वह दोशीज़ा सरेआम मुझसे इस क़दर लिपटी खड़ी थी कि हमारी धड़कनें एकसर हो रही थीं, मेरी बाहें उसके पारिजात के फूल जैसे नाज़ुक बदन को सहारा दे रही थीं, उसकी स्याह-बादामी ज़ुल्फ़ें मेरे गालों को सहला रही थीं, मेरा वजूद उसकी लैवेण्डर की ख़ुश्बू से लबरेज़ हो रहा था, और मेरी निगाहें उसकी अखरोटी गर्दन और मरमरी कन्धे के बीचोंबीच नुमूदार गहरे कत्थई तिल से हट कर कहीं और टिकने से बग़ावत कर रही थीं।
एयरपोर्ट
के लाउंज में बैठे मुसाफ़िर और उनकी ख़िदमत में मसरूफ़ बेयरे ख़्वाब में भी नहीं सोच
सकते थे कि मेरे और उस हसीना के मरासिम की उम्र फ़क़त दो मिनट थी। आदत के मुताबिक़,
लाउंज
में क़दम रखते ही मैंने काउण्टर की ओर एक मुस्कान उछाली थी और बदले में पाए उस हसीन
लड़की के दिलक़श तबस्सुम का मुरीद हो गया था। मैं उसके पास जाकर थोड़ा ठिठका था और
उसकी आँखों से आँखें मिलाते ही दो नीली झीलों की गहराई में डूबने-उतराने
लगा था।
उसने
मेरी जान बचाते हुए कहा था, "गुड
मॉर्निंग, सर!"
मुझे
होश-सा आया था और झेंप दबाते हुए मैं अधख़ुमारी में बोल पड़ा था,
"गुड मॉर्निंग! आपकी इस रिफ़्रेशिंग मुस्कान
के पीछे कितनी सैक्रिफ़ाइसेज़ छुपी हैं, कौन
जानता है?"
बस,
इतने
घिसे-पिटे-से जुमले ने न जाने उसकी कौन-सी दुखती रग को छू लिया था कि उसका दर्द तमाम
बाँध तोड़ कर बह निकला था,
उसे अपने-पराये तक का ख़याल नहीं रहा था,
और वह मेरे चौड़े सीने का सहारा लिए सुबकियाँ भरने को मजबूर हो गई थी।
आगे
क्या हुआ मैं वह भी बता देता, अगर
एक बात का ख़ौफ़ मेरी ज़ुबान पर ताला न लगाता। आदमी को बिलावजह झूठ नहीं बोलना चाहिए,
और
अगर किसी को ऐसी ग़लत आदत लग ही गई हो तो उसे दोज़ख़ में सड़ने के लिए तैयार रहना
चाहिए। मैं ज़मीन पर रह कर ही काफ़ी परेशानियाँ झेल रहा हूँ,
अब
दोज़ख़ जाकर उनमें इज़ाफ़ा नहीं करना चाहता।
तो,
सच बताए देता हूँ।
सच यह
है कि मेरा सीना क़बूतर के सीने की मानिन्द सँकरा भले ही न हो पर चौड़ा तो हर्गिज़ नहीं कहा
जा सकता;
पचासी सेण्टीमीटर वाली बनियान पहनने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होती। दूसरी बात यह,
कि
कोविड के माहौल में मैं बिना मास्क कहीं नहीं जाता,
और
मास्क के अन्दर आदमी मुस्करा रहा है या रो रहा है पता लगाना नामुमक़िन नहीं तो
दुश्वार ज़रूर होता है। साफ़ ज़ाहिर है कि मेरी और उस हसीना की मुस्कानबाज़ी इतनी
पुरक़शिश हो ही नहीं सकती थी कि हम एक-दूसरे के क़रीब आते,
और
अगर आते भी तो दो ग़ज़ की दूरी तो फिर भी रह ही जाती हमारे दरमियान। और सबसे बड़ी बात
यह है कि इस बीमारी के फैलने के बाद से मैं हवाई जहाज़ से कहीं गया ही नहीं और
इसलिए एअरपोर्ट के लाउंज में जाने का क़िस्सा महज़ ख़याली पुलाव है।
आपको
झटका ज़रूर लगा होगा और उसके लिए मैं माफ़ीयाफ़्ता भी हूँ,
पर
ऐन मौक़े पर मैंने अपनेआप को दोज़ख़ में सड़ने से बचा लिया है। जो बात हुई ही नहीं,
उसका
बखान क्या करना?
अब,
जो
दरअसल हुआ, वह
बताता हूँ।
हुआ
यह था कि मैं रात साढ़े दस बजे लोकल ट्रेन से घर लौट रहा था। ज़्यादातर सीटें ख़ाली
थीं। मैं आराम से पीछे वाली सीट पर मुर्ग़े के सालन के साथ प्याज़ के पराँठे खाकर
पैंतालीस मिनट का सफ़र तय कर रहा था, कि
आगे की सीट पर हल्ला होने लगा। मुर्ग़े की टाँग से नज़र उठाई तो देखा कि
कुर्ते-पाजामे-गुलबन्द में लैस एक आदमी ग़ुस्से में कह रहा था,
"मेरे को जिधर बैठने का मन करेगा,
बैठूँगा।
तुमको करेण्ट लगता है तो लेडीज़ डिब्बे में जाने का।"
उधड़ी
नीली जीन्स और हरे टॉप में लड़की तिलमिलाती-हुई उठी और बाईं खिड़की के पास बैठ गई।
मामला रफ़ा-दफ़ा समझ मैंने मुर्ग़ी की टाँग से बचा-खुचा गोश्त चिंचोड़ कर मुँह के
हवाले किया।
शोर
दोबारा होने लगा।
"मैं
वहाँ बैठी थी तो आप वहाँ आ गए, अब
इधर बैठी तो इधर परेशान करने पहुँच गए! शर्म नहीं आती?"
लड़की
बिफ़र रही थी।
"तुम
अपने प्रदेश से यहाँ हमारी जगह आ कर काम करती हो,
हमारे
लोगों का रोज़गार छीनती हो, तुम्हें
शरम नहीं आती? बाप
की उमर के आदमी से बहस करती हो, शरम
नहीं आती? फटी
जीन्स से नरम-गरम जाँघ दिखाती हो, शरम
नहीं आती?" आदमी
का हाथ लड़की की जाँघ तक पहुँच गया।
अगला
स्टेशन आने में पाँच मिनट बाक़ी थे। लड़की ने चारों ओर देखा,
पर
उसकी मदद करने की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई।
मुझसे
रहा न गया, मुर्ग़े
के शोरबे को नैपकीन में पोंछते हुए बोल बैठा,
"आपलोग शोर क्यों मचा रहे हैं?
और,
आप दोनों के मास्क कहाँ हैं?"
आदमी
बोला, "तुम्हारा
मास्क कहाँ है? फालतू
बकबक करने से पहले अपना मास्क पहनने का।"
लड़की
ने चुपचाप मास्क लगा लिया।
"मैं
पीछे ख़ाली जगह बैठ कर खाना खा रहा था, इसलिए
मास्क नहीं लगाया था।" मैंने
मास्क लगाते हुए ललकारा, "तुम्हें
इतनी अक़्ल तो होनी चाहिए कि शोरशराबा करने से पहले मास्क लगा लिया करो। अपनी वजह
से इन बेचारे ईमानदार, मेहनत
करने वाले लोगों की जान तो ख़तरे में मत डालो। इन्हें कुछ हो गया तो इनका परिवार
कौन चलाएगा, तुम?
ठीक
कहा कि नहीं?" मैंने
पास बैठे मुसाफ़िरों की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।
तीर
निशाने पर लगा। दो-तीन लोग कसमसाए, एक
बोल पड़ा, "बरोबर
है। पहले मास्क लगाने का, बाद
में बात करने का।"
कुछ
और लोगों ने भी हामी भरी।
वह
शोहदा उस बेचारी लड़की और मुझसे तो झगड़ सकता था,
पर
सबसे एकसाथ भिड़ने की ताब उसमें न थी। उसने चुपचाप गुलबन्द मुँह पर लपेट लिया।
लड़की
ने मेरी ओर शुक्रगुज़ार नज़रों से देखा, अपना
बैग उठाया, और
दरवाज़े के पास खड़ी हो गई। मैंने बड़ी चालाकी से उसे परेशानी से जो बचा लिया था!
मैंने भी आँखों-ही-आँखों में उसका शुक्रिया क़ुबूल किया और वापस अपनी सीट पर बैठ
गया।
अपनी
हाज़िरदिमाग़ी पर मुझे फ़ख़्र तो है, लेकिन
यह वाक़या, एक
बार फिर, सच
से कोसों दूर है और मुझे दोज़ख़ की सैर करा सकता है। माफ़ कीजिएगा,
लेकिन
बात कुछ और ही हुई थी।
दरअसल,
मेरे
टिफ़िन बॉक्स में मुर्ग़ी का सालन और प्याज़ के पराठे नहीं,
रोटी
और अचार था जो सुबह सात बजे बीवी ने मेरे हवाले किया था। रात के साढ़े दस बजे रोटी
के छोटे-छोटे टुकड़े झड़ने लगे थे,
पर उसे फेंक देने पर मुझे भूखा रहना पड़ता। मेरी औक़ात सौ रुपये किलो प्याज़ और अस्सी
रुपये किलो आलू ख़रीदने की नहीं रह गई थी, चार
सौ रुपये किलो मुर्ग़ी कैसे ख़रीदता! लॉकडाउन के दो महीने बाद तक तो किसी तरह घर का
ख़र्च चलता रहा था, पर
फिर दोस्तों से बात करने के बाद यह बात शीशे की तरह साफ़ हो गई थी कि हमारी कम्पनी
बन्द हो गई थी और कोई दूसरा इन्तज़ाम करना लाज़िमी हो गया था।
उस
दिन भी मैं रोज़ की तरह नौकरी की तलाश में निकला था। मैंने पहले मैनेजर की नौकरी
तलाशी, फिर
असिस्टेण्ट की, और
दो महीने गुज़र जाने के बाद अब मज़दूरी करने को भी तैयार था। मेरी अंग्रेज़ी से
मुतास्सिर होकर एक रेस्टोरेण्टवाले ने मुझे वेटर की नौकरी दे भी दी,
पर
वह काम एक हफ़्ते से ज़्यादा नहीं चल सका। बोलते शर्म आती है,
पर
मैं हाजी अली में आनेवालों से कभी हिन्दी तो कभी अंग्रेज़ी में मदद माँगने लगा,
मुसलमानों
के आगे टूटी-फूटी उर्दू में गिड़गिड़ाने लगा। इस अफ़साने की भाषा,
इसमें
ज़बर्दस्ती ठूँसे गए उर्दू शब्द,
मेरे उसी तज़ुर्बे का नतीजा हैं। मैंने देखा है कि उर्दू और अंग्रेज़ी का इस्तेमाल
आदमी की भाषा में वज़न डाल देता है, भले
ही वह 'मिज़ाज'
को
'मिजाज़'
ही
क्यों न कहे!
उस
रात पिछली सीट पर गली रोटी खाते हुए मेरी आँखों के सामने मेरी बीवी का चेहरा नाच
रहा था जो न जाने कब से आधा-पेट खाकर सो रही थी। लाख परेशानी के बावजूद उसने मेरे
कपड़ों को साफ़ करना, उन
पर इस्त्री करना, और
मेरे जूतों को साफ़ करना नहीं छोड़ा था। हर रात मेरा मायूस चेहरा देखकर वह सब समझ
जाती, और
बिना कुछ पूछे मेरे सामने खाने का कुछ सामान रख देती। मैं अक़्सर हिम्मत हार कर
बच्चों की तरह बिलख पड़ता, और
वह माँ की तरह मेरी पीठ पर हाथ फेरती, मुझे
ढाँढ़स बँधाती। एक समय था जब मैं अच्छे ओहदे पर काम करता था,
देश-विदेश
की सैर करता था, पानी
की तरह पैसे बहा कर छुट्टियाँ मनाता था, और
एक समय यह था जब मैं भिखारियों की मानिंद दर-दर भटक रहा था,
एक
ही मास्क को तीन महीने से लगा रहा था, गुरुद्वारों
में खाना खा रहा था। मेरी बीवी के घरवाले मुझसे बेहतर हालत में थे,
लेकिन
कोई ससुरालवालों के आगे कितनी झोली फैला सकता है?
शायद
मर जाना ही मेरे लिए सबसे अच्छा उपाय था। हमारे कोई औलाद नहीं थी,
इसलिए
मेरी बीवी की दूसरी शादी होने में ज़्यादा परेशानी नहीं होती। उसे चाहे कैसा-भी
शौहर मिलता, मुझसे
तो बेहतर ही होता। ऐसे ही ख़यालों के बीच आगे की चिल्लपों मेरे कानों में पड़ी थी।
मैंने
उस लड़की की जगह ख़ुद को और उस आदमी की जगह कोविड को रख कर देखा था। कोविड ने कितना
परेशान कर दिया था हमें! वह न आया होता तो मेरी नौकरी न गई होती,
हमें
खाने के लाले न पड़ते, किराया
न देने की वजह से घर छोड़ने की नौबत न आई होती। दिल में तो आया कि उसी के गुलबन्द
से उस आदमी का गला घोंट दूँ, पर
फिर लगा था कि वह लड़की मेरी जैसी लाचार नहीं थी। उसके कपड़े-लत्ते,
उठना-बैठना,
सब
बता रहे थे कि उसके पास पैसे हैं। उसके साथ जो ज़बर्दस्ती हो रही थी,
ठीक
ही हो रही थी। शरीर झलकाने वाली जीन्स में घूमने को किसने कहा था उसे?
जैसा
करोगे, वैसा
ही तो भरोगे!
इसी
बीच एक नौजवान ने उस आदमी को मास्क न पहनने पर चेतावनी दे दी थी,
और
मामला सुलझ गया था। लड़की ने उस आदमी को तारीफ़-भरी निगाहों से देखा था,
और
दोनों अगले स्टेशन पर उतर गए थे। मैं गाड़ी में अधलेटा पड़ा रहा था। मेरा स्टेशन आने
में आधे घण्टे से ऊपर था।
हम-जैसों
का स्टेशन इतनी जल्दी कहाँ आता है!
____________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें