बरसाती ऊमस के दिन। दस घंटे की यात्रा। यात्री सोच-सोच कर परेशान।
मेरी बगल में बैठे युवक बड़बड़ाये - ’’ई राज ट्रांसपोर्टवाले! घड़ी बेकारे दिया है इनको! खोलने में ही एतना टाइम लगा दिया!’’
इस पर टिप्पणी की एक देहाती सज्जन ने - ’’अरे खुलहूँ के बाद का गारंटी कि पहुँच ही जाई राँची? पचीस-पचास माइल जाके चक्का पंचर हो जाई, आउर तब कह दीहें कि जैक काम नइखे करत - दोसरा बस धरीं। एही तो बा हाल!’’
तभी बगल में खड़ी एक बस ख़ुल गयी। नारियल की गिरी बेचनेवाला लड़का बस के साथ-साथ झपटने लगा अपने ग्राहक से पैसे लेने के लिए। मूँगफलीवाले ने भी अपने
ग्राहक से पहले पैसे लिये और तब तराज़ू की मूँगफली उड़ेली उसके रुमाल में। जो चल पड़ा, उसका क्या भरोसा?
यात्रियों की कोफ़्त और बढ़ गयी।
’’अरे, ई खोल काहे नहीं रहा है? देखिए जरा, ऊ बिहार के गाड़ी ठीक सवा आठ बजे खुल गया। ... मोसाफिर, डेराइवर, कंडक्टर, सब हाजिरे हैं, तब अबेर काहे कर रहा है अभागा सब?’’ एक तीसरे सज्जन की खीझ फूटी। बिहार शरीफ़ के यात्रियों के सौभाग्य से उन्हें ईर्ष्या
हो रही थी।
इसी समय अख़बार बेचनेवाला एक लड़का ’’इंडियन नेशन, सर्चलाइट, आयावर्त’’ की हाँक लगाता, मुसाफ़िरों को आशापूर्ण दृष्टि से ताकता, खिड़कियों के पास से गुज़रने लगा। पर लोगों का ध्यान न तो उसकी ओर था और न पास
की पान-सिगरेट की दुकान की चहल-पहल की ओर। सब बेज़ार थे अपने ही हाल पर।
अब तक मिस्त्री-टाइप एक यात्री को तीसरे सज्जन के सवाल का
जवाब सूझ गया था, ज़रा तैश में ही बोले - ’’अरे, तब ओभरटैम कइसे बनेगा, हम न चीन्हते हैं इनका नस-नस!’’
खिड़की के पास ही बैठे थे एक भारी-भरकम सज्जन। शायद
सिपाही थे पुलिस महकमे में - सादी पोशाक में जा रहे थे कहीं। ओवरटाइम के
नाम से जैसे ख़ून ख़ौल गया उनका, चिल्ला पड़े - ’’ए हो कंडट्टर साहब! मटरगस्ती का कर रहे हैं आप लोग? खोलते काहे नहीं? हम लोग का अबेर हो रहा है आउर आप लोग का ओभरटाइमे नहीं पूरा हो रहा है?’’
कंडक्टर ने मुड़ कर सिपाहीजी को देखा, फिर जैसे उनके डीलडौल से प्रभावित हो गया हो, नम्रतापूर्वक बोला - ’’बस, पाँच मिनिट!’’
’’पाँच मिनिट? अरे, अब काहे का पाँच मिनिट? केतना अबेर तो पहिले ही हो गया!’’ सिपाहीजी ने कुपित स्वर में कहा।
’’टेलीफोन आया है। एगो रिजब पसिंजर आ रहे हैं। बड़का आदमी हैं।’’
’’बड़का अदमी? हुँह! बड़का अदमी कहीं बऽस में चलता है?’’
’’अरे भाई, लीडर हैं लीडर। पहिले एमेले भी थे। नहीं रोकेंगे, त जानते हैं न, नौकरिये खा जाएगा। एही सबका न राज है?’’ कंडक्टर ने अपनी लाचारी बता दी।
’’हुँह, ई सुराज का हुआ ... ’’ सिपाहीजी मन मसोस कर रह गये।
’’अइसने-अइसने लोग का हाथ में न राजकाज है! बिलरा के भागे सिकहर टूट गया है - चाहे जेतना खा, जेतना जियान कऽरऽ।’’ - किसी ने टिप्पणी की।
’’अरे, त इजतो न ओइसा ही मिल रहा है। चारों तरफ थू-थू! नेता तो रहे गाँधी बाबा, जँवाहिरलाल, रजिन्नर बाबू - अपना जान चला जाए त चला जाए, बाकि दोसरा किसी को नोक्सान न पहुँचे। अब है ठीक उल्टा - सबका जान चला जाए त चला जाए, अपना नोक्सान न होय। जा ससुर, मऽरऽ सब। जनतो ठेंगो बराबर नहीं पूछेगा।’’ एक वृद्ध सज्जन ने अपना मन्तव्य प्रकट किया।
तभी दो व्यक्ति बस में दाख़िल हुए। उनमें से एक ने खद्दर की धोती, कुर्ता और खादी सिल्क की बंडी पहन रखी थी। सिर ख़ाली था। उम्र होगी यही कोई पैंतीस साल। यही नेताजी थे। वे जाकर अपनी रिज़र्व सीट पर बैठ गये। दूसरे सज्जन पहनावे से देहाती दीखते थे और शरीर से कसरती पहलवान। हाथ में एक एयरबैग था, जो निश्चय ही नेताजी का था। पीछे-पीछे चल कर उन्होंने बैग नेताजी की सीट के नीचे रख दिया, फिर बोले - ’’अभी पान लेते आते हैं। सिगरेटो लावेंगे न?’’
’’हाँ, एक पैकेट कैप्सटन ले लीजिएगा।’’
अब तक ड्राइवर अपनी सीट पर बैठ चुका था, कंडक्टर भी गाड़ी में आ गया था। हम सोचने लगे थे कि गाड़ी अब चलेगी। पर तभी पहलवानजी का आदेश हुआ ’’डरेबर साहेब, तनी रुकिएगा पाँच मिनिट। अब्भी आते हैं।’’ और मस्ताना अंदाज़ से वे गाड़ी से बाहर चले गये।
कोफ़्त तो सबको हो रही थी, पर करते क्या? जहाँ सेर, वहाँ सवा सेर - पाँच मिनट और सही! पहलवानजी पूरे आठ मिनट बाद पान की दुकान से लौटे और खिड़की से ही नेताजी को पान-सिगरेट देने लगे। हमारी तरह कंडक्टर ने भी समझा कि सिर्फ़ नेताजी ही जाएँगे - पहलवानजी उन्हें छोड़ने-भर आये हैं। अतः उसने पूछ लिया - ’’अब बढ़ावें गाड़ी?’’
पहलवानजी को गु़स्सा आ गया, आँखें तरेर कर बोले - ’’आउर हम का जाएँगे पैदले? दु मिनिट थमा नहीं जाता?’’
कंडक्टर बेचारा चुप।
पहलवानजी पुनः पान की दुकान तक गये और पीली पत्ती ज़र्दा लेकर तीन-चार मिनट में लौट आये। गाड़ी में घुसते-घुसते उन्होंने कंडक्टर को हुक़्म दिया - ’’हाँ, खोलो अब।’’
हरी झंडी मिल गयी, तो ड्राइवर ने इंजन को गुड़गुड़ाना शुरू किया और पहलवानजी नेताजी की बगल में जा विराजे।
बस ख़ुलते ही यात्रियों ने अपने-अपने बगलवालों को छेड़ना शुरू किया रास्ते को आसान बनाने के लिए। मेरे बगलवाले युवक ने भी मुझे कुरेदा - ’’कहाँ जाएँगे आप?’’
’’राँची।’’
’’राँची कितने बजे पहुँचेगी बस?’’
’’पता नहीं, वैसे पाँच बजे पहुँचना चाहिए।’’
’’आप पटने रहते हैं?’’
’’हाँ।’’
’’क्या करते हैं?’’
’’अभी तो बेकार हूँ।’’
’’ओ, समझ गया। आप नौकरी खोजने जा रहे हैं राँची। अगर हैवी इंजीनियरिंग में काम हो, तो बताइएगा। हमारे बहनोई हैं वहाँ। वो तो कह रहे थे, बेकार एम. ए. पढ़ कर क्या करोगे - चलो, नौकरी दिला दें। बाकी हम बोले - अभी नहीं। उनका पता दे दें आपको?’’
मैंने उन्हें बताया कि मैं नौकरी ढूँढ़ने नहीं, अपने एक रिश्तेदार के यहाँ जा रहा था किसी और काम से। बेचारे निराश हो गये। कुछ देर बाद मेरे हाथ की पुस्तक की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोले - ’’कौन किताब है?’’
मैंने पुस्तक उनकी ओर बढ़ा दी और वे उसे ख़ोल कर देखने लगे।
मेरे पीछे की सीट पर बैठे सिपाहीजी अपने बगलवाले देहाती सज्जन को राजनीति की गुत्थियाँ समझा रहे थे - ’’हमको तो सब लिडरवन से न पाला पड़ता है! सबका दिल का हाल मालूम है हमको। राजा साहेब सास्त्रीजी के सरकार काहे तोड़वा दिये? अरे भाई, खानदानी राजा के राजनीति बतावेगा मामूली अदमी? राज चलता है साम, दाम, दंड आउर भेद से। एही बात बोलिन राजा साहेब। मगर सास्त्रीजी सीधा अदमी, बोलिन - नहीं भेद-उद नहीं चलेगा हमसे। चुपका-चोरी हम किसी को कुछ नहीं देंगे। सरकार रहे चाहे जाए। तब राजा साहेब भी बोल दिहिन कि तब हम नहीं जानें कुछ - हम लोग का पाटी से कइएक ठो अदमी को फोड़ लिया है काँग्रेस। अब जइसा आप ठीक समझें, करिए। हमको दोस मत दीजिएगा। ई भितरिया बात बता रहे हैं आपको। अखबार में तो अटर-पटर छापबे करता है सब - घाव कहीं, पौ कहीं। एही से न हम कहते हैं - राजपाट करना होय त राजबंस को लाइए आगे। काम तभी चल सकता है। ... ’’
बस में एक-एक कतार में पाँच-पाँच सीटें थीं - एक दो सीटर और एक तीन सीटर। दोनों के बीच से पैसेज था। हमारी बगलवाली तीन-सीटर पर बैठे थे एक नौजवान और दो ग्रामीण। नौजवान खिड़की की बगल में बैठा काला चश्मा पहने एक फ़िल्मी पत्रिका पढ़ने में लीन था। बाक़ी दोनों ग्रामीण अपने मुखिया की मनमानी की निन्दा कर रहे थे। पढ़ा-लिखा जान कर गाँववालों ने एक नौजवान को उसके बाप की मृत्यु होने पर मुखिया बना दिया था। पर वह बढ़ाबढ़ी कर रहा था। गाँव में नाली बनवाने के लिए उसने गाँववालों पर चन्दा बैठा दिया था, इसलिए इन लोगों ने भी तय कर लिया था कि फिर कभी उसे मुखिया नहीं बनाएँगे। गाँव के दूसरे लोगों का भी, उनके कथनानुसार, यही विचार था। सरकार का काम सरकार करे और जनता का काम जनता - वे इस बात के कायल थे। सड़क और नाली बनवाना सरकार का काम था, न कि जनता का। जनता के पास इतने पैसे कहाँ कि इन बेकार के कामों पर ख़र्च करे और सरकार हाथ पर हाथ रख कर तमाशा देखे। उनके विचार में, ऐसे ही कामों से सरकार को शह मिल रही थी।
अचानक एक वाक्य पूरी बस में गूँज गया - ’’हम भी उस साले को बता देंगे। समझा क्या है उसने हमको?’’ मिस्त्रीजी ने आवेश में आकर अपना यह वाक्य सर्वव्यापी बना दिया था। सबकी आँखें उनकी ओर उठ गयीं, तो बेचारे सकपका गये - उनका स्वर धीमा पड़ गया।
मेरे सामने की सीटों पर थे नेताजी और पहलवानजी और उनसे आगे की सीटों पर बुशशर्ट पहने एक गम्भीर युवक तथा सहमा-सहमा-सा एक मैला-कुचैला ग्रामीण युवक। बुशशर्टवाले सज्जन के हाथ में एक पुस्तक ख़ुली थी। बातचीत में वे भी लगभग मेरी ही तरह थे। उनकी भी आवाज़ अब तक किसी ने न सुनी थी। पैसेज के दूसरी ओर की तीन-सीटरों में से प्रथम दो महिलाओं के लिए सुरक्षित थीं। पर चूँकि महिलाओं की संख्या केवल चार थी, इसलिए दूसरी तीन-सीटर की महिला के साथ दो देहाती युवक भी बैठ गये थे।
अख़बार पढ़ते-पढ़ते नेताजी अचानक बोल पड़े - ’’यह सरकार टूट गयी, अच्छा ही हुआ।’’
’’का कहते हैं, हुजूर? ई तो अप्पने सरकार थी - युनैटेड फ्रंट की!’’ पहलवानजी विस्मय से भर उठे थे।
’’हाँ, सरकार तो अपनी ही थी। पर बात अब बनेगी।’’ नेताजी ने गुरूगम्भीर स्वर में उत्तर दिया।
’’ई कइसे, हजूर? अब तो कँग्रेसिया सरकार बनेगी। आप का काँग्रेस में जा रहे हैं?’’ पहलवानजी नेताजी का मुँह देखने लगे।
’’नहीं जी, उसमें क्यों जाऊँगा? मैं क्या कोई डिफ़ेक्टर हूँ? छोड़ दिया, तो छोड़ दिया - अब क्या जाना उसमें?’’
’’ओही तो। हम सोचे कि कहीं आप सोचते हों कि काँग्रेस के टिकट पर खड़ा हुए थे, त जीत गये आउर युनैटेड फ्रंट में हार गये। इसीलिए ... ’’
’’अरे नहीं भाई, हार-जीत तो लगी ही रहती है। उससे कौन घबड़ाता है?’’
’’त फिन कँग्रेसिया सरकार बने से काम कइसे बनेगा?’’
’’अरे, अब कोई सरकार नहीं बनेगी यहाँ। अब होगा प्रेसिडेण्ट रूल। उसके बाद होगा नया चुनाव। ... इस बार मैंने सोचा है कि आपके इलाक़े से ही खड़ा होऊँगा। वोट मिल जाएगा न आपके यहाँ?’’ नेताजी की दृष्टि पहलवानजी के चेहरे पर टिक गयी।
’’भला पूछा आपने भी! मिलेगा काहे नहीं? आउर नहीं मिलेगा, त हम न दिलावेंगे डंटा के जोर से। ... बाकी एक बात है। ... अगर ई काम बन जाए, त सब काम फटाफट हो जाए!’’
’’कौन काम?’’
’’एही, बी. डी. ओ. वाला! ई सारे को हटवा दीजिए न, त पाँचों घीऊ में। चीनी, राशन, लोन, सब्भे में कानून बतियाता है। अब बताया न आपको! रामासीस बाबू एतना बड़ा किसान! उनको बेइज्जत कर दिया लोन-ओसूली में! खोल ले आया बछड़ा! एक हजार रुपइया के खातिर ई बेइज्जती? रामासीसो बाबू कसम खा लिहिन हैं कि हटवा के रहेंगे पाजी के! बाकी एस. डी. ओ. न हाथ रखे हुए है उसका पीठ पर! कहता है, बी. डी. ओ. जो कुछ किया, ठीक किया!’’
’’ऐं? क्या कहता है? ठीक किया? कौन है एस. डी. ओ.?’’ नेताजी की भृकुटी तन गयी।
’’नया-नया आया है। लौंडा तो हइए है। रामासीस बाबू कहते थे कि आइएस है। किसी को पुट्ठे पर हाथे नहीं धरने देता है। रामासीस बाबू को भी भगा दिया। उस पर भी खार खाये बैठे हैं रामासीस बाबू। एही से न कहते हैं कि रामासीस बाबू खुस हो जाएँ, त कउन बात के कमी? रुपइयो देंगे आउर भोटो दिलावेंगे। दस-बीस हजार उनके लिए कुछ है भला?’’
’’आप निश्चिन्त रहिए। वोट न भी मिले, तो यह काम तो हमें करना ही है। ये अफ़सर, पता नहीं, क्या समझते हैं अपने-आपको! दिमाग़ हमेशा आसमान पर ही रहता है। चार टके के नौकर और लाख रुपये के आदमी की इज़्ज़त उतार लें? यह भी कोई बात हुई? बी. डी. ओ. को तो मैं बदलवा ही दूँगा, और ज़रूरत हुई तो एस. डी. ओ. को भी। फ़िक्र न कीजिए।’’ - नेताजी ने पहलवानजी को आश्वासन दिया।
’’त फिर अपना जय समझ लीजिए। हम भी आपको वादा करते हैं, आप जरूर जीतिएगा।’’
नेताजी का उत्साहवर्द्धन हुआ, बोले - ’’देखिए न अभी। सीधे ब्लाक ही चलूँगा आपके साथ। जहाँ आँय-टाँय की कि रिपोर्ट भी कर दूँगा और ख़बर भी छपवा दूँगा अख़बारों में। सारी बी. डी. ओ. गीरी धरी रह जाएगी। मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं।’’
’’एही उम्मीद से तो हम आये थे आपके पास। हमको पूरा भरोसा था।’’ - पहलवानजी एक पल रुके, फिर बोले - ’’आज रात को लेकिन लौटना नहीं पड़ेगा आपको। रामासीस बाबू के हियाँ सब परबन्ध है।’’
’’यह ठहरने की ज़िद, भाई, छोड़िए। बहुत काम है मुझे। समझे?’’
’’अब देखिए, इतना बिनती तो मान ही लीजिए हमारी। काम रात-भर नहिंए होगा, त ऐसा का नोक्सान हो जाएगा? कउन रोज-रोज आना होता है आपका!’’ पहलवानजी इस तरह बोल रहे थे, जैसे अखाड़े में चारों खाने चित पड़े हों!
’’अच्छा भाई, जैसा आप कहें। आपकी राय के ख़िलाफ़ थोड़े ही जा सकता हूँ।’’ नेताजी ने पहलवानजी को मानो अभयदान दे दिया।
इसी समय बस के पचासों यात्रियों का ध्यान उस अपटुडेटा महिला की ओर खिंच गया, जो बैठी तो लेडीज़ सीट पर थी, पर जिसके साथ दो देहाती भी बैठ गये थे। वह महिला एक-ब-एक तेज़ आवाज़ में बोल पड़ी थी - ’’इधर सटे क्या आ रहे हो तब से? एक तो लेडीज़ सीट पर आकर बैठे हैं, ऊपर से खिसकते आ रहे हैं। चलो, हटो अलग!’’
महिला की बगल में बैठा व्यक्ति यही कोई तीस वर्ष का होगा, निहायत गँवार-सा। दबे स्वर में उसने प्रतिवाद किया - ’’हम कहाँ खिसक रहे हैं! ओइसे बसवा चलता है, त तनी-मनी त इधर-उधर हिल-डोल हो ही जाता है।’’
’’उठो, उठो फिर यहाँ से! हिलो-डुलो खड़े होकर! ऐ ... ऐ कंडक्टर साहब, उठाइए इसको यहाँ से। तब से पैर से पैर टकरा रहा था। अब खिसकता आ रहा है। मैं खिड़की में चिपकती जा रही हूँ और यह दबाता चला आ रहा है।’’ महिला क्रुद्ध नागिन की तरह फुफकार रही थी।
कंडक्टर पहुँचा वहाँ, बोला - ’’काहे जी, भला आदमी के तरह बैठने में तकलीफ होता है? चलिए, उठिए, खड़े हो जाइए। छोड़िए लेडीज़ सीट!’’
’’देखे में तो बेचारा सीधा-साधा लगते हैं, आउर करतब ई?’’ - एक यात्री ने चुटकी ली!
’’जाड़ा के दिन होय, त कोई बातो होय। ई ऊमस में किसको सोहाता है देह में देह लगना!’’ - एक दूसरे मनचले ने फ़ब्ती कसी।
’’अरे, उठ न जाऽ, कि अभी गरमइए चाहीं?’’ - एक तीसरे यात्री ने व्यंग्य किया।
महिला बेचारी चुप। क्या बोले? चुटकी ली जा रही थी उस देहाती से और चोट पड़ रही थी उस पर। किस-किसका प्रतिवाद करती वह!
देहाती यात्री खड़ा होते-होते बोला - ’’त खड़े-खड़े जाएँगे पूरा रस्ता?’’
’’करनीए अइसा करते हैं, त का करे कोई?’’ - कंडक्टर ने जवाब दिया।
’’एक काम न हो सके?’’ - अपनी बगलवाले यात्री की ओर इशारा करते हुए देहाती बोला - ’’ई हमरे जगह बइठ जाएँ आउर हम इनके जगह। ई त भला आदमी होंगे न?’’
’’अच्छा, चलिए, एही कीजिए!’’ कंडक्टर ने कहा और दोनों यात्रियों ने परस्पर स्थान-परिवर्तन कर लिया।
तभी बस रुक गयी। आगे कई ट्रक, बसें और कारें खड़ी थीं। बिहार शरीफ़ वाली गाड़ी के पीछे हमारी बस खड़ी हो गयी।
’’लेओ, पकड़ा गया ई भी। बड़ी जल्दी-जल्दी भागा था!’’ एक यात्री ने ख़ुश होते हुए कहा।
तभी पहलवानजी ने सवाल किया - ’’का हुआ, डरेबर साहेब?’’
’’रस्ता पर पेड़ गिरा है!’’ उत्तर मिला।
’’ऐं, पेड़ गिरा है? तब हो गया राँची आउर हजारीबाग। अब बैठिए पाँच घंटा!’’ एक यात्री बोले।
दूसरा बोला - ’’हम बोलले न रहीं, ई राज ट्रांसपोट के कउनो भरोसा बा?’’
’’अब का जानी कब कटी पेड़!’’ तीसरा यात्री।
’’लगता है, राते के अँधिया में गिरा है।’’ चौथा यात्री।
’’देखें जरा, का हाल है!’’ बोल कर सिपाहीजी बस से उतरने लगे। उनसे पहले ड्राइवर और पाँच-छः यात्री उतर कर परिस्थिति का जायज़ा लेने जा चुके थे। सिपाहीजी के पीछे-पीछे चार-पाँच और यात्री उतर गये। बुशशर्टवाले नौजवान भी उतर गये उनके साथ। बाक़ी लोग इंतज़ार करने लगे उनके लौट कर आने और रिपोर्ट देने का।
नेताजी और पहलवानजी का वार्तालाप पुनः आरम्भ हो गया।
पहलवानजी ने कहा - ’’हमको ई सुबहा पहिले से ही था। दस-दस गो पाटी मिलके सरकार कइसे चलावेगा?’’
’’नहीं, उसमें कोई बात नहीं है।’’ - नेताजी ने प्रतिवाद किया - ’’सब मिल कर अपना एक कार्यक्रम तैयार कर लेते हैं और उसी को काम में लाते हैं। इसलिए दस तो क्या, पचास पार्टियाँ भी मिल कर सरकार चला सकती हैं।’’
’’सिधान्त तो ठीके है ई। बाकी ... अब देखिए न, ई परजा सोसलिस्ट, एस. एस. पी., सोसित दल, क्रान्ति दल, काँग्रेस, ई सब एक्के न थे पहिले। ओइसहीं कमुनिस्टवा सब भी, सुना है, दु-तीन पाटी बना के बैठा है। ई लोग एगो कार्जकरम बनाके आपसे में मेल काहे नहीं करता है? अगर ई मेल नहीं हो सकता, त सरकार कइसे मेल से चलावेगा? है कि नहीं बात?’’ - पहलवानजी ने अपनी शंका को स्पष्ट किया।
’’बात आपकी ठीक है। लेकिन जानते हैं न, हर जगह कुछ बुरे आदमी हैं, जो मेल नहीं होने देते।’’ - नेताजी बोले।
’’त सरकारो में तो ऊ खराब अदमी सब आता ही है न? ऊ कइसे मिलके राज चलाने देगा?’’
’’दल की बात अलग है और सरकार की अलग। बहुत फ़र्क है दोनों में। आप नहीं समझेंगे।’’ - नेताजी ने बात टालने की चेष्टा की।
’’थोड़ा-बहुत तो समझ में आता है। जइसे सरकार में आमदनी का जरिया है। त उसको तो जल्दी नहीं तोड़ना चाहेगा खरबको अदमी। काहे कि फिन डर रहेगा कि दूसरा पाटीवाला सब सरकार बनाके पइसा बटोरने लगेगा। बाकी सुभाव जल्दी बदलता है? रुपइए लेके लड़ने लगेगा आपस में - ऊ जादे कमा रहा है, हम कम कमा रहे हैं। है कि नहीं?’’
’’बात आपकी ठीक है कुछ हद तक!’’ - नेताजी को मानना पड़ा।
तभी दो सज्जन घटनास्थल का निरीक्षण कर लौटते दिखाई पड़े। अभी वे दूर ही थे कि बस से एक सज्जन चिल्लाये - ’’का हाल है, भाईजी?’’
’’अभी एकाध घंटा लगेगा। गाँववाला सब काट रहा है। सड़क के ठीक बीचोबीच दूठो ठूँठ पेड़ गिर गया है। उधरो आठ-दस गो ट्रक आउर बस खड़ा है दू घंटा से।’’ - जवाब मिला।
’’काट रहा है न? तब कट ही जाएगा आध-पौन घंटे में।’’ नेताजी ने अपनी राय ज़ाहिर की।
’’पेड़वा गिरा कब?’’ - एक यात्री ने प्रश्न किया।
’’भोरे छौ बजे के करीब।’’
’’त छौ बजे से कोई काटा नहीं? पी. डब्लू. डी. वालों को खबर नहीं दिया होगा। एही बाते है।’’
’’खबर देने से भी का तुरन्ते आके काटता है? ऊ लोग आवेगा साँझ तक।’’
’’फतुहाँ पार कर गये हैं न?’’
’’हाँ, तीन-चार माइल आगे निकल आये हैं।’’
’’चलिए, कट ही रहा है, तब का परवाह?’’
इसी वक्त एक अन्य सज्जन लौटे यह घोषणा लेकर - ’’गाँववालों से कटे-उटेगा नहीं। पी. डब्लू. डी. को खबर करना जरूरी है।’’
’’त पटना न खबर करना होगा! कइसे होगा खबर?’’
’’काहे? कोई अदमी फतुहाँ जाके टेलीफोन कर दे।’’
’’फतुहाँ कोई नजीका है? चार-पाँच माइल जाएगा कौन?’’
’’एहू ठीके कहते हैं। फिर ई बात भी है कि उधर गये और इधर पेड़ कट गया, तब? तब तो छूट न जाएँगे?’’
’’आउर टेलीफोन कर देने से ऊ लोग कउन बड़ा तुरंते दौड़े चले आवेंगे? है कि नहीं?’’
’’ठीके कहते हैं बाबू साहेब!’’ - किसी ने बात की ताईद की - ’’जाने दीजिए, अपने आवेगा सब। खबर तो मिलबे करेगा ऊ सबको कोई-न-कोई तरह।’’
’’तब चार-पाँच घंटा बइठना न पड़ेगा?’’
’’त का किया जाए? कोई उपाय है?’’
अब मुझसे न रहा गया। मन में भय समाया कि कहीं पाँच-छः घंटे की देर हुई, तो रात एक-दो बजे राँची पहुँचूँगा। एक बार रास्ते में बस ख़राब हो गयी थी, तब तीन बजे रात में राँची पहुँचा था। सो, घटनास्थल पर जाकर स्थिति का निरीक्षण करने और कोई उपाय ढूँढ़ने के ख़याल से मैं बस से उतर पड़ा।
कोई एक फर्लांग की दूरी पर दो ठूँठ पेड़ सड़क के आर-पार लेटे थे और आठ-दस ग्रामीण उन पर चढ़े कुल्हाड़े से सूखी लकड़ियाँ काट रहे थे। इधर-उधर दो-दो तीन-तीन के झुंड में तीस-पैंतीस यात्री, ड्राइवर, कंडक्टर खड़े कानाफूसी कर रहे थे।
मैंने अलग खड़े एक व्यक्ति से कहा - ’’ये लोग पेड़ कहाँ काट रहे हैं? ये तो किनारे-किनारे की सूखी लकड़ी काट रहे हैं जलावन के लिए।’’
उत्तर मिला - ’’इन दरख्तों को काट कर रास्ते से हटाने का दो सौ रुपये माँगते हैं, कहते हैं - इतने ट्रकवाले हैं, यात्री हैं, दो सौ रुपये जमा करना कौन मुश्किल है!’’
तभी मुझे बुशशर्टवाले युवक दिखाई पड़ गये। वे दोनों वृक्षों की बारम्बार परिक्रमा करके उनका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन कर रहे थे। मैं उनके पास पहुँचा, तो स्वगत भाव से बोले - ’’हटाया क्यों नहीं जा सकता? सूखे पेड़ हैं। पचास-साठ आदमी लग जाएँ, तो ...’’
’’हाँ, एक ओर से ठेल कर इन्हें किनारे किया जा सकता है।’’ उनका समर्थन करते हुए मैंने पास ही खड़े दो-तीन ग्रामीणों को पुकारा - ’’ज़रा सुनिएगा, भाईजी।’’
वे पास आ गये, तो मैं बोला - ’’हम लोग इसे ठेल कर एक ओर क्यों न कर दें? घंटों बैठने से तो यही अच्छा होगा कि पचीस-पचास आदमी मिल कर इन्हें पार लगा दें।’’
’’बहुत भारी है। टस-से-मस नहीं होगा।’’ - एक ग्रामीण ने कहा।
दूसरा बोला - ’’ई कोई हम लोग का काम है? आवे अपना पी. डब्लू. डी. वाला!’’
बुशशर्टवाले सज्जन बोले - ’’लेकिन देर तो हम लोगों को ही हो रही है। पी. डब्लू. डी. वालों को क्या जल्दी पड़ी है? फिर, उन्हें ख़बर भी दी गयी है या नहीं, कौन जाने?’’
’’हाँ भाई, नुक्सान तो हम लोगों का ही हो रहा है!’’ - मैंने कहा।
’’अब होय नोक्सान त होय। हम का करें? ई सरकार के कोई काम जे ठीक होय। सत्यानास कर दिया।’’ और तीनों अलग हट गये।
वे बोले - ’’देख रहे हैं न हाल?’’
’’हद है ज़हालत की!’’ - मैंने कहा - ’’चलिए, अपनी बस के यात्रियों को आज़माएँ। मेरा ख़याल है, पचीस-तीस आदमी भी लग जाएँ, तो काम हो जाएगा।’’
’’चलिए, देख लें उन्हें भी।’’ - उन्होंने कहा और हम अपनी बस की ओर बढ़े।
वहाँ पहुँचते ही प्रश्न हुआ - ’’अब केतना देरी है?’’
’’जितनी पहले थी। पेड़ों को कहाँ कोई काट रहा है? वे तो जलावन की लकड़ी निकाल रहे हैं एक सिरे से!’’ - बुशशर्टवाले ने जवाब दिया।
’’ऐं? पेड़ नहीं कट रहा है?’’ - नेताजी चौंके - ’’हम आधे घंटे से सोच रहे हैं कि पेड़ कट रहा है और वह कट ही नहीं रहा है? सब कमीने हो गये! ... कौन ब्लॉक पड़ेगा जी?’’ उन्होंने पहलवानजी से पूछा।
’’ई तो फतुहें ब्लौक होगा।’’
’’हुँ, ये बी. डी. ओ. सब जगह एक-से हैं। हम लोग यहाँ फँसे हैं और ... कोई फ़िक्र थोड़े है जनता की!’’ - वे एक पल को रुके, फिर पहलवानजी से बोले - ’’देखिए, एक काम कीजिए आप। ... ज़रा चले जाइए फतुहा और बी. डी. ओ. को हाल दीजिए, कहिए कि मैंने बुलाया है!’’
यह क्या बला आ गयी सिर पर? पहलवानजी घबड़ाये, बोले - ’’आउर कहीं बी. डी. ओ. न होय, त?’’
’’हुँ, नहीं हो, तो ... नहीं हो, तो एस. डी. ओ. को कहिए - आध घंटे के अन्दर सड़क साफ़ होनी चाहिए।’’ पूरे अधिकार के साथ नेताजी ने हुक़्म जारी किया।
’’लेकिन एस. डी. ओ. तो पटना में होगा। सदर में न पड़ेगा फतुहाँ!’’
पहलवानजी के उत्तर से नेताजी ठंडे पड़ गये, बोले - ’’उँह, बड़ी मुश्किल है। सब साले दौरा बनाने के चक्कर में रहते हैं। काम-धाम साढ़े बाइस और टी. ए. बिल ढेर-का-ढेर!’’
’’हम लोगों का एक सुझाव था!’’ - बुशशर्टवाले सज्जन ने सहमते-सहमते कहा - ’’अगर हम कुछ नौजवान हिम्मत करें, तो पेड़ रास्ते से हट सकते हैं!’’
’’हट जाएगा?’’ - नेताजी उछल पड़े - ’’तब फिर सोच क्या रहे हैं? लगा दीजिए हाथ! हिम्मते मर्दा ... ’’
’’फिर, चलिए न!’’ - मैंने कहा।
’’ऐं? का बोले? ई जाएँगे पेड़ ठेलने? चीन्हते नहीं हैं इनको? कह दिया, चलिएऽ न!’’ - पहलवानजी ने अपनी भूमिका निभायी।
’’नहीं, मैं चल कर खड़ा हो जाता हूँ वहाँ। जनसेवा तो काम ही है हमारा!’’ - नेताजी अपनी सीट से उठते हुए बोले।
’’ओह, तब पेड़ जरूर हट जाएगा। आऽप खड़े हो जाएँगे, तब फिर का बात है? सब हाथ लगा देंगे।’’ पहलवानजी भी उठ खड़े हुए। अब उन्होंने बस में बैठे सब यात्रियों को आदेश दिया - ’’चलिए-चलिए, उठिए सब लोऽग! देखते नहीं, केत्ता बड़ा काम होने जा रहा है? दस घंटा बैठिएगा, इससे अच्छा न होगा कि पाँच मिनिट में रस्ता साफ हो जाएगा। ... अरे, बइठे का हैं? उठिए न। चलिए सब।’’
और मारे भय के या देखादेखी, बस में बैठे सभी पुरुष उठ खड़े हुए।
अब आगे-आगे नेताजी और पहलवानजी, और पीछे-पीछे हम लगभग पच्चीस आदमी। जुलूस चल पड़ा धर्मक्षेत्र की ओर।
वहाँ पहुँच कर हमने एक पेड़ को एक सिरे से ठेलना शुरू किया। बुशशर्टवाले सज्जन मेरी बगल में ही पूरी ताक़त से पेड़ को ठेल रहे थे। धीरे-धीरे पेड़ खिसकने लगा। देखा-देखी तीस-चालीस और लोगों ने भी हाथ लगा दिया। सामने खड़े नेताजी और पहलवानजी के चेहरों पर प्रसन्नता नाच रही थी। यह या तो नेताजी की उपस्थिति का फल था या हम साठ-पैंसठ लोगों के परिश्रम का - पेड़ का तना इस तरह फिसलने लगा जैसे पानी में नाव।
कोई पाँच-छः मिनट में तना एक किनारे हो गया, तो हम दो पल साँस लेने को खड़े हो गये। बुशशर्टवाले सज्जन ने अपने माथे का पसीना पोंछते-पोंछते मुझ पर एक मुस्कुराती नज़र डाली। मैंने कहा - इस विजय का सेहरा आपके सिर!’’ उन्होंने अपने मुँह पर एक उँगली रख तुरंत कहा - ’’श् श् श् श् ... नेताजी पास ही खड़े हैं।’’ मेरे अधरों पर भी व्यंग्य की एक मुस्कान खेल गयी।
दूसरा तना उतना भारी न था। तीन-चार मिनट में ही किनारे लग गया और तब पहलवानजी ने पूरा गला फाड़ कर नारा दिया - ’’नेताजी की ... ’’ लेकिन कृतघ्न लोग! ’जय’ किसी ने न कही। सब अपने-अपने कपड़े झाड़ने में लगे रहे। नेताजी और पहलवानजी के चेहरों पर तनिक मायूसी छा गयी। वे बस की ओर चल पड़े।
यात्रा पुनः आरम्भ हुई, तो लोगों की वार्ता का क्रम चालू हो गया।
पहलवानजी नेताजी से बोले - ’’अगर आप न होते, तो यह काम होनेवाला नहीं था।’’
नेताजी ने केवल मुस्करा दिया।
’’बाकी एक कसर रह गया।’’ - पहलवानजी ने बड़ी संजीदगी से कहा - ’’अगर कोई फोटोवाला होता, त आपसे भी हाथ लगवा के एगो फोटो खिंचवा लेते। है कि नहीं?’’
’’अब जो हो गया, सो हो गया।’’ - नेताजी बोले।
’’हाँ, सो तो हइए है।’’ पहलवानजी दो पल कुछ सोचते रहे, फिर बोले - ’’ऊ बुशशर्टवाला। लगता है, उसको कहीं देखा है। ठीक इयाद नहीं पड़ रहा है। ... लेकिन बच्चा के पता चल गया पेड़ ठेलने में! ... उज्जर दपादप बुशशर्ट के का हाल हो गया पसेना से! जइसे मजूरी कर के आ रहा होय!’’
नेताजी फिर मुस्करा दिये।
उधर सिपाहीजी बोल रहे थे - ’’भारी कम नहीं था। बाकी हमहुँ बोले कि देख लेंगे सारे को। ई देह में तेल पिलाया है कउन दिन के लिए। ... अरे, जब हम अखाड़ा में उतरते थे, त बड़ा-बड़ा पहलवान को पसीना छूट जाता था। ऊ जब अड़ा न ऊ घड़ी, त राम कसम, का बताएँ, अइसा झटका मारा हम कि हमको तो लगा कि हमारा पखुड़े उखड़ जाएगा, बाकी देखा कि पेड़वे सरिक गया आठ इंची।’’
मिस्त्रीजी का कथन कुछ और था - ’’अरे, अइसन-अइसन पेड़ को हम समझते ही क्या हैं? एक दफे अइसा हुआ कि एगो टैक्सी में जा रहे थे। बस, पता नहीं, का हुआ कि एगो ताड़ के पेड़ ठीक बोनेटवे पर गिर गया चलती टैक्सी के!’’
’’ऐं, बोनेटवे पर गिर गया? ओही आगेवाला नकवा न जी?’’
’’हाँ जी, ओही बोनेटवे पर।’’
’’ई जरूर कोई बान मारा होगा। एक-से-एक ओझा-गुनी अबहियों हैं ई देस में। अब हम आपको का बतावें? एक दफे एगो इस्कूली लड़का जा रहा था पढ़ने। बस, एक-ब-एक्के रस्ता में गिर के घायल पंछी के तरह फड़फड़ाने लगा। मुँह से जे खून के फोहारा चलने गया, त का बतावें, राँची के झरनो सब मात। ... ’’
’’पहिले हमारा बात तो सुन लीजिए।’’ मिस्त्रीजी ने अपने बगलवाले वृद्ध को टोका।
’’रहीं जी, आपका तो सुनेंगे ही। पहिले हमारा ई खिस्सा ... ’’
’’अरे, हम खिस्सा थोड़े ही कह रहे हैं? हम तो आपको सच्चा बात बता रहे हैं ... ’’
’’आउर हम का झूठ बोल रहे हैं? हमहुँ सच्चे ... ’’
’’सच्चे न कपार बोल रहे हैं। राँची के झरना देखबो किया है? मुँह से निकलेगा झरना के तरह खून? ओहू बच्चा के?’’
’’न, ताड़ गिरता है चलती टैक्सी पर! एतने ही था, त बिच्चे में लोक काहे नहीं लिए? नकवा पर गिरने क्यों दिया?’’ वृद्ध के इस कथन के साथ ही ज़ोरों का ठहाका लगा।
’’आप तो खाली बतंगड़ करते हैं ... ’’ मिस्त्रीजी खिसियाए हुए-से बोले।
’’न, तूँ सिखइबऽ हमराऽ। तोहरे आगे न जनमले रहीं!’’ वृद्ध का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था।
’’ना बाबा, हम ई थोड़े बोले ... ’’
उनका यह विवाद कहाँ जाकर ख़त्म हुआ, मुझे नहीं मालूम। मुझे थोड़ी झपकी लग रही थी, सो खिड़की से माथा टिका लिया था मैंने। थकावट थी ही, पलक लग गयी और जब आँखें खुलीं, तो देखा, नेताजी और पहलवानजी नीचे उतर कर खड़े हैं। बुशशर्टवाले सज्जन भी उतरने के लिए बढ़ रहे थे। तभी मेरे एक परिचित अफ़सर बस में दाखिल हुए। बुशशर्टवाले सज्जन पर उनकी जो नज़र पड़ी, तो बड़े जोश से बोले - ’’परनाम सर! पटना से आ रहे हैं?’’
बुशशर्टवाले सज्जन ने जवाब में उन्हें हाथ जोड़े, कहा - ’’हाँ, पटने से ही आ रहा हूँ।’’ और मुझे भी नमस्कार कर वे नीचे उतर गये।
बुशशर्टवाले सज्जन ने मुझे जो नमस्कार किया, तो अफ़सर महोदय की भी दृष्टि मुझ पर पड़ी - ’’अरे, आप कहाँ?’
मैंने उन्हें नेताजीवाली सीट की ओर इशारा करते हुए कहा - ’’ज़रा राँची जा रहा हूँ। आप कहाँ?’’
’’यही, हज़ारीबाग तक। एक सरकारी काम है।’’ वे बैठते-बैठते बोले।
’’आजकल यहीं पोस्टिंग है क्या?’’
’’हाँ, साल-भर हो गया।’’
दो-चार पल बाद मैंने उनसे पूछा - ’’ये जो बुशशर्टवाले सज्जन उतरे, कौन थे?’’
’’उँह, मारिए साले को! नाक में दम कर दिया है!’’ वे झल्ला कर बोले।
’’अच्छा? लेकिन हैं कौन?’’
’’नया एस. डी. ओ. है यहाँ का!’’
’’लेकिन उम्र तो बड़ी कम लगती है!’’
’’हाँ, डाइरेक्ट आइ. ए. एस. रिक्रूट है। ख़ाली कानून छाँटता है। छः महीने में ही नाकों चने चबवा दिये इसने। सब त्राहि-त्राहि कर रहे हैं!’’
’’यह कैसे?’’ - मेरी उत्सुक्ता बेहद बढ़ गयी थी।
’’अरे, अब यही देखिए न, बस में सफ़र करता है। उसी का टी. ए. भी क्लेम करता है। आपने कहीं देखा है एस. डी. ओ. को बस में घूमते? हम लोगों को भी कहता है, यही करो। ग़रीब देश है। अरे, ऐसे ही तो मर रहे हैं। मँहगाई दिन-दिन बढ़ रही है और तनख़्वाह वही पुरानी। टी. ए. डी. ए. के रूल ऐसे बना दिये हैं कि अगर सच्चा क्लेम करने लगें, तो आधी तनख़्वाह उसी में निकल जाए। अब इसने देख लिया न मुझको बस में - टैक्सी का बिल पास नहीं करेगा! एक-एक कर्म हैं इसके?’’
’’तब तो सचमुच बड़ी मुश्क़िल है आपकी?’’ मैंने उनसे सहानुभूति जतायी।
’’सिर्फ यही है? ऑफ़िसों में सरप्राइज़ विज़िट देता है। दस बजे नहीं पहुँचे ऑफ़िस, तो आ गयी शामत! ब्लॉकों में भी ऐसे ही चक्कर मारता फिरेगा। बैठ जाएगा गाँववालों के साथ चटाई पर और उनके दुखड़े सुनेगा। गाँववालों को तो आप जानते ही हैं आजकल। झूठ-सच पचास शिक़ायतें कर डालेंगे अफ़सरों की और यह बस डंडा लेकर पड़ जाएगा उनके पीछे। ... क्या-क्या बताएँ आपको! नया-नया मुल्ला है न, प्याज़ तो ज़्यादा खाएगा ही। ... लेकिन तब हम लोग भी चुप नहीं बैठे हैं। इसको हटवा कर ही छोड़ेंगे हम भी।’’
अब मैं क्या कहूँ उनसे? कुछ कहते न बना मुझसे। पर तभी मेरी अन्तरात्मा ने चुपके से कहा - ’’ये निश्चय ही सफल होंगे अपने उद्देश्य में। नेताजी का साथ इन्हें सफलता दिला कर रहेगा!’’ और, पल-भर में ही अफ़सर महोदय का चेहरा नेताजी के चेहरे में बदल गया। मुझे यह भी लगा कि रामाशीष बाबू का भी चेहरा ऐसा ही कुछ होगा। और, मेरे मुँह से निकल गया - ’’कैसे-कैसे लोग हैं इस दुनिया में।’’
उत्तर में अफ़सर महोदय बोले - ’’वो तो तुलसीदासजी पहले ही बोल गये हैं - जो जस करइ सो तस फल चाखा। जो दूसरों को नहीं सहेगा, उसे दूसरे लोग भी क्यों सहेंगे?’’
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