बुधवार, 31 जुलाई 2024

धर्मपु़त्र - विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’


भोला और सुहागी, दोनों ही नाम अब निरर्थक हो गये थे। न तो भोला का भोलेपन से कोई सम्बन्ध रह गया था और न सुहागी का सुहाग अथवा सौभाग्य से। बचपन में भोला में भोलापन अवश्य था, पर होश सम्हालने के बाद उसने उसे बेवकूफ़ों की चीज़ मानकर तिलांजलि दे दी थी। इसी तरह उसकी माँ सुहागी के पास भी पहले तो सुहाग और सौभाग्य, दोनों ही चीज़ें थीं। पर अब अठारह साल पुरानी सुखद घड़ियों की याद भी सिवा दुःख के भला और क्या दे सकती थी? वे दिन और थे जब पंडित हियाराम यजमानों के घर से गठरियों में बाँध-बाँधकर लक्ष्मी बटोर लाते थे। अब तो स्वयं सुहागी ही दुर्भाग्य द्वारा झाड़ू से बुहार कर एक ओर कर दी गयी थी।

सौभाग्य और दुर्भाग्य, इनकी अजीब आँख-मिचौली देखी थी सुहागी ने। उन्तालीस वर्ष पूर्व मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में, जब वह ब्याहकर पंडित हियाराम के घर आयी थी, तब उसे चारों ओर चूहे ही चूहे दिखाई पड़ते थे, अनाज नहीं। चौदह-पन्द्रह व्यक्तियों का परिवार और छोटा सा गाँव। पुरोहिताई से मिलता ही कितना? वह तो पास-पड़ोस के चार-पाँच गाँवों में भी अपने कुछ यजमान थे, अन्यथा खींच-खाँचकर भी पेट भरना मुश्किल हो जाता! घर का यह हाल देखकर सुहागी का मन बुरी तरह कलपता, पर उपाय ही क्या था? चार-पाँच साल इसी तरह बीते और इस बीच पंडित हियाराम के माता-पिता बारी-बारी से परलोक सिधार गये। यों सिर से माँ-बाप का साया उठना दुर्भाग्य की ही बात है, पर उनका जाना सुहागी के लिए सौभाग्य का कारण बना। उनके प्रस्थान करते ही पंडित हियाराम और उनके तीनों बड़े भाइयों में ठन गयी। हर एक ने अपने दुर्भाग्य के लिए बाक़ी तीनों को दोषी ठहराया और अन्त में बात घर-द्वार के बँटवारे पर जाकर ख़त्म हुई। इन सब बातों ने पंडित हियाराम के सुकुमार मन में अपने भाइयों के लिए नफ़रत पैछा कर दी और वह अपने हिस्से का मकान तथा काठ-कबाड़ तीन सौ रुपये में बेचकर पास के शहर चले गये। वहाँ उन्होंने ग़रीबों और मज़दूरों के एक मुहल्ले में किराये पर एक कमरा लिया और फिर काफ़ी सोच-विचार के बाद उसके बाहर ’राज ज्योतिषी’ का बोर्ड लटका दिया। निर्धनता से मुक्ति पाने के लिए गाँठ के धन से भी हाथ धोने और कष्टों को दूर भगाने के लिए दूसरे कई कष्टों को स्वीकार करने का रिवाज तो बहुत पुराना है ही! पंडित हियाराम का धंधा चल निकला। जन्मपत्री बनवाने, भाग्यफल जानने और पूजापाठ कराने वालों ने पंडित हियाराम के सारे दुःख दूर कर दिये। छः साल के अन्दर ही वह मकान भी पंडित हियाराम का हो गया, जिसके एक कमरे में वह किरायेदार के रूप में आये थे।

लेकिन एक अभाव, एक पीड़ा, अब भी सता रही थी पंडित हियाराम और सुहागी को। उसके कारण उनका समस्त सुख स्वादहीन बना हुआ था। इस अभाव को दूर करने के लिए पंडित हियाराम ने जड़ी-बूटी, जादू-टोना, जंतर-मंतर, सबका सहारा लिया, पर व्यर्थ। उनसे हृदय की रिक्तता पूरी न हो सकी। अन्त में वह हार कर बैठ गये। पर सुहागी कैसे हारती इतनी जल्दी? उसके लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न था। आख़िर एक नवयुवक बैरागी ने अपना चमत्कार दिखाया और पंडित हियाराम की पंडिताई को मात देकर सुहागी ने वह त्रासदायक अभाव पूरा कर लिया। पैंतीस वर्ष की अवस्था में उसने अपनी पहली और अन्तिम सन्तान को जन्म दिया। अब सुहागी को अपने जीवन से कोई शिकायत न थी। वह अपने सौभाग्य पर फूली न समाती।

जीवन की लता में सौभाग्य के फूल के साथ-साथ दुर्भाग्य के काँटे भी होते हैं। फूल की सुगन्ध चाहे काँटों से बेख़बर कर दे, पर फूल के मुरझाते ही काँटों का अस्तित्व बुरी तरह चुभने लगता है। परम सौभाग्य की प्राप्ति के तीन वर्ष बाद ही पंडित हियाराम ने सुहागी से सदा के लिए विदा ले ली। विदा लेते समय उन्होंने अवरुद्ध कंठ से सुहागी से कहा था, “भोला के रहते तुम पर कोई आँच न आएगी। उसे बड़े जतन से रखना।“

पंडित हियाराम की और भविष्यवाणियाँ चाहे सही उतरी हों, पर यह भविष्यवाणी सच सिद्ध नहीं हुई। भोला को सुहागी ने बड़े प्यार से पाला-पोसा, बड़ा किया, और अब वह इक्कीस साल का ख़ासा जवान हो गया था। फिर भी वह बुरी तरह जल रही थी। ख़ुद भोला उसे सबसे अधिक जला रहा था—प्रताड़ना की आँच पल-पल तेज़ करता जा रहा था।

आठ-नौ साल की अवस्था तक भोला में कोई ऐब न था। उस समय तक कोई भी व्यक्ति उसे देखकर यही कहता कि सुहागी के दिन बड़े आनन्द से कट जाएँगे। बेटा भी सही राह पर था और पंडित हियाराम अपने पीछे काफ़ी-कुछ छोड़ भी गये थे। अकेले मकान के कुछ कमरों के किराये से ही चालीस-पैंतालीस रुपये की आमदनी हो जाती थी। लेकिन तभी, जब भोला चौथी कक्षा में पढ़ रहा था, उसकी मित्रता कुछ ऐसे लड़कों से हुई, जो ’खेलोगे-कूदोगे होओगे नवाब’ का सिद्धान्त मानते थे। भोला अक्सर स्कूल से ग़ायब रहकर उन लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा, गोली और पतंग के खेल खेलने लगा। आगे चलकर गोली का स्थान ताँबे के पैसों ने ले लिया। फिर ताश के ज़रिए पैसे जीतने-हारने में भोला को और अधिक आनन्द आने लगा। सुहागी के पास शिकायत पहुँचती तो वह उसे समझाती-बुझाती, धीमे-धीमे डाँटती-फटकारती भी, पर उसी क्षण से भोला अनशन आरम्भ कर देता और वह उसकी ख़ुशामद में लग जाती, अपनी पराजय स्वीकार कर लेती। इस तरह भोला अपनी विजयदुन्दुभी बजाता, पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर जुआ, शराब, मार-पीट, लड़कियों से छेड़छाड़ और ऐसे ही अन्य दुष्कार्यों में पारंगत होता गया। धीरे-धीरे लोग उससे भय खाने लगे और वह अपने मुहल्ले के गुण्डों में से एक बन गया।

इधर भोला की इस क्षेत्र में प्रगति होती रही और उघर सुहागी की बेहाली बढ़ती गयी। बेटा अनपढ़-आवारा तो हुआ ही, उसके लिए आर्थिक बोझ भी बन गया। अब वह किरायेदारों से किराया वसूल करके अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ ख़र्च कर लेता। सुहागी टोकती तो जवाब में मिलते झिड़की और घर छोड़ कर चले जाने की धमकी। विधवा माँ अपने अन्तिम सहारे, बेटे का वियोग भला कैसे सहन करती? बेटे ने पहले जमा-पूँजी में हाथ लगाया, फिर गहनों की बारी आयी, और अन्त में मकान पर कर्ज़ की मात्रा भी बढ़ने लगी। फिर भी ख़र्च पूरा करता मुश्किल होता। बेटे का शाही ख़र्च सम्हालना कोई मामूली बात थोड़े ही थी! कालान्तर में उसे अपने बेटे से पिटाई का भी अवसर मिलने लगा। माँ को पीट-पाटकर भोला रुपये-पैसे छीनता और फिर शान के साथ अपनी मित्र-मण्डली में जा बैठता।

सुहागी बहुत सोचती पर कोई उपाय न मिलता। बहुत तड़फड़ाती पर किनारा न सूझता। उसके आगे दूर-दूर तक तक विस्तृत था अन्धकार, घोर अन्धकार, जिसे भेदने के लिए सौभाग्य की चाँदनी आवश्यक थी। पर वह चाँदनी उसे मिलती कहाँ? हाँ, एक सितारे का धुन्धला प्रकाश उसकी सहायता के लिए ज़रूर आया।

बलराम एक धुँधला सितारा ही तो था! जब वह छोटा था तभी उसके माँ-बाप चल बसे थे। अपने मामा-मामी की ठोकरों में उसने जीवन-निर्वाह की कठिनता का आभास पाया था। जवानी में सहनशीलता कम होती है, किसी की ठोकर बर्दाश्त नहीं कर सकती। अतः बलराम अपने मामा-मामी को छोड़कर एक दिन चुपचाप शहर चला आया। यहाँ उसके सुपुष्ट शरीर ने उसकी सहायता की। एक कारख़ाने के मैनेजर ने उसे चपरासी की नौकरी दे दी। निवास की समस्या भी जल्दी ही हल हो गयी। सुहागी के मकान में उसे एक कमरा किराये पर मिल गया। अब उसके दिन बड़े मज़े में कटने लगे। साथियों के साथ हँस-खेल कर वह दिन बिता देता और रात बीत जाती मधुर निद्रा की गोद में। पर कभी-कभी उसका जीवन अशान्त हो उठता। भोला का अपनी माँ को मारना-पीटना उसे तनिक भी अच्छा न लगता। उसे बड़ा क्रोध आता भोला पर, लेकिन मन मसोस कर रह जाता। पास-पड़ोस के लोगों से उसे माँ-बेटे की सारी कहानी मालूम हुई थी। साथ ही यह चेतावनी भी मिली थी कि भोला से कभी मत उलझना। वह गुण्डा है, मारपीट और छुरेबाज़ी उसका खेल है। इसीलिए पड़ोसी बहुत चाहने पर भी सुहागी को भोला के हाथ से बचाने नहीं जाते थे।

पर उस दिन बलराम से न रहा गया। भोला सुहागी को पीट रहा था और वह बुरी तरह चीख-चिल्ला रही थी। सुहागी की व्यथाभरी चीख से उसका दमित पौरुष जाग उठा और वह आँधी की तरह माँ-बेटे के पास जा पहुँचा। भोला भौंचक, मानो उसे काठ मार गया हो! उसके हाथ जहाँ के तहाँ रुक गये और सिर इस तरह झुक गया जैसे किसी की जेब में हाथ डालते ही कांस्टेबिल ने कलाई पकड़ ली हो। बलराम के व्यक्तित्व में, पता नहीं, भोला ने ऐसा क्या देखा कि बेबस हो गया। दो पल तक सिवाय सुहागी के कराहने की ध्वनि के, वहाँ पूर्ण शान्ति रही। तब बलराम का गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा, “ज़रा मेरे साथ आओ।“ भोला एक पालतू कुत्ते की भाँति उसके पीछे-पीछे चलने लगा। अपने कमरे में पहुँचकर बलराम ने खाट की ओर इशारा करते हुए भोला से कहा, “बैठो।“ भोला ने यन्त्रवत् आदेश का पालन किया। फिर बलराम भी उसकी बगल में बैठ गया और सूनी नज़रों से दीवार पर रेंग रही एक छिपकली को देखने लगा। कुछेक क्षण इसी तरह बीते तब बलराम ने आर्द स्वर में कहा, “क्यों भाई, मुझे एक भीख दे सकोगे?”

भोला ने बलराम की ओर दृष्टि उठायी। वह स्वयं डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर देख रहा था। उन आँखों पर नजर पड़ते ही भोला की आँखें झुक गयीं। मुँह से कोई शब्द न निकला। बलराम ने उसकी एक हथेली अपनी हथेलियों में ले ली, फिर कहा, “तुम्हें शायद मालूम हो, मेरे माँ बाप नहीं हैं। जब मैं बहुत छोटा था, तभी मेरे सिर से उनका साया उठ गया था। माँ-बाप का प्यार कैसा होता है, यह मुझे नहीं मालूम, जबकि तुम माँ के प्यार से ऊब से गये हो। अब माँ का प्यार मुझे स्वयं ही ढूँढ़ना पड़ेगा, ईश्वर तो देने से रहा! क्या तुम अपनी माँ को मुझे अपनी माँ बनाने दोगे?”

भोला लाज से और भी गड़ गया।

“बोलो, क्या तुम वह सुख प्राप्त करने में मेरी सहायता नहीं करोगे, जो भगवान् तक न दे सका? क्या तुम मुझे अपना भाई नहीं बनाओगे? मुझे क्या एक छोटा भाई नहीं दोगे?”

बलराम के इन शब्दों ने भोला पर एक अजीब असर डाला। उसका कठोर हृदय धूप लगी बर्फ़ की तरह पिघल उठा और आँखें छलछला आयीं।

बलराम ने उसकी मनोदशा ताड़ कर कहा, “तो अपना भाई बनाते हो न मुझे?”

भोला ने चुपचाप सहमति में सिर हिला दिया।

“वाह, मेरे राजा भैया!” कहते हुए बलराम ने भोला को आलिंगन में भर लिया, “कौन कहता है, मेरा भोला बुरा आदमी है? दुष्ट लोग बुराई सिखाते हैं, फिर कहते हैं कि भोला बुरा है। भोला बुरा नहीं है, बुरा नहीं बनेगा, नहीं बन सकता।“ वह आवेश में कुछ देर तक बड़बड़ाता रहा। फिर जब थोड़ा शान्त हुआ, तब बोला, “अच्छा भाई, अब यह बताओ कि माँ से तुम्हें क्या शिकायत है?”

“शिकायत क्या होगी? कुछ नहीं।“

“नहीं, कुछ तो है! नहीं तो, तुम मार-पीट क्यों करते?”

“वह मुझे पैसे नहीं देती,” भोला ने मन की बात उगल दी।

“तो तुम्हें पैसे चाहिए? ठीक है, तुम्हें पैसे मिलने का इन्तजाम हो जाएगा। लेकिन एक बात मेरी भी मानो। तुमने जब मुझे बड़ा भाई बनाया है तब मेरी इतनी सी बात तुम्हें माननी पड़ेगी। मैं चाहता हूँ कि तुम एक योग्य आदमी बनो। सयाने हो गये हो, नौकरी चाकरी करो, फिर शादी करो, और सुखी रहो। इधर-उधर घूमते रहने से यह सब नहीं हो सकेगा। अपने खाने-कपड़े का इन्तज़ाम तुम्हें ख़ुद ही करना पड़ेगा, दोस्त कुछ भी नहीं करेंगे। ये सब सुख के साथी हैं। मैं सोचता हूँ कि अपने कारख़ाने में तुम्हें नौकरी दिला दूँ। वहाँ तुम्हें पैसे भी मिल जाएँगे और काम भी सीख जाओगे।“

बात भोला की समझ में आ गयी। उसने कहा, “ठीक है, मुझे नौकरी दिला दो।“

यों, भोला जैसे बदनाम आदमी को भी नौकरी मिल गयी। मैनेजर की ख़ुशामद करके बलराम ने उसे ’हेल्पर’ का काम दिला दिया। अब भोला ख़ुश था। उसे ख़र्च के लिए पर्याप्त पैसे मिल रहे थे—सो भी अपनी कमाई के। अब उसे किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ता था। वह दिन भर कारखाने में काम करता और शाम अपनी मित्र मण्डली में बिता देता। पर अब उसका आनन्द पहले जैसा उन्मुक्त नहीं था। उसे बलराम का ध्यान रखना पड़ता था। जो बातें बलराम को पसन्द नहीं थीं, उन्हें करते समय वह बीच में पर्दा डाल देता था। बलराम के साथ पर्दे की बात यों शायद अनुचित प्रतीत हो, पर उसका भी महत्व था। इस पर्दे ने ही तो उसकी आँख में शर्म उतारी थी! यही तो उसके भले बनने की राह में पहली कड़ी थी!

सुहागी की आँखें इस जादुई परिवर्तन से चौंधिया गयी थीं। इस परिवर्तन की उसने कभी कल्पना तक न की थी, पर जो कुछ सामने आया वह तो सत्य ही था। उसे कैसे झुठलाया जा सकता था? उसे लगा, ’बलराम देवदूत है। ईश्वर ने मेरी दशा पर दया करके उसे मेरे उद्धार के लिए भेजा है।‘ वह बार-बार बलराम की बलैयाँ लेती। प्रतिदान के रूप में उस पर स्नेह निछावर करती। अब बलराम उसके लिए ’अपना’ हो गया था। हर बात में वह उसकी राय लेती। जिस बात को भोला के द्वारा न माने जाने की आशंका होती, उसे बलराम के ही द्वारा कहलाती। अब उसे इस बात का भरोसा हो गया था कि दिन पलट गये हैं और जल्दी ही उसे पतोहू तथा पोते-पोतियों का भी सुख प्राप्त होगा। इसी आशा में उसने पैसे जोड़ने शुरू कर दिए।

इधर बलराम भी सन्तुष्ट था। उसकी ख़ुशी के मुख्य दो कारण थे—एक तो यह कि उसके चलते एक आदमी की ज़िन्दग़ी बन गयी थी, और दूसरा यह कि सुहागी के स्नेहांचल में उसे मातृसुख की अनुभूति होती थी। अब वह घण्टों सुहागी से बातें किया करता। अपने खाने-पीने का प्रबन्ध भी उसने सुहागी को ही सौंप दिया था। जब सामने बैठ कर सुहागी उसे खाना खिलाती, तब उसे बरबस अपनी मामी की याद आ जाती, जिसने कभी भी दो-चार अपशब्दों के बिना उसके सामने थाली नहीं पटकी थी। उसका हृदय भर आता। वह रह-रह कर अपनी कल्पित माँ के चेहरे से सुहागी के चेहरे की तुलना करता, और आशा के अनुरूप, उसे दोनों में पूर्ण समानता दिखाई पड़ती। भोला से भी अब उसे कोई ख़ास शिकायत नहीं रह गयी थी। उसकी जो दो-चार बातें अब भी ख़लती थीं, उन्हें वह यह सोच कर बर्दाश्त कर लेता था कि शादी हो जाने पर अपने आप ख़त्म हो जाएँगी।

इस तरह परिस्थिति बहुत कुछ बदल गयी थी। हाहाकार तथा निराशा का स्थान सन्तोष तथा आशा ने ले लिया था। पर एक बात अब भी सुहागी को ख़लती थी। भोला से जिस व्यवहार की वह आशा करती थी, वह उसे नहीं मिलता था। यह सही है कि अब भोला उसे मारता-पीटता नहीं था, अपशब्द भी नहीं कहता था; पर इतना ही तो काफ़ी नहीं था! वह उसका बेटा था और उसमें अपनी माँ के प्रति प्रेम होना चाहिए था। पर कहाँ था उसमें यह सब? वह अपनी माँ की परवाह कहाँ करता था? उलटे वह तो उसकी उपेक्षा करता था। घर और माँ से उसका नाता इतना ही था, जैसा एक यात्री का होटल और उसके मैनेजर से। एक बार सुहागी बीमार पड़ी तो सारी सेवा-सुश्रूषा बलराम ने ही की, भोला ने नहीं। जब उसकी माँ 103 डिग्री बुख़ार में पड़ी कराहती रहती थी, वह रात के दस बजे तक अपनी मित्र-मंडली में जमा रहता था। ’अब कैसी तबीयत है’—इसके सिवा उसने सुहागी से कभी कुछ नहीं पूछा। सिर दबाने और दवा पानी पिलाने की तो बात ही क्या! वह सारा काम बलराम ने ही किया। कारखाने के कुछ घंटों के अलावा उसने दिन-रात का सारा समय सुहागी के ही पास बिताया। उसकी यह सेवा देखकर एक दिन भावोद्रेक में सुहागी ने कहा, “मेरी कोख से भोला नहीं, तू जन्मा था, बलराम! तू ही मेरा बेटा है।“

भोला के व्यवहार से सुहागी को जो पीड़ा होती थी, उसे बलराम भलीभाँति समझता था। स्वयं उसे भी भोला की यह उदासीनता ख़लती थी। उसने कई बार भोला को समझाने की चेष्टा की, पर कुत्ते की पूँछ टेंढ़ी ही रही। समझाने के बाद एक-दो दिन तो वह माँ से तनिक स्नेहपूर्ण व्यवहार करता लेकिन फिर अपनी पुरानी राह पकड़ लेता। पता नहीं, उसे अपनी माँ से ऐसी क्या चिढ़ हो गयी थी।  

लेकिन सुहागी को भोला से कोई चिढ़ न थी। भोला अपनी तनख़्वाह से एक भी पैसा माँ को नहीं देता था, उल्टे उसी से इधर-उधर के बहाने बना कर किराये के रुपयों से लेता रहता था। फिर भी सुहागी को उससे घृणा न थी। वह चाहती थी कि किसी भी तरह भोला ठीक रास्ते पर आ जाए। जो थोड़ी-सी कमी उसमें रह गयी है, वह पूरी हो जाए और वह एक अच्छा-भला गृहस्थ बन जाए। उस रात जब बारह बजे तक भोला घर न लौटा, तब सुहागी बलराम के पास पहुँची और उसे सोते से जगाकर बोली, “अब कैसी तबीयत है, बेटा?”

“ठीक है, माँ। बस, बुख़ार पूरी तरह नहीं उतरा है। बदन टूट रहा है। लेकिन तुम चिन्ता मत करो। सवेरे तक सब ठीक हो जाएगा,” भर्रायी आवाज़ में बलराम ने जचाब दिया।

“ओह, तुम अब भी बीमार हो? मैं क्या करुँ, कुछ समझ में नहीं आता!”

“क्यों, क्या हुआ?”

“देखो न, अभागा अब तक नहीं आया! आधी रात बीत गयी। मुझे तो डर लगता है, कहीं मारपीट न हुई हो, अस्पताल में न पड़ा हो। अब किसे भेजूँ ढूँढ़ने?” सुहागी ने आँचल से आँखें पोंछ लीं।

 

“अब तक नहीं लौटा?” उठ कर बैठते हुए बलराम ने कहा, “पता नहीं, नालायक क्या करता रहता है इतनी रात तक! तुम परेशान मत होओ। मैं देखता हूँ जाकर, ढूँढ़ लाता हूँ। तुम निश्चिन्त रहो।“ बलराम उठ कर कपड़े पहनने लगा।

“तुम जाओगे, बेटा? तबीयत ख़राब है! वह अभागा जो न कराये, थोड़ा है। जल्दी पता लगा कर लौटना। जब तक लौटोगे नहीं, मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।“

रात एक बजे शराब के नशे में धुत् भोला को रिक्शे में डालकर बलराम घर लौटा था। फिर भी सुहागी ने घृणा से भर कर उसे घर से बाहर नहीं फिंकवाया। उसे नीबू चुसाया, उसकी उल्टियाँ साफ़ कीं, और थपकियाँ दे कर सुला दिया। उसी रात उसने यह भी निश्चय कर लिया था कि अब बात टालने से काम नहीं चलेगा, जल्दी-से-जल्दी भोला की शादी करा देनी होगी। तभी यह रास्ते पर आएगा।

अगले दिन से ही उसने भोला के विवाह के लिए भाग-दौड़ शुरु कर दी थी, लेकिन कोई लड़कीवाला तैयार नहीं था। कोई भी भोला को अपनी लड़की नहीं देना चाहता था। कुछ ने अवश्य बलराम के साथ शादी की बात आगे बढ़ाने में तत्परता दिखायी, पर इससे सुहागी की समस्या तो हल नहीं हुई। उसने लाख समझाया कि बलराम के माँ-बाप नहीं हैं, घर-द्वार नहीं है, और अपने मन से ही यह भी कह दिया कि अभी बलराम का शादी करने का विचार नहीं है, फिर भी भोला को लड़की देने के लिए कोई राज़ी नहीं हुआ। अन्त में सुहागी को फ़ैसला करना पड़ा कि भोला की शादी इस शहर की किसी लड़की से नहीं, कहीं बाहर की लड़की से करनी होगी। उसने अपने नाते-रिश्तेदारों को लड़की ढूँढ़ने के लिए लिखवा दिया।

तभी एक नया गुल खिला। भोला को नौकरी करते हुए लगभग एक साल हो आया था। इस बीच, उसके स्वभाव में एक अजीब-सी तेज़ी आ गयी थी। एक दिन उसके इंजीनियर ने उसे उसकी ग़लती के लिए डाँटा, तो उससे बर्दाश्त न हुआ। वह उससे उलझ पड़ा, और तू-तू-मैं-मैं के बाद नौबत हाथापाई तक की आ गयी। फलस्वरुप उसे नौकरी से हटा दिया गया। बलराम ने लाख माफ़ी माँगी, पर उसकी न सुनी गयी। उलटे उसे मैनेजर ने बुरी तरह डाँटा और उसे भी नौकरी से निकाल देने की धमकी दी। विवश बलराम चुप हो गया। पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई। एक दिन रास्ते में भोला ने उस इंजीनियर की अच्छी तरह पिटाई कर दी। परिणामतः भोला पर मुकदमा चलाया गया और बलराम अपने मैनेजर की नज़रों में गिर गया। अब उसे तनख़्वाह के रुपये ऐसे लगते, जैसे भीख में मिले हों। वह बहुत दुःखी रहने लगा।

दूसरी ओर भोला फिर अपने पुराने रास्ते पर जा रहा था। बलराम ने उसे दूसरी जगह काम दिलाने के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, अन्त में एक जगह बात भी पक्की कर दी, पर भोला राज़ी न हुआ। उसने कहा, “नहीं भैया, यह नौकरी-चाकरी आदमियों का नहीं, जानवरों का काम है। मुझसे नहीं होगी नौकरी। मैं किसी साले का रौब नहीं सह सकता।“

“लेकिन इस तरह कैसे चलेगी ज़िन्दग़ी?” बलराम ने समझाना चाहा।

भोला ने जवाब दिया, “ऊपरवाला सब ठीक कर देगा। जिसने पेट दिया है, वही उसे भरेगा भी। मैं क्यों करुँ चिन्ता?”

ज़ाहिर था कि अब भोला को बलराम की उतनी चिन्ता नहीं रह गयी थी। थोड़ा लिहाज वह ज़रुर करता था, परन्तु बलराम उस पर शासन करे, यह उसे स्वीकार न था। आख़िर बलराम होता कौन था उस पर शासन करनेवाला? उसके दोस्त तक उसे ’बन्दर’ और बलराम को ’मदारी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाया करते थे। ’यह अपमान क्यों सहूँ मैं? अपनी आज़ादी क्यों सौंपूँ उसके हाथ? क्या मैं उसका ग़ुलाम हूँ? ऐसे मुँह-बोले भाई बहुत मिलते हैं दुनिया में,’ भोला सोचता, फिर भी बलराम के सामने जाने क्यों सहम जाता, झेंप जाता।

भोला का यह बदलता रुख़ बलराम भी ताड़ रहा था। इसीलिए अब वह भोला से अधिक बात नहीं करता था, यथा-सम्भव आदेश-निदेश देने से भी बचता था। जब सुहागी बहुत तंग हो जाती थी, तभी वह भोला से कहता-सुनता था। कभी-कभी तो उसे सुहागी पर भी खीझ होती थी कि क्यों वह बालू से तेल निकालने पर तुली है? भोला समझाने-बुझाने से नहीं, ठोकर लगने से अपनेआप चेतेगा। उसके साथ कठोरता की नीति काम में लाई जानी चाहिए। उसने सुहागी को कई बार समझाया भी, “तुम उसकी चिन्ता छोड़ दो, माँ। वह सुधारने से नहीं, अपनेआप सुधरेगा। जितना उससे उलझोगी, उतना ही वह बिगड़ेगा। एक बेटा नालायक ही सही, दूसरा बेटा तो ठीक है तुम्हारा! तुम्हें कोई तक़लीफ़ नहीं होने दूँगा मैं। ज़िन्दग़ी-भर सिर-आँखों रखूँगा।“ सुहानी यह सब सुन लेती लेकिन जल्दी ही उसका अन्तर अकुलाने लगता और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकलती।

जैसी कि आाशंका थी, चन्द ही दिनों में भोला पूरी तरह अपनी पुरानी राह पर आ गया। अब फिर वह पैसे के लिए माँ से लड़ने-झगड़ने लगा और सुहागी रो-धोकर उसकी माँगें पूरी करने लगी। अब इतनी बात ज़रूर थी कि भोला अपनी माँ से तभी झगड़ता था, जब बलराम ड्यूटी पर गया होता। उसके सामने लड़ने-झगड़ने का उसे साहस नहीं होता था।

उस दिन न जाने भोला को ऐसी कौन सी ज़रूरत आ पड़ी कि उसने बलराम की उपस्थिति की भी परवाह न की और सुहागी से झगड़ा शुरू कर दिया। बलराम अपने कमरे में पड़ा-पड़ा उसकी सारी झड़प सुनता रहा, पर बोला कुछ नहीं। निराशा ने उसे इस तरह घेर रखा था कि वह अपने-आपको एकदम निर्जीव सा अनुभव कर रहा था। झगड़ा बढ़ता ही गया। भोला की गालियों की बौछार बढ़ती गयी और फिर मार-पीट तथा सुहागी के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें भी आने लगीं। अब बलराम से न रहा गया। वह ग़ुस्से से काँपता उस कमरे में पहुँचा, जहाँ भोला घूसे-लात से सुहागी की मरम्मत कर रहा था। इस दृश्य ने बलराम को और पागल कर दिया। उसने आव देखा न ताव, भोला से उलझ पड़ा और घूसे-थप्पड़ जमा दिए। यह बात भोला से बर्दाश्त न हुई। उसने पास पड़ी लोहे की एक मोटी छड़ उठा ली और बलराम के सिर पर जमा दी। ख़ून से लथपथ बलराम धराशायी हो गया। उसकी चेतना लुप्त हो गयी।

बलराम इस तरह गिरा तो भोला के पावों से धरती खिसक गयी। सुहागी ने उसे कोसना शुरू किया, “अरे मुँह जले, यह क्या किया तूने! अब फाँसी लगेगी तुझे! मरे बिना तुझे शान्ति नहीं मिलेगी क्या? तो मर क्यों नहीं जाता? जा, मर जा! दूर हो मेरी आँखों के सामने से! हे भगवान्! अब क्या होगा? अरे निगोड़े, भागता क्यों नहीं यहाँ से? जा न, क्या पुलिस के ही हाथ पड़ेगा?”

भोला को राह सूझ गयी। वह घर से निकल भागा।

भोला के भागते ही पास-पड़ोस के कई लोग वहाँ जमा हो गये। शोर-गुल मच गया। कोई पुलिस को टेलीफ़ोन करने के लिए कहने लगा, तो कोई अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी लाने को। लेकिन आदेश ही दे रहे थे सब, अपनी जगह से खिसक कोई नहीं रहा था। उधर सुहागी अनवरत आँसू बहाये जा रही थी, साथ-साथ बोल भी रही थी, “इस अभागे ने मुझे कहीं का नहीं रखा। जन्मते मर जाता, तो सन्तोष कर लेती। भगवान् मुझे मौत भी तो नहीं देता।“

तभी भीड़ में से किसी ने एक पुलिस कांस्टेबिल को आते देखा और वह चिल्ला पड़ा, “आ गये, सिपाही आ गये।“

’सिपाही’ शब्द सुनते ही सुहागी के हाथ के तोते उड़ गये। उसने तुरन्त अपनी धारा बदल दी, “लेकिन वह बेचारा भी क्या करता? बड़ा धर्मपुत्र कहता था अपने को ... मैं तुम्हारा बेटा हूँ, माँ! लेकिन इतना पीटा मुझे? हाय-हाय, कमर तोड़ दी मेरी! कर्ज़ लिया था, सच है, पर अभी कहाँ से दे देती? रुपये क्या मुँह से उगल देती? हाय-हाय, मेरी तो जान ही निकाल दी इस कलमुँहे ने। अच्छा हुआ, मारा उसने। मारता नहीं, तो क्या करता? मेरे बेटे की देह में भी ख़ून है, पानी नहीं! मर गया ... अच्छा हुआ!”

सुहागी के अन्तिम कुछ वाक्य फिर से होश में आ रहे बलराम के कानों में पड़े और वह फिर अचेत हो गया। कांस्टेबल कमरे में पहुँच गया था।

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पराकाष्ठा - विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’

 

मधुकर को रात-भर नींद नहीं आयी थी। उसके कानों में बार-बार मकान-मालिक की कर्कश ध्वनि गूँजती रही थी - ’’अगर कल तक पूरा किराया न मिला, तो ... ’’ इससे आगे के शब्द हालाँकि मकान-मालिक ने अपने मुँह में ही रोक लिये थे, फिर भी मधुकर के कानों ने उन्हें पकड़ लिया था - ’’मय सामान और बाल-बच्चों के सड़क पर नज़र आओगे।’’ इन शब्दों ने, स्वभावतः ही, मधुकर के आत्मसम्मान पर एक साथ कई घनघनाती चोटें की थीं और वह तिलमिला गया था; पर इस तिलमिलाहट में क्रोध से कहीं अधिक क्षोभ और ग्लानि थी। वह इस हद तक निरीहता से जकड़ा हुआ था। उसकी पत्नी, शालिनी, के पास अब केवल तीन सस्ती साड़ियाँ बच गयी थीं और उनमें से भी एक ने दो जगह से दम तोड़ दिया था। ब्लाउज़ भी केवल दो बचे थे, और पेटीकोट तो एक ही था। स्वयं उसके पास दो फटे-पुराने पैंट रह गये थे, जिन्हें घर में ही धोकर और प्रेस करके वह अपनी मर्यादा बचाये रखने का प्रयत्न करता था। दोनों कमीज़ों के कॉलर और कफ़ उलटे जाने पर भी दाँत निपोड़ने पर आमादा थे और एकमात्र बनियान तो जैसे झिलमिली बन रही थी। यही हाल दोनों बच्चों का भी था - देखकर लगता था, जैसे भीख माँगने निकले हों। अभी चार दिन पहले कॉरपोरेशन प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका ने उनमें से एक से कह भी दिया था - ’’पढ़ने आते हो, या भीख माँगने।’’

 

कैसी लानतें बरस रही थीं उस पर! मजनूँ के टीले के पास की गन्दी बस्ती की एक झोंपड़ी, फिर भी किराया चुकाने में असमर्थता, कॉरपोरेशन के फ्ऱी प्राइमरी स्कूल में बच्चे, फिर भी उनके लिए निकर-कमीज़ का अभाव, सस्ते ऑस्ट्रेलियन गेहूँ की रोटियाँ, और दाल रहने पर सब्ज़ी नदारत और सब्ज़ी रहने पर दाल, फिर भी फ़ाके करने की नौबत; दस रुपये की मिल की साड़ी से पत्नी सन्तुष्ट, फिर भी नग्नता उभर-उभर आये; कभी-कभी तो लेख-कहानियाँ लिखने के लिए काग़ज़ और स्याही का भी अभाव! और, यह सब तब था, जब पाठक उसकी रचनाएँ पसन्द करते थे - वह अक्सर छपता रहता था। कैसी पराकाष्ठा थी नियति के व्यंग्य की।

 

अनपढ़-उजड्ड मकान-मालिक के चले जाने पर शालिनी ने एक सस्ते-से प्याले में गुड़ की चाय मधुकर के सामने चटाई पर रखते हुए बड़ी आजिजी से कहा था - ’’मेरी बात मानो। ले लो किसी दोस्त से कर्ज़। इतने सारे तो दोस्त हैं तुम्हारे - अच्छे-अच्छे ओहदों पर, पैसे वाले। मुँह खोलते ही तुम्हारी जेब भर देंगे। ... ’’

 

’’यही तो बात है, शालू! मैं कर्ज़ नहीं ले सकता - मर जाऊँगा, पर कर्ज़ नहीं लूँगा। हाथ नहीं पसारूँगा किसी के सामने!’’ मधुकर ने बड़े बेमन से चाय की एक चुस्की लेकर कहा था।

 

’’लेकिन कल जब वह हमारे सिर से साया छीन लेगा, तब क्या होगा - ज़रा यह भी तो सोचो। साठ रुपये बाक़ी हो गये हैं उसके - तीन महीने का किराया। वह नहीं छोड़ेगा इस बार। देख लेना, कल हम राह के भिखारी बन जायेंगे।’’

 

चाय की गर्मी ने शायद मधुकर में कुछ जोश भर दिया था - ’’तुम निश्चिन्त रहो। न हम मकान छोड़ेंगे और न राह के भिखारी बनेंगे। किराया उसे मिल जायेगा। मैं सुबह-सुबह ही निकलता हूँ कल। तीन-चार पत्रों में पैसे बाक़ी हैं - किसी-न-किसी से तो वसूल कर ही लूँगा।’’

 

और, तदनुसार ही, आज सुबह साढ़े आठ बजते-न-बजते वह अपनी झोंपड़ी से निकल पड़ा था और एक मील पैदल चल कर खैबर-पास के बस-स्टॉप पर आ खड़ा हुआ था।

 

बस-स्टॉप लगभग ख़ाली ही था - अभी दफ़्तर जाने वालों की भीड़ शुरू नहीं हुई थी। कुल चार-पाँच जने थे वहाँ। हाँ, सड़क के किनारे-स्थित चाय, पकौड़ियों और मिठाइयों की दुकानों में हलचल अवश्य थी। उनमें से एक में ज़ोर-ज़ोर से रेडियो भी बज रहा था, जिसके रेडियो-सिलोनी गीतों की स्वर-लहरी बस-स्टॉप पर खड़े लोगों का मनोरंजन कर रही थी। पर मधुकर किसी और ही दुनिया में खोया था - गीतों के बोल उसके कानों से टकराकर बिखर जाते थे; उसका मानस उनके स्वागत के लिए एकदम ही तैयार न था।

 

काश, मैंने पढ़ाई न छोड़ी होती। - वह अचानक बुदबुदाया।

 

तो, वह सन् 1942 में पहुँचा हुआ था - 22 साल पहले की दुनिया में, जब वह ब्रह्मस्वरूप हाईस्कूल की नवीं कक्षा का छात्र था। उन्हीं दिनों भारत छोड़ोआंदोलन आरम्भ हुआ था और रातोंरात सारे देश में एक ज्वाला धधक उठी थी। उसी ज्वाला की लपटों को ऊपर उठाने के प्रयत्न में उसने रेल-लाइनें उखाड़ी थीं, डाकघर जलाया था और अन्त में दो साल की क़ैद पाकर अपनी पढ़ाई-लिखाई की पूर्णाहुति दे दी थी। फिर आगे बढ़ने का उसका डौल नहीं बैठा था और उसके पिता ने एक मारवाड़ी के यहाँ उसे खाता लिखने पर नौकर रखा दिया था। इस मारवाड़ी की गद्दी पर वह चार-पाँच साल रहा था और इसी बीच बहरू मुख़्तार अयोध्याप्रसाद की पाँचवीं तक शिक्षा प्राप्त पुत्री, शालिनी, से उसका विवाह हुआ था। पर खाता लिखने का काम उसे मोह कभी नहीं पाया था - अपना अधिकांश समय वह कहानी-पत्रिकाएँ पढ़ने में बिता देता था। कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते ही उसे कहानियाँ लिखने का भी शौक़ चर्राया था और उसने आठ-दस कहानियाँ लिख मारी थीं, जो अन्ततः विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से सधन्यवाद वापस आ गयी थीं। लेकिन इससे साहित्य के प्रति उसका झुकाव कम नहीं हुआ था - एक-न-एक दिन अपना नाम छपा देखने का संकल्प दिन-दिन दृढ़तर ही होता गया था। और तब, एक दिन उसकी मुलाक़ात सत्येन्द्र से हुई थी, जो आगरा का ही निवासी था और दिल्ली के एक दैनिक पत्र में उप-सम्पादक लगा हुआ था। सत्येन्द्र ने ही साहित्य जगत् में आने के लिए उसे प्रोत्साहन दिया था और दिल्ली लाकर अपने पत्र में प्रूफ़-रीडर लगवा दिया था। तब से, 1950 से, ही वह दिल्ली में निवास कर रहा था। हालाँकि दो साल बाद ही उक्त दैनिक बन्द हो गया था, फिर भी उसने दिल्ली छोड़ने की बात नहीं सोची थी और एक प्रकाशक के यहाँ प्रूफ़-रीडर की नौकरी पकड़ ली थी। तब से अब तक कई नौकरियाँ बदलने के बाद पिछले दो साल से वह बेकार बैठा था - केवल लेख-कहानियों और फुटकर अनुवाद तथा प्रूफ़-संशोधन के सहारे उसकी जीविका चल रही थी, और इस छोटी-सी अवधि में उसकी आर्थिक अवस्था कितनी सुधरी या बिगड़ी थी, इसका अन्दाज़ इस एक बात से ही लगाया जा सकता है कि पहले जहाँ वह शक्तिनगर में रहता था, वहाँ अब मजनूँ के टीले के पास रह रहा था, और दोनों बच्चे पहले जहाँ मांटेसरी स्कूल में थे, वहाँ अब कॉरपोरेशन स्कूल आबाद कर रहे थे।      

 

कोई पन्द्रह मिनट बाद नौ नम्बर की बस आई और मधुकर उसमें सवार हो गया - सौभाग्य से एक ख़ाली सीट भी मिल गयी उसे। पर दूज के चाँद की तरह उसका यह सौभाग्य बड़ा ही क्षणिक सिद्ध हुआ। बस के ओल्ड सेक्रेटेरियट पहुँचते-न-पहुँचते कंडक्टर उसके पास आ खड़ा हुआ, और जब कुल पूंजी एक रुपये का नोट निकालने के लिए मधुकर ने जेब में हाथ डाला, तब अकस्मात् उसे याद आया कि वह नोट उसने कल ही दूध वाले को दे दिया था। मधुकर के सारे शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गयी - लज्जा से उसका मुँह लाल हो गया और देखते-न-देखते ललाट पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आयीं। फिर भी, घबराहट से भर कर उसने पैंट की जेब में हाथ डाला - शायद कुछ हो ही। और, सचमुच उसमें कुछ था - दस पैसे का एक सिक्का। मधुकर को जैसे नवजीवन मिल गया। दस पैसे ने अशर्फ़ी का मोल पा लिया था। कंडक्टर की ओर उसे बढ़ाते हुए उसने बड़े संयत स्वर में कहा - ’’आई पी कॉलेज।’’

 

इस तरह, बीस मिनट का समय और दस पैसे गँवा कर मधुकर ने कुल दो-ढ़ाई फ़र्लांग की यात्रा की और आई पी कॉलेज के स्टॉप पर भारी कदमों से उतर गया। अभी तीन-साढ़े तीन मील का सफ़र और बाक़ी था। उसकी आज की यात्रा का पहला पड़ाव दरियागंज था, जहाँ से निकलने वाले मासिक पत्र वसुधामें दो महीने पहले उसकी एक कहानी छपी थी और जिसका पारिश्रमिक अब तक उसे प्राप्त नहीं हुआ था। मधुकर के अधरों पर एक स्मिति-रेखा खिंच गयी, अपने भाग्य की विडम्बना पर उसे अनायास ही हँसी आ गयी थी। उसने जेब से चारमीनार का पैकेट और माचिस निकाल कर सिगरेट जलायी, फिर चिन्ता-सागर में तैरता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगा।

 

इस समय उसे अपने बूढ़े पिता की याद आ रही थी, जिन्हें पिछले छह महीने से एक पैसा भी नहीं भेज पाया था। इस बीच उनकी कम-से-कम पन्द्रह चिट्ठियाँ आयी थीं और हर चिट्ठी को पढ़ कर मधुकर का कलेजा मुँह को आ गया था। उसने हर बार निश्चय किया था कि इस बार जैसे ही कुछ रक़म हाथ आयेगी, उन्हें भेज देगा; पर भेज वह कुछ भी नहीं सका था, सिवाय आश्वासन भरी चिट्ठियों के। जो व्यक्ति अपने बच्चों का पेट नहीं भर सकता था ठीक से, पत्नी का तन नहीं ढँक सकता था मोटे-झोंटे से, वह कैसे कुछ भेजता अपने माँ-बाप को, जो छः सौ मील दूर बैठे थे और सम्भवतः पेट भरने लायक कमा भी रहे थे। फिर भी, मधुकर चाहता ज़रूर था उनके पास कुछ भेजना। शुरू से ही वह उनके पास कुछ-न-कुछ भेजता रहा था। इसे वह अपना कर्तव्य मानता था। 

 

पर आज उसकी मनःस्थिति कुछ और ही थी। वह एकदम दूसरे ढंग से सोच रहा था आज - बुढ़ऊ सोचते होंगे कि दिल्ली में हम लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। उन्हें क्या पता कि उनकी पतोहू और पोते नंगे फिर रहे हैं; कंगालों की तरह आधा पेट खाकर जी रहे हैं; बेटा चार-चार मील पैदल चल कर इस तरह बकाया माँगने जाता है, जैसे भीख माँगने निकला हो। उनकी कितनी भी बुरी अवस्था होगी, तो पेट में खाना और तन पर कपड़े तो मिलते ही होंगे। घर अपना है, किराये का कोई सवाल ही नहीं - उलटे दस-पाँच रुपये किराये के भी मिलते होंगे। फिर, दस-बीस चिट्ठियाँ लिखाने वाले भी आ ही जाते होंगे। अभी नहीं फैली है इतनी शिक्षा कि हर कोई अपनी चिट्ठी ख़ुद लिख ले। पर उन्हें क्या चिन्ता हमारी। पैसे माँगना उनका अधिकार है और अपने अधिकार को कौन छोड़ना चाहता है। वे भी क्यों छोड़ें, तगादा करते जाते हैं ...।

 

तभी बिलकुल पास से किसी मोटर का कर्कश हॉर्न सुनायी पड़ा। मधुकर ने चैंक कर देखा - वह अपने विचारों में खोया हुआ एक सड़क पार कर रहा था और एक कार उससे सट कर आ खड़ी हुई थी। अब, कार ड्राइवर से उसकी जो आँखें मिलीं, तो जैसे धमाका हुआ - ’’मरने का इरादा करके निकले हो क्या?’’ मधुकर से कोई जवाब न बन पड़ा इसका। वह लज्जित-सा, जल्दी-जल्दी आगे बढ़कर फ़ुटपाथ पर आ गया और दसेक सेकण्ड बाद ही विचारों की टूटी श्रृंखला पुनः जुड़ गयी - हर कोई अपने ही स्वार्थ में डूबा हुआ है। पैसे के लिए तो वे बार-बार तगादा करते हैं, पर मेरी कहानियाँ पढ़ने की उन्हें कभी फ़ुरसत न मिली। कभी एक शब्द भी जो लिखा होता उनके बारे में। प्रशंसा न की होती, सिर्फ़ यही कहा होता कि मैंने तुम्हारी अमुक रचना पढ़ी। पर, उन्हें क्या मतलब मुझसे, मेरी रचनाओं से, मेरी सफलता से। क्यों समय बर्बाद करें मेरे पीछे। हुँह! कहावत सभी कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती, पर चाहता हर कोई यह है कि ताली एक ही हाथ से बजे - मुझे कोई तक़लीफ़ उठानी न पड़े। ... मैं भी अब भेज चुका रुपये। ले लेंगे रुपये। जब आपको मेरी चिन्ता नहीं, तब मुझे ही क्यों हो आपकी चिन्ता? क्यों होनी चाहिए? बिलकुल नहीं होनी चाहिए। इसमें अनुचित कुछ भी नहीं है।

 

इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद मधुकर के चिन्तन-क्रम ने एक करवट ली और वह साहित्यकारों की दयनीय आर्थिक स्थिति पर आ गया - इसकी पूरी ज़िम्मेदारी प्रकाशकों पर है - पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशकों पर। काग़ज़ और छपाई का ख़र्च देते समय उनकी जान नहीं निकलती, पर जहाँ लेखकों को पारिश्रमिक देने की बात आयी कि जूड़ी बुख़ार चढ़ आया।

 

लेकिन तभी उसे कुछ ऐसी पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशकों की याद आयी, जो रचनाओं के छपने से पहले ही लेखकों को पारिश्रमिक चुका देते थे, और अगले ही क्षण उसका स्वर भीग गया - काश! सभी प्रकाशक ऐसे ही होते। इतनी ही समझदारी होती सब में। फिर क्यों भूखों मरते साहित्यकार? उन्हें क्यों बेचना पड़ता अपना आत्म-सम्मान? वे भी आदमी की तरह जी तो सकते। उनकी बीवियाँ और बच्चे भी आदमी की बीवियाँ और बच्चे तो अनुभव करते अपने को। यह भी कोई बात हुई कि एक रचना लेकर साल-साल तक दाबे बैठे रहें, फिर छापने के बाद छह महीने पारिश्रमिक के लिए इन्तज़ार करायें। कैसी शर्मनाक बात है यह, अपने तो पाँच-पाँच सौ रुपये लोगों के यहाँ बाक़ी रहें और साठ रुपये के लिए कोई ऐरा-ग़ैरा आँखें दिखा जाये।

 

और तब, एक तीसरी बात उसके सामने उभरी - लेकिन यह साहित्यकार नाम के जानवर भी तो ऐसे ही हैं। अगर सब ईमानदारी से अपना काम करें और मिलकर रहें, तो क्यों हो उनका शोषण। पर यहाँ तो गुटबन्दी से ही फ़ुरसत नहीं है उन्हें! तीन कहानियाँ और कविताएँ लिख कर चाहते हैं कि इतिहास में नाम आ जाये और इसके लिए बनाते हैं गुट, फँसाते हैं प्रकाशक - साहित्य को करते हैं पीछे और राजनीति को लाते हैं आगे। लड़ते-मरते हैं आपस में। फिर तो यह होगा ही। कोई अमर नहीं होने का इस तरह! सुरा, सुन्दरी और राजनीति ने आजतक किसी को नहीं उबारा। फिर यही कैसे उबरेंगे? ये बुलबुले तो फूटेंगे ही एक दिन - कोई रोक नहीं सकता इन्हें फूटने से। नया-पुराना और आद-वाद। क्या होता है यह सब साहित्य में? सब गुमराह हैं। ... गुमराह दिखायेगा दूसरों को राह। हुँह ... और मधुकर ने घृणा से भर कर एक ओर थूक दिया।

 

इसी तरह के विचारों में डूबा, लगभग सवा दस बजे, मधुकर वसुधा के कार्यालय में पहुँचा। अब उसके मन में एक नयी शंका उठी - कहीं ऐसा न हो कि बेटा हो ही नहीं। फिर तो कनॉट प्लेस तक क्विक मार्च ही करना पड़ेगा। सिगरेट भी ख़त्म हो चुकी है। आख़िर, उसने बाहर हॉल में बैठे क्लर्कों में से ही एक से सहमते-सहमते पूछ लिया - ’’रवीन्द्रजी आ गये हैं न?’’ और फ़ैसले के दिन जिस कातरता से अभियुक्त न्यायाधीश का मुँह ताकता है, उसी कातरता से वह क्लर्क के होंठों का फड़कना देखने लगा।

 

’’जी हाँ, अभी-अभी आये हैं। अन्दर ही हैं!’’ - कहकर क्लर्क ने सम्पादक का तख़्ता लटके केबिन की ओर इशारा कर दिया।

 

मधुकर ने मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दिया, फिर हल्के कदमों से सम्पादक के कमरे की ओर बढ़ा।

 

ज्यों ही मधुकर अन्दर पहुँचा, रवीन्द्रजी ने, अपनी कुर्सी से उठकर ’’आइए-आइए, मधुकरजी!’’ कहते हुए अपना एक हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।

 

हाथ मिलाकर मधुकर बैठ गया और तब रवीन्द्रजी मुस्कराते हुए बोले - ’’बहुत दिन बाद दर्शन दिये इस बार। कहिए, मज़े में तो हैं न?’’

 

’’जी हाँ, सब कृपा है आपकी! अपनी बताइए!’’

 

’’ठीक ही है सब। जब आप जैसे साहित्यकार हमारे साथ हैं, तब फिर क्या चिन्ता मुझे।’’ - रवीन्द्रजी थोड़ा रुके, फिर बोले - ’’लेकिन भाई, आपकी कोई कहानी नहीं आयी इधर। यह भी क्या बात हुई कि हर बार मुझे ही कहना पड़े।’’

 

’’नहीं-नहीं, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं ख़ुद ही भेज दूँगा। दरअसल, इधर बड़ा व्यस्त रहा मैं, सो कोई कहानी लिख ही नहीं सका।’’

 

’’ख़ैर, तो अब भेज दीजिए। कहिए, कल-परसों तक भेज देंगे?’’ - बोलकर रवीन्द्रजी ने घण्टी बजायी।

 

’’अगर पूरी हो गयी, तो अवश्य भेज दूँगा।’’

 

’’अब अगर-मगर छोड़िए। पूरी तो करने से होगी न! प्लीज़! ज़रूर भेज दीजिए!’’

 

तभी चपरासी ने कमरे में प्रवेश किया और रवीन्द्रजी ने उसे चाय लाने का ऑर्डर दिया, फिर कहने लगे - ’’पैसे अभी ज़रूर नहीं दे पाते हम पूरा ... मेरा मतलब है, दूसरी पत्रिकाओं की तुलना में; पर विश्वास मानिए, अगर हमारी स्कीम सफल हो गयी, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम एक कहानी के पचहत्तर-सौ नहीं, पूरे पाँच सौ देंगे। बस, यही है कि आपका सहयोग हमें मिलता रहे!’’

 

’’आप निश्चिन्त रहें, रवीन्द्रजी! सहयोग आपको मिलेगा, अवश्य मिलेगा। जब आप लेखकों का ध्यान रखेंगे, तब लेखक भी आपका ध्यान रखेंगे ही। और फिर, पैसा ही तो सब-कुछ नहीं है - आदर-मान भी तो एक चीज़ है ... ’’

 

’’यह कही आपने बात! हम तो, भाई, जितना भी बन पड़ता है, अपने लेखकों को मान देते हैं। फिर पैसे का ख़याल न हो - ऐसा भी नहीं है। अब यही देखिए न, इस महीने से एक कहानी के तीस से पैंतीस रुपये कर दिये हैं। जितना कुछ हमसे हो रहा है, वह सब हम कर रहे हैं, फिर भी दूसरों के बराबर आने में कुछ समय तो लगेगा ही। हाँ, उग्रतारा वाले क्या दे रहे हैं आजकल?’’

 

’’पिछली बार तो सौ भेजे थे। अब की नहीं जानता।’’ - मधुकर ने बड़े सहज भाव से कहा।

 

सुनकर रवीन्द्रजी की भवें थोड़ी सिकुड़ीं, पर जल्दी ही फैल भी गयीं - ’’ख़ैर यह कोई बड़ी बात नहीं है। ईश्वर ने चाहा, तो साल बीतते न बीतते हम भी सौ नहीं, तो श्यामा के बराबर, मतलब पचहत्तर रुपये पर, तो पहुँच ही जायेंगे।’’

 

’’वह तो ठीक है, रवीन्द्रजी! जैसे-जैसे सम्भव हो, पारिश्रमिक की रक़म बढ़ाइए, पर एक बात, मेरे विचार से, आपको अभी से कर देनी चाहिए ... ’’

 

’’हाँ-हाँ, कहिए, कौन-सी बात?’’

 

’’एडवान्स पेमेण्ट की व्यवस्था। इसके बिना बड़ी दिक्कत हो जाती है। अब यही देखिए न, मार्च के अंक में मेरी कहानी छपी थी, पर मई हो गयी, पैसे अब तक नहीं मिले। चाहे कम ही मिले, पर समय पर तो मिले!’’

 

’’ऐं? पैसे नहीं मिले आपको? अच्छा? मैं नोट किये लेता हूँ। जाँच करके तुरन्त भिजवाता हूँ - एक-दो दिन में ही।’’ और रवीन्द्रजी ने पेन्सिल उठा ली।

 

’’इसमें जाँच क्या करनी है, रवीन्द्रजी? मैं ग़लत थोड़े ही कहूँगा आपसे। दरअसल, मुझे बड़ी सख़्त ज़रूरत आ पड़ी है, इसलिए भागा-भागा आया आपके पास।’’ मधुकर ने भागते बैल की पूँछ पकड़ी।

 

तभी चपरासी ने चाय के दो प्याले सामने लाकर रख दिये।

 

’’अच्छा-अच्छा! कोई बात नहीं। चलिए, चाय तो पीजिए।’’ और चाय की सिप लेते हुए रवीन्द्रजी ने पुनः घण्टी बजायी।

 

चपरासी हाज़िर हुआ, तो उसे ख़ज़ांची को बुलाने का आदेश मिला।

 

थोड़ी ही देर में ख़ज़ांची आ पहुँचा और रवीन्द्रजी ने उसे तीस रुपये और एक वाउचर लाने का हुक़्म दिया।

 

मधुकर ने टोका - ’’तीस या पैंतीस?’’

 

ख़ज़ांची चलते-चलते रुक गया।

 

रवीन्द्रजी मुस्करा पड़े - ’’वह तो इस महीने से किया है न। अगली कहानी के पैंतीस ही दूँगा।’’

 

’’यह इस महीने, उस महीने क्या भाई! आख़िर, पेमेण्ट तो मैं इसी महीने ले रहा हूँ। पाँच रुपये से ऐसा बन-बिगड़ भी क्या जाएगा आपका!’’ - मधुकर ने तनिक शिकायत के लहजे में कहा।

 

रवीन्द्रजी पुनः मुस्कराये - ’’अच्छा भाई, पैंतीस ही सही। आपको ही पहला बढ़ा हुआ पेमेण्ट। अब तो ख़ुश! ख़ज़ांची साहब, पैंतीस ही ले आइए।’’

 

और, कोई दस मिनट बाद मधुकर जब तुरन्त कहानी भेजने की चेतावनी पाकर वसुधा के कार्यालय से रवाना हुआ, तब उसकी जेब में पैंतीस रुपये थे। मात्र पैंतीस रुपये, पर अद्भुत परिवर्तन आ गया मधुकर में। रुपये केवल अच्छे-भले आदमी को पागल ही नहीं बनाते, बल्कि पागलपन का इलाज भी करते हैं - इसे भलीभाँति सिद्ध कर रही थी मधुकर की स्थिति। वह अब काफ़ी संयत हो चुका था - किसी के भी प्रति कोई दुर्भावना शेष नहीं रही थी उसके मन में। जेब में रुपयों की उपस्थिति ने समझदारी और करुणा की एक शान्त धारा बहा दी थी उसके अन्दर।

 

दरियागंज से वह बस पकड़कर कनॉट प्लेस के लिए रवाना हुआ। वहाँ से निकलने वाले मासिक शाश्वत-कथा में पिछले महीने उसकी एक कहानी प्रकाशित हुई थी, और एक कहानी के वे लोग पचास रुपये देते थे। यों, उसके पैसे बाक़ी तो दो और पत्रिकाओं में थे पर वे पत्रिकाएँ सरकारी थीं और हाथोहाथ वहाँ से पैसे मिलने की कोई गुंजायश न थी। इसी तरह, एक दूतावास से भी उसे अनुवाद के दो सौ रुपये लेने थे पर इनमें भी वही सरकारी पत्रिकाओं वाला सिलसिला था। मधुकर को इस समय उनकी विशेष चिन्ता भी नहीं थी, क्योंकि शाश्वत-कथा वाले पैसे मिल जाने से ही उसका काम चल जाता।

 

पर शाश्वत-कथा के पैसे उसे न मिल सके। सम्पादक विलक्षणजी ने उसे बताया कि बिना मैनेजर के हस्ताक्षर के पेमेण्ट नहीं हो सकता और मैनेजर अभी तीन-चार दिन के लिए दिल्ली से बाहर गया हुआ है। विलक्षणजी ने जो यह सब बताया, वह भी बड़ी रुखाई से। वस्तुतः यह रूखापन ही उनकी विशिष्टता थी। वे हँसकर, ढंग से बाते करते थे केवल उन लोगों से, जो अक्सर उन्हें नमस्कारकरने चले आते थे और कभी-कभार मिल्क-बार या कॉफ़ी हाउस भी ले जाते थे। मधुकर में ये सब गुण कहाँ। फिर भी यदा-कदा विलक्षणजी उसकी कहानियाँ छाप देते थे, यही क्या कम था। वे मुफ़्त का और कितना एहसान करते उस पर। पर मधुकर ने उनकी मर्यादा का कोई ध्यान रखे बिना ही कह दिया - ’’लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी तो कार्यालय का काम चलता ही होगा। किसी-न-किसी को तो अधिकार सौंप ही गये होंगे। अगर आज पेमेण्ट करा देते, तो बड़ी कृपा होती। बहुत सख़्त ज़रूरत आ पड़ी है।’’           

  

विलक्षणजी नाराज़ हो गये और जिस अन्दाज़ से वे अपने सहायक से बात करते थे, उसी अन्दाज़ से बोल उठे - ’’आप समझते हैं, मैं आपको जान-बूझ कर पैसे नहीं दिला रहा हूँ? अजीब आदमी हैं आप भी! एक तो कहानी छाप दी और ऊपर से इल्ज़ाम। बाज़ आये हम ऐसे परोपकार से।’’

 

मधुकर सकपका गया, बोला - ’’आप तो नाराज़ हो गये, विलक्षणजी! दरअसल, मजबूरी ही कुछ ऐसी आ गयी है। अब आप ही बताइए, अपना सुख-दुःख आप-जैसे शुभचिन्तक से न कहूँ, तो किससे कहूँ। लेकिन जब सम्भव नहीं है, तब फिर क्या किया जा सकता है। कुछ और व्यवस्था करूँगा। आप परेशान न हों।’’

 

शुभचिन्तकशब्द ने विलक्षणजी के अहम् को सहला दिया था और वे मुलायम पड़ गये थे, बोले - ’’भाई, सम्भव होता, तो मैं स्वयं ही कर देता। मैं यहाँ बैठा और किसलिए हूँ। आज आप किसी तरह काम चला लीजिए। मैनेजर साहब के आते ही मैं पैसे भिजवाने की व्यवस्था कर दूँगा, या फिर, आज 14 तारीख़ है न, आप 18 को आ जाइए - पेमेण्ट करा दूँगा।’’

 

’’जैसी आज्ञा। मैं 18 को पुनः दर्शन करूँगा।’’ मधुकर ने कहा और नमस्कार करके बाहर निकल आया।

 

थोड़ी देर बाद नौ नम्बर की एक बस आयी और मधुकर उसमें सवार हो गया। अब और कहीं जाने का कोई लाभ न था। बस में बैठे-बैठे ही उसने निश्चय किया कि तीस रुपये वह मकान-मालिक को देगा और शेष बचे तीन-चार रुपयों से किसी तरह दो-तीन दिन निकालेगा। इसी दौरान अगर प्रतिभासे भी मनीऑर्डर आ गया, तो फिर पूछना ही क्या। वे पैसे भी आ ही रहे होंगे। उनका पत्र पिछले ही सप्ताह आ गया था। और, अगर कुछ न हुआ, तो भूखे रह लेंगे, पर यह मकान-मालिक की बला तो टल जायेगी सिर से। - मधुकर ने राहत की एक साँस ली।

 

तभी बस मण्डी हाउस के स्टॉप पर रुकी और एक भद्र महिला दो बच्चों के साथ उसमें सवार हुई। महिला सुन्दर थी - गोरी-चिट्टी, शैम्पू किये हुए फूले-फूले केश उसकी सुन्दरता में और भी वृद्धि कर रहे थे। उसने हैंडलूम की अच्छी-सी चालीस-पैंतालीस की साड़ी पहन रखी थी और उसी से मैच करता हुआ ब्लाउज़ - पाँवों में सफ़ेद ख़ूबसूरत चप्पलें थीं। दोनों बच्चे भी हृष्ट-पुष्ट थे। उन्होंने अच्छे क़ीमती कपड़े के निकर और कमीज़ें पहन रखी थीं और पाँवों में मोज़े तथा बूट। मधुकर की जो उन पर दृष्टि पड़ी, तो मन्त्र-मुग्ध-सा वह तब तक उन्हें निहारता रहा, जब तक गैंगवे में वे बढ़ते रहे और तीन-चार सीट आगे जाकर बैठ नहीं गये। उनके बैठ जाने के बाद भी उसकी दृष्टि उन पर से हट नहीं पायी। हाँ, एक नयी बात अवश्य हुई - उसका मानस बेहद चंचल हो उठा। उस महिला और दोनों बच्चों का स्थान उसकी शालिनी और अन्नू-मन्नू ने ले लिया था।

 

कितना भयानक अन्तर। - मधुकर के मानस में आँधी चलने लगी - कौन कह सकता है कि दोनों तस्वीरें एक ही दुनिया की हैं। नहीं, यह तो स्वर्ग और नरक का अन्तर है। पर क्यों है यह अन्तर? कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए? क्या मेरी शालिनी कुछ कम सुन्दर है? मेरे बच्चे कुछ कम मासूम-ख़ूबसूरत हैं? फिर क्यों इन्हें छूने को मन करता है और उन्हें देखते ही आनन्दमठ का दुर्भिक्ष स्मरण हो आता है? टी बी की मरीज़-सी शालिनी और गिलटावन बच्चे। ... यह सब मेरा कसूर है, और किसी का नहीं। मैं भी अगर उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़े दूँ, आराम दूँ, अच्छी तरह पालूँ-पोसूँ, तो वे भी ऐसे ही लगेंगे - फूल-से कोमल लुभावने। मेरी शालिनी की भी एड़ियाँ ख़ून की तरह लाल हो सकती हैं ... पर मैंने उनमें बवाई डाल रखी है। ... नहीं, इस बार एम्बैसी के पैसे लेकर मैं सबको ढंग के कपड़े दूँगा। अपनी पढ़ाई-लिखाई मैं और बढ़ाऊँगा, और अधिक मेहनत करूँगा, छोड़ दूँगा मजनूँ के टीले को। मैं भी अब अच्छी ज़िन्दग़ी बिताऊँगा। स्कूल- कॉलेज में मैंने शिक्षा नहीं पायी है, तो क्या - किस एम ए से कम हूँ ज्ञान में? न होगा, मैं भी परीक्षाएँ दूँगा, पास करूँगा। मुझे भी आगे बढ़ना ही होगा। मेरी शालिनी, मेरे अन्नू-मन्नू, अब और नहीं रहेंगे इस तरह। यह कितना बड़ा पाप कर रहा हूँ मैं। उफ़् ... इसी तरह के विचारों में वह उलझा रहा और तपती सड़क पर बस दौड़ती रही। आख़िर, जब कंडक्टर ने ’’खैबर पास कोई है’’ का नारा लगाया, तब वह एक झटके के साथ अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और बस के रूकते ही इस तेज़ी से नीचे उतर गया, जैसे अगला कदम ही उसकी ज़िन्दग़ी की मंज़िल हो।

 

भरी दुपहरी में, कोई एक बजे, मधुकर अपनी कुटिया में लौटा, तो पसीने से उसके कपड़े भीगे हुए थे। वह जूते उतार कर धम्म् से चटाई पर बैठ गया। तभी बाहर गली में लगे नल पर नहा कर शालिनी लौटी और बिना बाल झाड़े या ठीक से कपड़े पहने ही, जल्दी-जल्दी माँग में सिन्दूर डाल, हाथ में पंखा लिये मधुकर के पास आ गयी और उसे हवा करने लगी। इसके साथ ही उसकी दृष्टि मधुकर के चेहरे से उसकी सफलता-असफलता की थाह पाने की चेष्टा भी करती रही। पर उसने पूछा कुछ नहीं। थके-माँदे से क्या पूछना? इतनी शिष्टता-समझदारी थी उसमें!

    

दो-चार मिनट ऐसे-ही बीते और तब मधुकर ने पूछा - ’’डाकिया आया था?’’

 

’’हाँ!’’ - बोलकर शालिनी ने पास ही सन्दूक पर पड़ा लिफ़ाफ़ा उसकी ओर बढ़ा दिया।

 

लिफ़ाफ़ा फटा हुआ था, यानी शालिनी उसे पढ़ चुकी थी।

 

’’और कुछ नहीं?’’ - मधुकर ने बड़े आहत स्वर में प्रश्न किया।

 

’’उहूँ!’’ - छोटा उत्तर मिला।’’

 

’’क्या लिखा है पिताजी ने?’’ - मधुकर ने लिफ़ाफ़े से पत्र निकालते-निकालते एक रूटीन-सा प्रश्न कर दिया, फिर स्वयं ही उत्तर दे दिया - ’’रुपये माँगे होंगे, और क्या!’’ और, उसकी दृष्टि पत्र की पंक्तियों पर फिसलने लगी। लिखा था –

 

’’प्रिय बेटे!

 

’’दस-बारह दिन पहले भी एक पत्र लिखा था। जवाब नहीं आया। न-जाने किस हालत में हो तुम लोग। समाचार नहीं मिलने से जी बड़ा घबराता है। बहू-बच्चे अच्छी तरह तो हैं न? तुम भी स्वस्थ-सानन्द तो हो न? अगर पास रहते, तो ग़रीबी चाहे जितनी रहती, इस तरह की चिन्ता तो न सताती। अपना कुशल-समाचार तुरन्त दो और अगर काम-धाम का कोई प्रबन्ध न होता हो, तुम तक़लीफ़ में हो, तो दिल्ली छोड़ दो। चले आओ यहाँ। कुछ-न-कुछ तो किया ही जायेगा। मुझसे कैसा छुपाव-दुराव। मुझे लगता है कि तुम लोग ज़रूर संकट में पड़े हो - मुझे बताते नहीं हो। यहाँ का भी समाचार कुछ ख़ास अच्छा नहीं है। डाकख़ाने में बैठा-बैठा दिन-भर मक्खियाँ मारता हूँ। बड़ी मुश्किल से तीन-चार आदमी चिट्ठी लिखाने या मनीऑर्डर फ़ॉर्म भराने आते हैं। हमारी हालत इसी से समझ सकते हो कि इस महीने तुम्हारी लिखी कहानी वाली कोई पत्रिका न ख़रीद सका, जबकि हर महीने भूखे रह कर भी मैंने वह हर पत्रिका ख़रीदी है, जिसमें तुम्हारा कुछ छपा है। मुझे और तुम्हारी माँ, दोनों को ही एक अपूर्व सन्तोष मिलता है तुम्हारी रचनाएँ पढ़-सुन कर - हम अपनी भूख-प्यास भूल जाते हैं। पर इस महीने हम उससे भी महरूम हो गये। ... लेकिन चिन्ता मत करो। आ जाओ। साथ रहेंगे, तो एक दूसरे का सहारा होगा - कोई राह भी निकलेगी ही। अपने आने की ख़बर तुरन्त दो। सौभाग्यवती बहू और प्यारे बच्चों को हमारा हार्दिक आशीष कहो।

 

’’तुम्हारा,

 

’’रामलाल’’

 

पत्र समाप्त करते-करते अजीब दशा हो गयी मधुकर की। उसका शरीर शिथिल पड़ गया, आँखें गीली हो गयीं, दिल भर आया। उसने एक कातर दृष्टि डाली शालिनी पर, जो गुम-सुम पत्थर की प्रतिमा की तरह बगल में बैठी पंखा झल रही थी। पर उसकी दृष्टि अधिक देर तक सह न सकी शालिनी की आँखों में छलछलाती दीनता को - पल भर बाद ही नीचे झुक गयी। और तब, मधुकर के अवरुद्ध कंठ ने अपनी भूमिका अदा की - ’’पिताजी सचमुच बड़े कष्ट में हैं।’’

 

’’हूँ!’’ - सम्भवतः शालिनी भी कुछ कम द्रवित न थी उनकी स्थिति का अनुमान लगा कर।

 

’’अच्छा, मैं अभी आया!’’ - बोल कर मधुकर अचानक उठ खड़ा हुआ और जूते पहनने लगा।

 

’’अब कहाँ चले इस दुपहरी में?’’ - शालिनी के मुँह से इतनी देर में पहला लम्बा वाक्य निकला।

 

’’कुछ इन्तज़ाम तो करना ही पड़ेगा। ज़रा ओल्ड सेक्रेटेरियट जाता हूँ।’’ - बोलते-बोलते मधुकर बिजली की-सी गति से बाहर निकल गया।

 

कोई घण्टे-भर बाद जब वह वापस लौटा, तब दो-चार मिनट की चुप्पी के बाद सहमते-सहमते शालिनी ने प्रश्न किया - ’’हुआ कुछ इन्तज़ाम?’’

 

’’हाँ, हो गया।’’ - मधुकर ने बड़े बुझे स्वर में कहा और सिविल लाइन्स पोस्ट ऑफ़िस से भेजे गये तीस रुपये के तार-मनीआर्डर की रसीद उसे थमा दी।

 

’’किसी से कर्ज़ लिया क्या?’’ - शालिनी ने अचकचा कर पूछा।

 

’’हाँ शालू, आज मेरे आत्म-सम्मान का यह सम्बल भी टूट गया। अब मैं पूरी तरह एक ग़रीब-मुहताज हूँ!’’ मधुकर ने भर्रायी आवाज़ में उत्तर दिया और दोनों हथेलियों से अपनी आँखें भींच लीं।