहीं बनाते, बल्कि पागलपन का इलाज भी करते हैं - इसे भलीभाँति सिद्ध कर
रही थी मधुकर की स्थिति। वह अब काफ़ी संयत हो चुका था - किसी के भी प्रति कोई
दुर्भावना शेष नहीं रही थी उसके मन में। जेब में रुपयों की उपस्थिति ने समझदारी और
करुणा की एक शान्त धारा बहा दी थी उसके अन्दर।
दरियागंज से वह बस पकड़कर कनॉट प्लेस के लिए रवाना हुआ। वहाँ
से निकलने वाले मासिक शाश्वत-कथा में पिछले महीने उसकी एक कहानी प्रकाशित हुई थी,
और एक कहानी के वे लोग पचास रुपये देते थे। यों,
उसके पैसे बाक़ी तो दो और पत्रिकाओं में थे पर वे पत्रिकाएँ
सरकारी थीं और हाथोहाथ वहाँ से पैसे मिलने की कोई गुंजायश न थी। इसी तरह,
एक दूतावास से भी उसे अनुवाद के दो सौ रुपये लेने थे पर
इनमें भी वही सरकारी पत्रिकाओं वाला सिलसिला था। मधुकर को इस समय उनकी विशेष
चिन्ता भी नहीं थी, क्योंकि
शाश्वत-कथा वाले पैसे मिल जाने से ही उसका काम चल जाता।
पर शाश्वत-कथा के पैसे उसे न मिल सके। सम्पादक विलक्षणजी ने
उसे बताया कि बिना मैनेजर के हस्ताक्षर के पेमेण्ट नहीं हो सकता और मैनेजर अभी
तीन-चार दिन के लिए दिल्ली से बाहर गया हुआ है। विलक्षणजी ने जो यह सब बताया,
वह भी बड़ी रुखाई से। वस्तुतः यह रूखापन ही उनकी विशिष्टता
थी। वे हँसकर,
ढंग से बाते करते थे केवल उन लोगों से,
जो अक्सर उन्हें ’नमस्कार’ करने चले आते थे और कभी-कभार मिल्क-बार या कॉफ़ी हाउस भी ले
जाते थे। मधुकर में ये सब गुण कहाँ। फिर भी यदा-कदा विलक्षणजी उसकी कहानियाँ छाप
देते थे,
यही क्या कम था। वे मुफ़्त का और कितना एहसान करते उस पर। पर
मधुकर ने उनकी मर्यादा का कोई ध्यान रखे बिना ही कह दिया - ’’लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी तो कार्यालय का काम चलता ही
होगा। किसी-न-किसी को तो अधिकार सौंप ही गये होंगे। अगर आज पेमेण्ट करा देते,
तो बड़ी कृपा होती। बहुत सख़्त ज़रूरत आ पड़ी है।’’
विलक्षणजी नाराज़ हो गये और जिस अन्दाज़ से वे अपने सहायक से
बात करते थे,
उसी अन्दाज़ से बोल उठे - ’’आप समझते हैं, मैं आपको जान-बूझ कर पैसे नहीं दिला रहा हूँ?
अजीब आदमी हैं आप भी! एक तो कहानी छाप दी और ऊपर से इल्ज़ाम।
बाज़ आये हम ऐसे परोपकार से।’’
मधुकर सकपका गया, बोला - ’’आप तो नाराज़ हो गये, विलक्षणजी! दरअसल, मजबूरी ही कुछ ऐसी आ गयी है। अब आप ही बताइए,
अपना सुख-दुःख आप-जैसे शुभचिन्तक से न कहूँ,
तो किससे कहूँ। लेकिन जब सम्भव नहीं है,
तब फिर क्या किया जा सकता है। कुछ और व्यवस्था करूँगा। आप
परेशान न हों।’’
’शुभचिन्तक’ शब्द ने
विलक्षणजी के अहम् को सहला दिया था और वे मुलायम पड़ गये थे, बोले - ’’भाई, सम्भव
होता, तो मैं
स्वयं ही कर देता। मैं यहाँ बैठा और किसलिए हूँ। आज आप किसी तरह काम चला लीजिए।
मैनेजर साहब के आते ही मैं पैसे भिजवाने की व्यवस्था कर दूँगा, या फिर, आज 14 तारीख़
है न, आप 18 को आ
जाइए - पेमेण्ट करा दूँगा।’’
’’जैसी
आज्ञा। मैं 18 को पुनः
दर्शन करूँगा।’’ मधुकर ने
कहा और नमस्कार करके बाहर निकल आया।
थोड़ी देर बाद नौ नम्बर की एक बस आयी और मधुकर उसमें सवार हो
गया। अब और कहीं जाने का कोई लाभ न था। बस में बैठे-बैठे ही उसने निश्चय किया कि
तीस रुपये वह मकान-मालिक को देगा और शेष बचे तीन-चार रुपयों से किसी तरह दो-तीन
दिन निकालेगा। इसी दौरान अगर ’प्रतिभा’ से भी मनीऑर्डर आ गया, तो फिर
पूछना ही क्या। वे पैसे भी आ ही रहे होंगे। उनका पत्र पिछले ही सप्ताह आ गया था।
और, अगर कुछ
न हुआ, तो भूखे
रह लेंगे, पर यह
मकान-मालिक की बला तो टल जायेगी सिर से। - मधुकर ने राहत की एक साँस ली।
तभी बस मण्डी हाउस के स्टॉप पर रुकी और एक भद्र महिला दो
बच्चों के साथ उसमें सवार हुई। महिला सुन्दर थी - गोरी-चिट्टी,
शैम्पू किये हुए फूले-फूले केश उसकी सुन्दरता में और भी
वृद्धि कर रहे थे। उसने हैंडलूम की अच्छी-सी चालीस-पैंतालीस की साड़ी पहन रखी थी और
उसी से मैच करता हुआ ब्लाउज़ - पाँवों में सफ़ेद ख़ूबसूरत चप्पलें थीं। दोनों बच्चे
भी हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने अच्छे क़ीमती कपड़े के निकर और कमीज़ें पहन रखी थीं और
पाँवों में मोज़े तथा बूट। मधुकर की जो उन पर दृष्टि पड़ी, तो मन्त्र-मुग्ध-सा वह तब तक उन्हें निहारता रहा,
जब तक गैंगवे में वे बढ़ते रहे और तीन-चार सीट आगे जाकर बैठ
नहीं गये। उनके बैठ जाने के बाद भी उसकी दृष्टि उन पर से हट नहीं पायी। हाँ,
एक नयी बात अवश्य हुई - उसका मानस बेहद चंचल हो उठा। उस
महिला और दोनों बच्चों का स्थान उसकी शालिनी और अन्नू-मन्नू ने ले लिया था।
कितना भयानक अन्तर। - मधुकर के मानस में आँधी चलने लगी -
कौन कह सकता है कि दोनों तस्वीरें एक ही दुनिया की हैं। नहीं,
यह तो स्वर्ग और नरक का अन्तर है। पर क्यों है यह अन्तर?
कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए? क्या मेरी शालिनी कुछ कम सुन्दर है? मेरे बच्चे कुछ कम मासूम-ख़ूबसूरत हैं?
फिर क्यों इन्हें छूने को मन करता है और उन्हें देखते ही
आनन्दमठ का दुर्भिक्ष स्मरण हो आता है? टी बी की मरीज़-सी शालिनी और गिलटावन बच्चे। ... यह सब मेरा
कसूर है,
और किसी का नहीं। मैं भी अगर उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़े दूँ,
आराम दूँ, अच्छी तरह पालूँ-पोसूँ, तो वे भी ऐसे ही लगेंगे - फूल-से कोमल लुभावने। मेरी शालिनी
की भी एड़ियाँ ख़ून की तरह लाल हो सकती हैं ... पर मैंने उनमें बवाई डाल रखी है। ...
नहीं,
इस बार एम्बैसी के पैसे लेकर मैं सबको ढंग के कपड़े दूँगा।
अपनी पढ़ाई-लिखाई मैं और बढ़ाऊँगा, और अधिक मेहनत करूँगा, छोड़ दूँगा मजनूँ के टीले को। मैं भी अब अच्छी ज़िन्दग़ी
बिताऊँगा। स्कूल- कॉलेज में मैंने
शिक्षा नहीं पायी है, तो
क्या - किस एम ए से कम हूँ ज्ञान में? न होगा, मैं भी परीक्षाएँ दूँगा, पास करूँगा। मुझे भी आगे बढ़ना ही होगा। मेरी शालिनी,
मेरे अन्नू-मन्नू, अब और नहीं रहेंगे इस तरह। यह कितना बड़ा पाप कर रहा हूँ
मैं। उफ़् ... इसी तरह के विचारों में वह उलझा रहा और तपती सड़क पर बस दौड़ती रही।
आख़िर,
जब कंडक्टर ने ’’खैबर पास कोई है’’ का नारा लगाया, तब वह एक झटके के साथ अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और बस के
रूकते ही इस तेज़ी से नीचे उतर गया, जैसे अगला कदम ही उसकी ज़िन्दग़ी की मंज़िल हो।
भरी दुपहरी में, कोई एक बजे, मधुकर अपनी कुटिया में लौटा, तो पसीने से उसके कपड़े भीगे हुए थे। वह जूते उतार कर धम्म्
से चटाई पर बैठ गया। तभी बाहर गली में लगे नल पर नहा कर शालिनी लौटी और बिना बाल
झाड़े या ठीक से कपड़े पहने ही, जल्दी-जल्दी माँग में सिन्दूर डाल, हाथ में पंखा लिये मधुकर के पास आ गयी और उसे हवा करने लगी।
इसके साथ ही उसकी दृष्टि मधुकर के चेहरे से उसकी सफलता-असफलता की थाह पाने की
चेष्टा भी करती रही। पर उसने पूछा कुछ नहीं। थके-माँदे से क्या पूछना?
इतनी शिष्टता-समझदारी थी उसमें!
दो-चार मिनट ऐसे-ही बीते और तब मधुकर ने पूछा - ’’डाकिया आया था?’’
’’हाँ!’’ - बोलकर शालिनी ने पास ही सन्दूक पर पड़ा लिफ़ाफ़ा उसकी ओर बढ़ा
दिया।
लिफ़ाफ़ा फटा हुआ था, यानी शालिनी उसे पढ़ चुकी थी।
’’और कुछ नहीं?’’ - मधुकर ने बड़े आहत स्वर में प्रश्न किया।
’’उहूँ!’’ - छोटा उत्तर मिला।’’
’’क्या लिखा है पिताजी ने?’’ -
मधुकर ने लिफ़ाफ़े से पत्र निकालते-निकालते एक रूटीन-सा
प्रश्न कर दिया,
फिर स्वयं ही उत्तर दे दिया - ’’रुपये माँगे होंगे, और क्या!’’ और, उसकी दृष्टि पत्र की पंक्तियों पर फिसलने लगी। लिखा था –
’’प्रिय बेटे!
’’दस-बारह दिन पहले भी एक पत्र लिखा था। जवाब नहीं आया।
न-जाने किस हालत में हो तुम लोग। समाचार नहीं मिलने से जी बड़ा घबराता है।
बहू-बच्चे अच्छी तरह तो हैं न? तुम भी स्वस्थ-सानन्द तो हो न? अगर पास रहते, तो ग़रीबी चाहे जितनी रहती, इस तरह की चिन्ता तो न सताती। अपना कुशल-समाचार तुरन्त दो
और अगर काम-धाम का कोई प्रबन्ध न होता हो, तुम तक़लीफ़ में हो, तो दिल्ली छोड़ दो। चले आओ यहाँ। कुछ-न-कुछ तो किया ही
जायेगा। मुझसे कैसा छुपाव-दुराव। मुझे लगता है कि तुम लोग ज़रूर संकट में पड़े हो -
मुझे बताते नहीं हो। यहाँ का भी समाचार कुछ ख़ास अच्छा नहीं है। डाकख़ाने में
बैठा-बैठा दिन-भर मक्खियाँ मारता हूँ। बड़ी मुश्किल से तीन-चार आदमी चिट्ठी लिखाने
या मनीऑर्डर फ़ॉर्म भराने आते हैं। हमारी हालत इसी से समझ सकते हो कि इस महीने
तुम्हारी लिखी कहानी वाली कोई पत्रिका न ख़रीद सका, जबकि हर महीने भूखे रह कर भी मैंने वह हर पत्रिका ख़रीदी है,
जिसमें तुम्हारा कुछ छपा है। मुझे और तुम्हारी माँ,
दोनों को ही एक अपूर्व सन्तोष मिलता है तुम्हारी रचनाएँ
पढ़-सुन कर - हम अपनी भूख-प्यास भूल जाते हैं। पर इस महीने हम उससे भी महरूम हो
गये। ... लेकिन चिन्ता मत करो। आ जाओ। साथ रहेंगे, तो एक दूसरे का सहारा होगा - कोई राह भी निकलेगी ही। अपने
आने की ख़बर तुरन्त दो। सौभाग्यवती बहू और प्यारे बच्चों को हमारा हार्दिक आशीष
कहो।
’’तुम्हारा,
’’रामलाल’’
पत्र समाप्त करते-करते अजीब दशा हो गयी मधुकर की। उसका शरीर
शिथिल पड़ गया,
आँखें गीली हो गयीं, दिल भर आया। उसने एक कातर दृष्टि डाली शालिनी पर,
जो गुम-सुम पत्थर की प्रतिमा की तरह बगल में बैठी पंखा झल
रही थी। पर उसकी दृष्टि अधिक देर तक सह न सकी शालिनी की आँखों में छलछलाती दीनता
को - पल भर बाद ही नीचे झुक गयी। और तब, मधुकर के अवरुद्ध कंठ ने अपनी भूमिका अदा की - ’’पिताजी सचमुच बड़े कष्ट में हैं।’’
’’हूँ!’’ - सम्भवतः शालिनी भी कुछ कम द्रवित न थी उनकी स्थिति का
अनुमान लगा कर।
’’अच्छा, मैं अभी आया!’’ - बोल कर मधुकर अचानक उठ खड़ा हुआ और जूते पहनने लगा।
’’अब कहाँ चले इस दुपहरी में?’’ -
शालिनी के मुँह से इतनी देर में पहला लम्बा वाक्य निकला।
’’कुछ इन्तज़ाम तो करना ही पड़ेगा। ज़रा ओल्ड सेक्रेटेरियट जाता
हूँ।’’
- बोलते-बोलते मधुकर बिजली की-सी गति से बाहर निकल गया।
कोई घण्टे-भर बाद जब वह वापस लौटा, तब दो-चार मिनट की चुप्पी के बाद सहमते-सहमते शालिनी ने
प्रश्न किया - ’’हुआ कुछ इन्तज़ाम?’’
’’हाँ, हो गया।’’ - मधुकर ने बड़े बुझे स्वर में कहा और सिविल लाइन्स पोस्ट ऑफ़िस
से भेजे गये तीस रुपये के तार-मनीआर्डर की रसीद उसे थमा दी।
’’किसी से कर्ज़ लिया क्या?’’ -
शालिनी ने अचकचा कर पूछा।
’’हाँ शालू, आज मेरे आत्म-सम्मान का यह सम्बल भी टूट गया। अब मैं पूरी
तरह एक ग़रीब-मुहताज हूँ!’’ मधुकर ने भर्रायी आवाज़ में उत्तर दिया और दोनों हथेलियों से
अपनी आँखें भींच लीं।
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