गुरुवार, 29 अगस्त 2024

झूठी शान

यह कहानी किन्ही राजा-रानी की नहीं, जो घोड़े पर बैठ कर युद्ध करते और फिर किसी ऋषि-मुनि के आश्रम में जा कर वरदान माँगते। नहीं, यह कहानी किसी बंदर-भालू की भी नहीं जो शेर की जगह अपना राजा किसी और को बनाते और फिर किसी मुसीबत में तब तक फँसे रहते जब तक चतुर ख़रगोश उन्हें उस मुसीबत से उबार न लेता। यह कहानी किसी मनगढ़ंत परी या प्रेत की भी नहीं, जो हमारे सुन्दर-सुन्दर, नन्हे-नन्हे, बच्चों का दिल ख़ुश करने को, या उन्हें डराने के लिए सुनाई जाए।

          यह कहानी है एक बच्चे की। कहानी क्या है, सच्ची बात है। ग़ौर कीजिए, तो ऐसी कहानियाँ हम सबके बारे में कही जा सकती हैं। आख़िर हम सब में कोई-न-कोई कमी तो होती ही है; कोई-न-कोई ऐसी कमज़ोरी तो होती-ही है जिसे दूर करने या स्वीकार करने की बजाय हम उसे छुपाने की कोशिश करते हैं। यही वजह है जिससे पुकून मुश्किल में फँसा, इस कहानी का जन्म हुआ, और मैं आपके पास पहुँच गया यह कहानी सुनाने!

          पुकून! नाम बड़ा अजीब-सा है न? भला इसका क्या मतलब हो सकता है? पुकून बंगाली था। बंगला में उकून कहते हैं खटमल को। लाल-लाल, छोटे-छोटे कीड़े होते हैं खटमल। गद्दों, कुर्सियों, खाटों में छुपे रहते हैं ये। जैसे-ही आप आराम फ़रमाने को बैठें या लेटें, ये खटमल बड़ी मुस्तैदी से आपका ख़ून चूसने लग जाते हैं। उठिए, बत्ती जलाइए और खोजिए, तो खटमल वैसे ही ग़ायब मिलेंगे जैसे गधे के सर से सींग। बत्ती बुझाइए, लेटिए, और खटमल आपके गरमागरम ख़ून का मज़ा वैसे ही लेने लगेंगे जैसे गर्मियों में आप लस्सी, शर्बत या सॉफ़्ट ड्रिंक का मज़ा लेते हैं।

          पुकून से सॉफ़्ट ड्रिंक पर कब चली गई बात, पता ही नहीं चला। ख़ैर! जब मैं पुकून से पहली बार मिला, तो, झिझकते हुए मैंने उससे पूछा, पुकून! तुम्हारा नाम पुकून क्यों है? उकून का मतलब तो खटमल होता है, मुझे पता है। पर, पुकून का मतलब क्या होता है?

          पुकून ने समझाया कि उसका नाम पुकून नहीं, पुलकेंद्र नाथ है। पुकून तो सहूलियत के लिए उसे पुकारते हैं। उसने ये भी बताया कि उसके नाम और खटमल के बीच कोई सम्बन्ध नहीं। खटमल किस बला का नाम है, उसे पता ही नहीं। उसे तो खाट के बारे में भी मालूम नहीं।

          मुझे अचरज हुआ। रेलवे प्लेटफ़ॉर्म की बेंच हो या स्कूल में चपरासी की साढ़े तीन टाँग की कुर्सी या नुक्कड़वाले हलवाई की तेल से सनी-पुती मचिया; मुझे तो इन सभी में खटमल के दर्शन अनचाहे भी अक्सर हुआ करते थे। इधर ये पुकून, उकून यानी खटमल के नाम से मिलता-जुलता नाम होने के बावजूद, खटमलों के बारे में जानता तक नहीं था। यह तो, सरासर, दीपक तले अँधेरा जैसी बात थी! फिर भी, न जाने क्यों, मुझे पुकून अच्छा लगा। मैंने उससे दोस्ती करने की ठान ली।

          अगले दो दिन पुकून आया नहीं। मैं परेशान! शायद मुझे उसे खटमलवाली बात नहीं बोलनी चाहिए थी। कहाँ ख़ून चूस-चूस कर मोटे हुए खटमल, और कहाँ वो पतला-दुबला, नाज़ुक-सी अपनी नाक पर मोटे-मोटे शीशोंवाले स्टीलफ्रेम के चश्मे को सँभाले पुकून! पुकून ने ज़रूर सोचा होगा कि मैं दोस्ती करने के लायक नहीं हूँ।

          मुझे पुकून से दोस्ती का अपना इरादा ताश के महल-सा बिखरता नज़र आया। लेकिन तभी नज़र आया जल्दी-जल्दी हिलता हुआ एक हाथ, कुछ वैसे ही, जैसे बरसात के दिनों में मोटरों के विंडस्क्रीन पर  वाइपर हिला करते हैं। बस, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि यह कोई वाइपर नहीं था, सचमुच का इंसानी हाथ था - और वह भी पुकून का। मुझे ऐसी ख़ुशी हुई जैसी भूखे को एक किलो जलेबी देख कर होती है।

          "ओ पुकून, मेरे दोस्त, तुम कहाँ थे इतने दिन, मैं तुम्हें खोजता रह गया था।" मैंने ख़ुशी में काँपती आवाज़ में पूछा।

          "मैं इंग्लैंड चला गया था" - पुकून ने लापरवाही से कहा।

          मैं सकते में आ गया। इंग्लैंड? यहाँ तो मैं महीने-दो-महीने में  सिनेमा देखने जाता हूँ, तो सारे मुहल्ले को बता देता हूँ कि फलाँ सिनेमा देखने गया था फलाँ दिन, और ऐसा-ऐसा हुआ वहाँ; और यह पुकून है कि गया तो था इंग्लैंड, पर बता ऐसे रहा है जैसे प्रिंसिपल से पिटाई खाने गया हो।

          "मेरी बुआ रहती हैं वहाँ। उनका बर्थडे था। मन तो बहुत था वहाँ रहने का, लेकिन स्कूल भी तो मिस नहीं कर सकता था।"

मुझे दूसरा धक्का लगा। मैं तो हमेशा इसी फ़िराक़ में रहता था कि किसी तरह स्कूल न जाना पड़े। कभी पैर, कभी सर तो कभी पेट में तेज़ दर्द का बहाना कर मैं अक्सर स्कूल जाने से बचा करता था। एक बार तो मेरी भोली-भाली माँ ने पिताजी से कह भी डाला था, " सुनिए जी! बच्चे के पेट में इतना तेज़ दर्द होता है सुबह-सुबह। आज उसे दिखा आइए डॉक्टर मलहोत्रा को।" पिताजी करवट बदलने से पहले बड़बडाए थे कि "हाँ, दिखा देंगे फ़ुर्सत मिलने पर", और मैं निश्चिन्त हो गया था।

          उस दिन के बाद तो मैं जैसे पुकून का चेला हो गया। उसके पीछे-पीछे यूँ घूमता जैसे सब्ज़ी मार्केट में सब्ज़ी लिए ख़रीदारों के पीछे गाय घूमती है। पुकून को भी, लगता है, मेरे जैसे किसी साथी की ही तलाश थी।

          हमदोनों स्कूल में साथ-साथ घूमे उस दिन। वह मेरे सेक्शन में नहीं था, इसलिए पढ़ाई अलग-अलग की। एसेम्बली में भी अलग-अलग कतारों में खड़े हुए। लेकिन, टिफ़िन साथ खाने से हमें कौन रोक सकता था? उधर टिफ़िन की घंटी बजी और इधर मैं चील की तरह पुकून की तलाश में झपटा। उसका खानसामा रोज़ अलग-अलग देश का भोजन बनाता है - उसने सुबह-ही कहा था। मेरे घर में तो माँ वही दाल-रोटी-सब्ज़ी-भात बनाती थीं रोज़। पिताजी की मर्ज़ी चलती, तो खिचड़ी और लौकी के अलावा शायद कुछ नसीब ही न होता। इसलिए, मेरे टिफ़िन बॉक्स की शोभा बढ़ाने को पराठा, रोटी या सैंडविच से हटकर कुछ सोचना भी बेकार था।

          मुझे दूर पुकून दिखाई दिया। मैं अपना टिफ़िन बॉक्स लिए जा पहुँचा उसके पास। चोर नज़रों से देखा, तो उसके टिफ़िन में पराठा-भुजिया था। मैंने हैरत से पुकून को देखा, तो वह मुस्कुराया – "आज इंडियन फ़ूड की बारी है।" मुझे एक और पछाड़ मिली। मैं तो विदेशी चीज़ों के पीछे भागता हूँ, लेकिन यह पुकून तो भारतीय भोजन भी कितने चाव से खा रहा है। लेकिन दिमाग़ और दिल की लड़ाई में हार तो अक्सर दिमाग़ की ही होती है न! दिल ने मरहम-सा लगाया, कल विदेशी खाना मिलेगा।

          पुकून को क्लास में जाने की जल्दी थी। "इंग्लैंड के बारे में बाद में बताऊँगा" कह कर वह भाग लिया क्लास की ओर, और मैं और मेरे टिफ़िन का सैंडविच एक-दूसरे का मुँह ताकते रह गए।

          विदेशी खाना खाने के मामले में मेरे सितारे किसी पंचर हुए फटीचर रिक्शा की तरह बिलकुल मध्यम साबित हुए। दूसरे दिन पुकून ने बताया कि उसका खानसामा बीमार पड़ गया है। बीमार खानसामा भला क्या खाना बनाता?

लेकिन उस दिन पुकून ने बहुत सारी बातें बताईं। जैसे इंग्लैंड में अंडरग्राउंड रेल चलती है, वहाँ बड़ी साफ़-सफ़ाई है, सड़कें चौड़ी-चौड़ी हैं, मौसम ठंडा-ठंडा है, वगैरह। वैसे तो मैं ये सब जानता था, पर सिर्फ़ किताबों, रेडियो या टेलीविज़न के माध्यम से। पुकून तो इंग्लैंड घूम कर आया था। मैं पूरे ध्यान से उसकी बात सुन रहा था - कहीं हल्की सी लापरवाही से ध्यान न बँट जाए और कोई जानकारी न छूट जाए। मेरे कान अटेंशन में थे, आँखें पुकून की हर गतिविधि को देख रही थीं, और मुँह अचरज में खुला रह गया था। वह तो अच्छा था कि आसपास कोई टेबिल टेनिस नहीं खेल रहा था, वरना गेंद मुँह में घुस जाने का ख़तरा था। पुकून बड़े मज़े से बोलता जा रहा था और मैं तन्मयता से सुनता जा रहा था। जब हम अलग हुए, तो पुकून ने बताया कि उसका खानसामा काफ़ी सख़्त बीमार है - दस दिनों से पहले क्या ठीक होगा।

          मेरी दुनिया पुकून के इर्द-गिर्द घूमने लगी। स्कूल में हूँ तो पुकून, घर में हूँ तो पुकून। उसके बारे में बात करने की बड़ी इच्छा होती। उसके बारे में और जानने का भी मन करता। गर्मी की तेज़ दुपहरी में भूरे बरसाती बादल की तरह हो गया था पुकून मेरे लिए। बस, एक हफ़्ते में मैंने उसके बारे में सब जान लिया। उसके पापा देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक थे। नैनी में उनकी बड़ी-सी फ़ैक्ट्री थी। उसके सारे रिश्तेदार विदेशों में रहते थे। कोई इंग्लैंड में, कोई अमरीका में, तो कोई जर्मनी में। वे लोग गर्मी की छुट्टियाँ विदेश में बिताते थे। उनका बड़ा-सा बंगला था, जिसमें नौकर-चाकर थे, बड़ी-बड़ी विदेशी गाड़ियाँ थीं। पुकून की बातें मुझे किसी दूसरे लोक की मालूम पड़तीं। मेरे पिताजी एजी ऑफ़िस में काम करते थे। घर लौटते, तो स्कूटर फ़ाइलों से लदा होता। देर रात तक पिताजी उन फ़ाइलों में सर गड़ा कर न जाने क्या करते। हमारा तो कोई दूर का रिश्तेदार तक विदेश में न था। गर्मी की छुट्टियों में भी पिताजी को छुट्टी न मिलती। अगर भूले-भटके कभी छुट्टी मिल जाती, तो हम सेकेन्ड क्लास में सफ़र कर पिताजी के गाँव चुरामनपुर जाते। हमारा मकान छोटा-सा था। नौकर-चाकर तो थे ही नहीं। और गाड़ी के नाम पर था एक सेकेन्ड हैंड स्कूटर जो हर हफ़्ते किसी मैकेनिक के गराज में उसी नियम से जाता जैसे हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारा और चर्च जाते हैं। मेरा और पुकून का तो कोई मुक़ाबला ही नहीं था। मैं सोचता, काश! मैंने अगर पुकून के घर जन्म लिया होता तो मैं भी कितने मज़े करता।

          एक रात मैं यही सब सोच रहा था। पिताजी रोज़ की तरह दफ़्तर की फ़ाइलें निपटा रहे थे। माँ पुकार रही थीं – "खाना ठंडा हो जाएगा, अब आ भी जाइए।"

          हमसब खाना खाने बैठे। पिताजी की प्रिय लौकी की सब्ज़ी, दाल और गरमागरम रोटियाँ। माँ रोटियाँ सेंक-सेंक कर लातीं। थाली में रोटियाँ कब आतीं, कब ख़त्म हो जातीं, पता ही न चलता। थोड़ी देर में माँ भी आँचल से पसीना पोंछती आईं। बोलीं – "कल की आँधी में शीला का घर गिर गया। बेचारी चौका-बर्तन कर अपना और अपने परिवार का पेट पालती है। उसका पति अपाहिज है। हमें शीला की मदद करनी चाहिए।"

          पिताजी ने बनियान के कोने से चश्मा पोंछा। बोले, "हम! हम भला क्या दे सकते हैं?" फिर कुछ सोच कर बोले, "अच्छा! पानी तो बरसने ही लगेगा कुछ दिनों में। कूलर के लिए जो पैसे जोड़े थे, उन्हीं में से कुछ दे देते हैं। कूलर अगले साल ले लेंगे।"

          मैं शान से बोल उठा, "चिन्ता मत करो, माँ! मेरा दोस्त, पुकून, बड़ा अमीर है। उनलोगों के पास ढेर सारे पैसे हैं। वो लोग आदमी भी बहुत अच्छे हैं। पुकून मेरा बेस्ट फ्रेंड है। मेरी बात टालेगा नहीं। चार-पाँच हज़ार रुपए तो दे ही देंगे उसके पापा। कल शीला के साथ उनके घर चलते हैं।"

          पिताजी मूँछों में मुस्कुराए। बोले, "चलो, ऐसा ही सही।"

          मेरे दिल में उमंग के घोड़े दौड़ने लगे। किसी की मदद हो जाए, इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात और क्या होगी?

          दूसरे दिन टिफ़िन के समय मुझे पुकून नहीं मिला। छुट्टी होते ही मैं गेट पर खड़ा हो गया। शीला और माँ वहाँ पहले से ही मौजूद थीं। शीला मुझे देख कर रुआँसी हो गई। "बाबू! आपका बहुत भला होगा। मेरे छोटे-छोटे बच्चे ज़िंदगीभर आपका एहसान मानेंगे। पुकून बाबू को ऐसे समझाइए कि हमारी कुछ मदद हो जाए।"

          मैं शीला की बात कम सुन रहा था, पुकून को खोज ज़्यादा रहा था। ढूँढ़ने पर तो भगवान भी मिल जाते हैं, यह तो पुकून ही था! वह बस्ता कंधे पर टाँगे, हाथ में पानी की बोतल लिए आ रहा था। मैं बड़े उत्साह से लपका पुकून की ओर। "पुकून, मैं तुम्हें-ही खोज रहा था। ये देखो, ये है ..."

          मेरी बात अधूरी रह गई। शीला उसके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी, "बाबू! हमारी मदद कर दो। आप आदमी नहीं देवता हो। हमारा घर बनवा दो। आप तो इतनी रक़म रोज़ सिनेमा-बाइस्कोप में उड़ा देते होंगे। हम पाँच जीवों की रक्षा हो जाएगी।"

          पुकून हक्का-बक्का अपनी पानी की बोतल के फीते को मरोड़ने लगा। तभी धोती-कुर्ता पहने एक सज्जन पुकून के पास आ खड़े हुए। "की रे, ए की झामेला होच्चे?" फिर शीला से बोले, "हामारा लैड़का को केयों होइरान कोर राही हो? ए तुम्हारा केया बिगाड़े हैं?"

          शीला बोली, "बाबू! आपलोग इतने बड़े आदमी हैं। हमेशा विदेश जाते हैं, इतने कल-कारखाने हैं आपके, इतना बड़ा बंगला है, इतने नौकर-चाकर हैं - हमारी मदद कर दीजिए हमारा टूटा घर बनवा कर।"

          वे सज्जन सब समझ गए। बोले, "बोड़ा आदमी, बीदेश, कौल कारखना, नौकोर-चाकोर - पागोल हो केया? हामारे पास ए शौब कूछ भी नेहीं। ए जौरूर पुकून की बौदमाइशी हाय। उसको झूठा-झूठा शान मारने का बोहोत शौक हाय। आरे, हामलोग तो बोहूत मामूली आदमी हाय। पुकून को लौज्जा लागता है आपने को जायसा हाय वायसा बाताने में। इसीलिए, केया बोलता हाय, हैं, खायाली पोलाव बोनाते रेहता है। माफ कौरना, आपको ईस वाइजा से मित्थे आशा हो गाया।"

          मैंने पुकून से कहा, "पुकून! तुम चाहते तो थे झूठ बोलकर अपने को बहुत बड़ा आदमी दिखाना, लेकिन आज एक ग़रीब-दुखियारी के आँसू भी न पोंछ सका तुम्हारा झूठ। असलियत तो सामने आती ही है। सच भी भला कहीं छुपता है? माँ, शीला, मुझे माफ़ करो। मैं बिना सोचे-समझे पुकून की बातों में आ गया। मुझे उसकी हर चीज़ सच-सुंदर लगने लगी थी और अपनी हर चीज़ ख़राब। शीला, हम तुम्हारी कोई मदद न कर पाएँगे।"

          तभी एक जानी-पहचानी आवाज़ आई – "ऐसा न कहो, बेटा! मैं शीला के लिए पैसे ले आया हूँ। शीला, मुझसे इतना ही बन सका, बस, यही स्वीकार करो।" कहते हुए पिताजी ने शीला के हाथों में रुपए रख दिए। शीला के हाथ जुड़े थे, आँखों से आँसू बह रहे थे, और उसका रोम-रोम हमें आशीर्वाद देता सा लग रहा था।

          मुझे लगा, मेरे माता-पिता ग़रीब होते हुए भी दुनिया के सबसे बड़े आदमी हैं। झूठी शेखी बघारनेवालों से मुझे नफ़रत हो गई। बच्चो, न ख़ुद झूठी शेखी बघारना, न झूठी शेखी बघारनेवालों के चंगुल में आना।

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जन्मदिन का तोहफ़ा

 मेरे प्यारे साथियो! आपको कहानियाँ पढ़ना और सुनना अच्छा लगता है, और मुझे कहानियाँ लिखने में बड़ा मज़ा आता है। तो तैयार हो जाइए, क्योंकि आज की कहानी में तो हम दोनों को और भी ज़्यादा मज़ा आने वाला है। जानते हैं, क्यों? क्योंकि आज की कहानी एक बड़ी प्यारी-सी लड़की के बारे में है। जितनी प्यारी लड़की थी, नाम भी उतना-ही प्यारा था। स्वाति! यही कोई दस साल की थी वह। अब अगर आप यह पूछें कि स्वाति में ऐसा क्या था जिससे वह बड़ी प्यारी लगती थी, तो देखने में तो उसमें ऐसा ख़ास कुछ भी नहीं था। न वो दुबली थी, न मोटी; न लम्बी थी, न छोटी; न काली थी, न गोरी लेकिन फिर भी बड़ी प्यारी लगती थी। ऐसी, कि अगर आपके पास बैठ जाए, तो आप भी उससे बात किए बग़ैर न रहें। अब ऐसा थोड़े ही होता है कि हर सुन्दर बच्चा प्यारा लगे, और बाक़ी बच्चे प्यारे नहीं लगें। है, ? हम दरअसल उन्हें प्यार करते हैं जिनके विचार सुन्दर हों, जिनका मन सुन्दर हो, जो मीठा बोलें, मुस्कुरा कर बात करें, सबका भला करने की कोशिश करें, और किसी को दुःख न पहु्चाएँ। मैं तो, साथियो, हमेशा यही कोशिश करता हूँ कि सबसे अच्छा बर्ताव करूँ, ताकि सब मुझसे प्यार करें। अगर आप भी चाहते हों कि सब आपसे प्यार करें; तो आप भी सबके साथ अच्छा बर्ताव करिए। समझ गए न?

            यह लीजिए! बात हो रही थी स्वाति की, और हम ले बैठे कोई दूसरी-ही बात। तो, स्वाति को गुलाबी रंग बेहद पसंद था। गुलाबी रिबन, गुलाबी फ्रॉक, गुलाबी मोज़े, गुलाबी जूते ज़्यादातर वह गुलाबी रंग से ही लैस रहती। वैसे, कहते हैं, हममें से हर किसी को कोई-न-कोई दुःख, कोई-न-कोई तक़लीफ़ तो होती ही है। है, न! तो साथियो, हमारी स्वाति को भी एक दुःख, एक तक़लीफ़ थी। जहाँ सारे बच्चे बेसब्री से छुट्टियों का इंतज़ार करते, वहीं चोरी-छुपे हमारी स्वाति यह मनाती कि छुट्टियाँ कभी हों ही नहीं।

            इसकी वजह यह थी कि छुट्टियों में स्वाति अकेली पड़ जाती थी। उसके पापा-मम्मी काम पर चले जाते, और वह अपनी आया झूमा के साथ वादी के कोने में बने अपने मकान में अकेली रह जाती। खिड़की के पास खड़ी हो कर, हाथ हिला-हिला कर, स्वाति मम्मी-पापा को तब तक टाटा करती जब तक वे सड़क पर दिखाई देते। पापा-मम्मी जब आँखों से ओझल हो जाते, तब स्वाति खिड़की के पास खिलौनों से खेलती। कभी गुड्डे-गुड़िया का ब्याह रचाती तो कभी गुड़िया को पार्टी ड्रेस पहनाती। कभी किसी कॉमिक को दोबारा पलटती, तो कभी अपनी मम्मी की किताबें पढ़ने की कोशिश करती। कभी टीवी देखती, कभी रेडियो सुनती और कभी म्यूज़िक सिस्टम पर गाने, पर उसका मन किसी चीज़ में भी ज़्यादा देर तक नहीं लगता। पापा का स्नेह, मम्मी का प्यार, सहेलियों की चुहल इन सबके मुक़ाबले बेजान गुड्डे-गुड़िया, किताबें, और टीवी-रेडियो-म्यूज़िक सिस्टम भला कब तक उसका मन बहलाते? वह घण्टे-डेढ़ घण्टे में ही परेशान हो जाती और आया को पुकारती, ’’झूमा! मम्मी कब आएँगी?’’

            ’’बाबा, मम्मी तो शाम को आएँगी।’’

            ’’झूमा! पापा कब आएँगे?’’

            ’’बाबा, पापा भी शाम को आएँगे।’’

            ’’तो फिर तुम यहाँ क्या कर रही हो? तुम भी घर जाओ। छोड़ दो मुझे अकेला!’’

            ’’बाबा, मैं आपको अकेला कैसे छोड़ दूँ? मम्मी-पापा ग़ुस्सा करेंगे।’’

            बारह बजते-बजते स्वाति का पारा आसमान छू जाता। वह आया से झगड़ती। कभी दो निवाले खाती, कभी भूखी-ही रह जाती। दोपहर को जब आया सो जाती, स्वाति खिड़की पर एक बार फिर आती। पेड़ों पर चहचहाते परिन्दों को देखती। साँप जैसी टेढ़ी-मेढ़ी सड़क पर चलते पहाड़ी लोगों को देखती। गाड़ियों को देखती, जो इतनी दूर से नाखून से भी छोटी लगतीं। और फिर उसकी निगाहें अटक जातीं एक छोटे-से मकान पर। दोपहर बाद वह मकान धूप में चमक उठता। उसकी भूरी चिमनी सोने जैसी जगमगाती, और उसकी छत पर बनी टंकी से लगे स्टील के पाइप चाँदी जैसे चमचमाते।

            सफ़ेद रंग का वह मकान आस-पास के हरे बग़ीचे में ऐसा दिखता, जैसे हरे सीप में मोती चमक रहा हो। इतनी सुन्दर चीज़ दिखे, तो हर कोई निहारेगा। लेकिन स्वाति तो उस मकान को बड़े ख़ास अंदाज़ से देखती। जानते हैं, क्यों? क्योंकि दोपहर में जब वह मकान सूरज की किरणों में नहाता, तो उसका हरा दरवाज़ा ख़ुलता। बाहर आतीं एक महिला। वह महिला स्याह रंग के एक गाउन में होतीं। सफ़ेद बाल उनके कंधों पर बेतरतीब बिखरे होते। उनके पैरों में ऊनी मोज़े होते, जूते होते, दाएँ हाथ में होती एक छड़ी, और बाएँ हाथ में होता एक मग। वैसा मग नहीं जो प्लास्टिक का होता है, जिससे पेड़-पौधों पर पानी डालते हैं। वैसा मग, जो चीनी मिट्टी का होता है, जिसमें चाय-कॉफ़ी पीते हैं। वह महिला भूरे फ्रेम का एक चश्मा लगाए होतीं, जिसके शीशे गोल कटे होते। वे दरवाज़े से बाहर आतीं, सूरज को देखतीं, और बग़ीचे में ख़रामा-ख़रामा आगे बढ़तीं। बग़ीचे में एक बेंच थी। वे उस बेंच के हत्थे पर इतने हौले-से छड़ी टिकातीं, जैसे ज़रा-भी ज़ोर से छड़ी रखने पर या तो बेंच टूट जाएगी या छड़ी, या कोई ज़ोरदार धमाका होगा जिससे आसपास के परिंदे और जानवर घबरा जाएँगे। वे धीमे से बेंच के सामने आतीं और उस पर बैठ जातीं अपना गाउन सम्हालते हुए। न जाने कितनी चाय या कॉफ़ी समाती थी उनके मग में! वे घण्टा-भर उस मग से चुस्कियाँ लेतीं। बग़ीचे की गिलहरियाँ उन्हें शायद उस बेंच का ही एक हिस्सा समझती थीं। पेड़ से गिरे फल खाने के लिए गिलहरियाँ उनके बहुत क़रीब पहुँच जातीं, पर उन महिला को जैसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। वे शान्त बैठी रहतीं। जब धूप बग़ीचे से सरक कर बाहर फिसल जाती, वे धीमे-धीमे उठतीं, अपनी छड़ी सम्भालतीं, और घर के अन्दर दाख़िल हो जातीं। हरा दरवाज़ा बन्द हो जाता।

            स्वाति को बड़ा कौतूहल होता। एक दिन वह उन महिला को घर के अन्दर घुसते देख रही थी कि महिला दरवाज़े पर ठिठक कर घूमीं, और स्वाति की तरफ़ ही देखने लगीं। साँस लेने की आवाज़ बड़े क़रीब से आई। डर के मारे स्वाति को पीठ पर चींटियाँ-सी रेंगती महसूस हुईं। तभी एक आवाज़ आई, ’’बाबा!’’ स्वाति घबराहट में काँप गई। उसका गला सूख गया। लेकिन यह आवाज़ झूमा की थी। स्वाति को घबराया देख झूमा परेशान हो गई।

’’क्या हुआ बाबा? तबीयत तो ठीक है?’’

            ’’वह ... वह ... ’’ स्वाति ने छोटे मकान की ओर इशारा किया।

            झूमा ने मकान की तरफ़ देखा। अब तक महिला अन्दर जा चुकी थीं। हरा दरवाज़ा बन्द हो चुका था। झूमा को कुछ भी अजीब न दिखा।

            ’’’वहक्या, बाबा?’’

            ’’वह, उस मकान में सचमुच कोई रहता है या ... ’’

झूमा स्वाति के डर का सबब जान गई।

’’वह! वह तो मिसेज़ मैसी हैं, बाबा।’’

            ’’मिसेज़ मैसी कौन हैं? वह ऐसे अकेले क्यों घूमती हैं?’’

            ’’मिसेज़ मैसी एक विधवा हैं।’’

            ’’विधवा, यानी?’’

            ’’विधवा, यानी जिसके पति का देहान्त हो गया हो।’’

            ’’ओह!’’ स्वाति का भय करुणा से भींग गया। ’’तो, उनका कोई बच्चा नहीं है क्या?’’ उसने पूछा।

            ’’बाबा, मिसेज़ मैसी के पति भारतीय फ़ौज में थे। सन् 1971 की लड़ाई में वे शहीद हो गए। उस समय मिसेज़ मैसी बाईस-तेईस साल की थीं। उनका एक बच्चा था, एक लड़का। मिसेज़ मैसी उन दिनों दिल्ली में रहती थीं। उन्होंने अपने लड़के को पढ़ाया-लिखाया, लायक बनाया। और एक दिन उनका लड़का भी फ़ौज में भर्ती हो गया। मिसेज़ मैसी उस लड़के की शादी का इन्तज़ाम कर रही थीं कि उनका लड़का करगिल सीमा पर शहीद हो गया। अब तो उस बात को भी बरसों गुज़र गए। मिसेज़ मैसी रातों-रात बुड्ढी हो गईं।’’

            ’’उन्होने अपने बेटे को फ़ौज में भेज कर ग़लती की न? अगर उनका लड़का फ़ौज में न होता, तो अभी ज़िन्दा होता और मिसेज़ मैसी को अकेली नहीं रहना पड़ता।’’

            ’’बाबा, ऐसी बातें बुज़दिल करते हैं। मरने को तो आदमी पेड़ से गिर कर भी मर जाता है और नदी में डूब कर भी, पर अपने वतन के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देने की हिम्मत तो, बस, दिलेरों में ही होती है। मिसेज़ मैसी तो बोलती हैं कि अगर उनका कोई दूसरा लड़का होता, तो उसे भी वे फ़ौज में ही भेजतीं दुश्मनों के दाँत खट्टे करने के लिए।’’

            ’’हूँ ऽऽऽ ... ,’’ स्वाति सोच में डूब गई। न जाने क्यों उसे ऐसा लगा जैसे मिसेज़ मैसी उससे कहीं ज़्यादा अकेली हों। काश, वह उनके साथ दिन गुज़ार पाती! लेकिन पापा-मम्मी की सख़्त हिदायत थी कि घर छोड़ कर कहीं न जाना।

            शाम होने को थी। झूमा ने खिड़की बन्द कर दी। सर्द हवाओं से बीमार पड़ने का डर था वरना। पापा-मम्मी के घर लौटने का वक़्त भी होनेवाला था। स्वाति उनका इन्तज़ार करने लगी। दो दिन बाद उसका जन्मदिन था। एक साल से स्वाति को इस दिन का इन्तज़ार था। कभी सोचती कि गुड़ियों का नया सेट माँगे, तो कभी सोचती कि बेबी साइकिल माँगे। कभी उसका मन किसी नए गैजेट पर अटक जाता। आप भी तो अपने जन्मदिन पर तोहफ़ों की फ़र्माइश करते होंगे!

            शाम को मम्मी-पापा के आने से लेकर रात बिस्तर पर सोने तक स्वाति उनसे बातें करती रही। अंत में पापा ने पूछा, ’’हमारी प्यारी बेटी को बर्थ डे पर क्या चाहिए?’’

            स्वाति के मन में आया कि साइकिल से ले कर गैजेट तक सारी फ़ेहरिस्त सुना डाले। लेकिन मिसेज़ मैसी के त्याग की बात सुनने के बाद उसे कुछ भी माँगने की इच्छा न हुई। उसने कहा, ’’बस, पापा-मम्मी, उस दिन आपलोग जल्दी लौट आइएगा।’’

            और फिर स्वाति का जन्मदिन आ गया। मम्मी-पापा ने उसे उठाया, प्यार किया, और मम्मी ने एक सुन्दर-सी गुड़िया थमा दी उसके हाथ में। पापा ने उसे बेंत की एक डोलची दी। स्वाति ने डोलची में झाँक कर देखा तो उसकी बाँछें खिल गईं। डोलची में एक नन्हा-सा कुत्ता था। सफ़ेद और भूरे बालों वाला वह कुत्ता बटन जैसी आँखों से स्वाति को देख रहा था। स्वाति ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा, तो कुत्ता लपक कर उसकी गोद में बैठ गया और उसकी नाक से नाक रगड़ने की कोशिश करने लगा।

            पापा-मम्मी उस दिन जल्दी लौटने का वायदा कर के गए। स्वाति ने नए कपड़े पहने। वह बहुत ख़ुश थी। उसका जन्मदिन जो था! दोपहर में ही पापा-मम्मी वापस आ गए। स्वाति गुड्डे-गुड़िया से खेल रही थी। पापा बोले, ’’और वह भू-भू क्या हुआ, हमारी स्वाति बिटिया के अकेलेपन का साथी?’’

            स्वाति उन्हें खिड़की के पास ले गई। पापा, मम्मी और स्वाति ने देखा, सामने छोटा-सा मकान धूप में चमक रहा था। बेंच के हत्थे पर छड़ी टिकी थी, पर बेंच पर मिसेज़ मैसी नहीं थीं। वे बग़ीचे में खड़ी थीं और कुत्ता उनके इर्द-गिर्द उछल रहा था। मिसेज़ मैसी को इतना ख़़ुश देख कर स्वाति चहक उठी, ’’पापा! कल तक मैं अपनी ख़ुशी से ख़ुशी मानती थी। आज दूसरों की ख़ुशी से मुझे इतनी ख़ुशी मिल रही है कि क्या बताऊँ! आपके तोहफ़े ने मुझे ख़ुशी दी और मिसेज़ मैसी का अकेलापन दूर कर दिया।’’ वह अपने पापा से लिपट गई।

            सच है, जो ख़ुशी त्याग में होती है, दूसरों को प्रसन्नता देकर मिलती है, उससे अच्छी कोई ख़ुशी नहीं होती। अगर हर कोई अपने जन्मदिन पर दूसरों को ख़ुशी का तोहफ़ा दे, तो दुनिया में कोई दुःखी नहीं रहेगा।