शाम हौले से अपना पल्लू समेट रुख़सत हो चुकी थी। रात को जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने में देर थी। सुरेखा अपने कमरे में थी, दुतल्ले पर। छोटा-सा एक कमरा। तीन तरफ़ बिखरा दीवारों-दरवाज़ों का मायाजाल; एक तरफ़ एक झरोखा। यही उसकी मनपसंद जगह थी। उसका बिस्तर इसी झरोखे से सट कर लगा था। खिड़की का पर्दा हवा के झोंकों में इठलाता; पर्दे में टँकी नन्ही-नन्ही घंटियाँ टुनटुनातीं, और बिस्तर से सुरेखा को आसमान में टिमटिमाते तारे और उनसे अठखेलियाँ करता चाँद दिखता।
पास-ही
आले पर रखे रेडियो पर एक गीत बज रहा था। सुरेखा आँखें मींच कर गीत सुनने लगी। लेकिन
यह क्या? अचानक गीत की मधुर स्वर लहरी को कर्कश ध्वनि ने डँस लिया। शोर में गीत का
वजूद गुम हो गया। शोर, जो कई आवाज़ों के मेल से बना था। लोहे के लोहे से टकराने की आवाज़।
शीशा छनछना कर टूटने और किर्च-किर्च बिखरने की आवाज़। सड़क के पत्थरदिल सीने पर फ़ौलाद
के घिसटने की आवाज़। और फिर, कोई आवाज़ नहीं—सिर्फ़ सन्नाटा! दिल दहला देने वाला सन्नाटा!!
सुरेखा घबराई। उठी। खिड़की से नीचे सड़क की ओर झाँका।
सड़क पर
जुगनू-ही-जुगनू बिखरे थे। उसे विश्वास न हुआ। ध्यान से देखा। वे काँच के टुकड़े थे जिन
पर लैम्प पोस्ट की रोशनी चमक रही थी। एक ओर एक स्कूटर ढुलका पड़ा था। दूसरी ओर पड़ा था
एक शरीर। बस, एक शरीर। ज़िंदा या मुर्दा, मालूम नहीं। सुरेखा थोड़ी देर ताकती रही। शायद
कोई सड़क से गुज़रे। शायद वह शरीर हिले। पर नहीं। न कोई सड़क से गुज़रा; न सड़क पर पड़े लावारिस
जिस्म में कोई हरकत हुई।
सुरेखा
को अहसास हुआ—यह एक सड़क दुर्घटना थी। एक ऐसी दुर्घटना जिसमें आहत करने वाला सुनसान
रास्ते का फ़ायदा उठा कर फ़रार हो गया था। सुरेखा लपक कर नीचे उतरी। भाई घर नहीं लौटा
था। माँ-बाबूजी को बताया। इससे पहले कि माँ-बाबूजी ठीक से समझ पाते, सुरेखा सड़क पर
थी। बाबूजी भी लपकते हुए आए। वे ज़ख़्मी को पलटने की कोशिश करने ही वाले थे कि सुरेखा
ने चेतावनी दी—“नहीं! न उसे हिलाइए, न उठाइए। गर्दन या पीठ में चोट हो सकती है, बाबूजी!”
गनीमत
थी कि अजनबी ने हेलमेट पहना हुआ था। वह अचेत था। सुरेखा फिर बोली, “बाबूजी, प्लीज़!
टॉर्च …” आधे रास्ते आई माँ पलट कर वापस गईं और टॉर्च ले आईं। सुरेखा ने अजनबी के मुँह
में दो उँगलियाँ डाल कर मुँह के अन्दर इकट्ठा चीज़ें निकालीं—एक अदद पूरा दाँत, दाँत
का आधा टुकड़ा, और ख़ून का थक्का। अजनबी के गालों से रक्त बह रहा था।
सुरेखा
फिर बोली, “एक जग पानी! सैवलॉन!”
थोड़ी देर
बाद अजनबी सुरेखा के ड्रॉइंग रूम में था। मुश्किल से बोल पा रहा था, पर ठीक था। कुछ
इशारों से, कुछ डायरी की मदद से, और कुछ बोल कर उसने बताया कि उसका नाम अक्षत है, वह
पी एच डी का छात्र है, और छात्रावास में रहता है। सुरेखा का भाई, विनय, अक्षत को छात्रावास
छोड़ आया।
मध्यमवर्ग
के शांतिप्रिय परिवार के लिए यह घटना टी वी सीरियल से ज़्यादा अहम थी। उस रात सोने
तक इसी घटना की चर्चा होती रही, और होता रहा बखान सुरेखा की समझदारी का। जैसे वह एम
ए की छात्रा न हो कर एम बी बी एस की छात्रा हो, या फ़्लोरेंस नाइटिंगेल हो! सुरेखा बिस्तर
पर लेटी तो ज़रूर, पर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। पास थे ख़याल, जीवन की नश्वरता
के। जीवन जैसे माला हो मनकों की। मनकों के आकर्षण पर तो सब रीझते हैं, पर डोर की कमज़ोरी
की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता।
दुर्घटना
को दो दिन बीत गए। बात आई-गई हो गई। बचे, तो सड़क पर स्कूटर घिसटने के दाग़। सुरेखा ने
विनय से पूछा, “उस लड़के को देखा था, जिसका एक्सिडेंट हो गया था?”
“हाँ!
क्या हुआ उसे?” विनय उल्टा पूछ बैठा।
“अरे, मैं ये पूछ रही हूँ कि फिर जा कर देखा था उसे हॉस्टल में?”
” पागल हो
क्या? उसके दोस्त-वोस्त होंगे, वार्डन-शार्डन होंगे—देख ही लेंगे। हमने पहले ही ज़रूरत
से ज़्यादा कर दिया है उसके लिए।“ विनय लापरवाही से कॉलर ठीक करता हुआ बोला।
बाबूजी, माँ, दोनों सुन रहे थे। सुरेखा की बात उन्हें ठीक लगी।
विनय को जाना पड़ा अक्षत को देखने। वापस आया तो बोला, “माँ! उसका गाल तो फ़ुटबॉल की तरह
फूल गया है। बुख़ार भी है।“
“दवा-दारू चल रही है या नहीं?” माँ ने पूछा।
“दवा तो चल रही है, दारू के बारे में पता नहीं!” विनय शरारत
से बोला। फिर सुरेखा की तरफ़ अर्थपूर्ण नज़रों से देखता हुआ बोला, “हम सबको धन्यवाद दे
रहा था। ख़ास तौर पर दीदी को।“
सुरेखा को थोड़ा ग़ुस्सा आया, पर चुप रही। माँ को सब्ज़ियाँ काटती
छोड़ वह ऊपर चली गई, अपने कमरे में। विनय बाहर निकल गया दोस्तों में। सुरेखा काफ़ी देर
बाद नीचे उतरी, जब माँ ने खाना खाने के लिए आवाज़ दी। चुपचाप खाना खाया, एक-आध ज़रूरी
बात की, और चली गई वापस अपनी शरणस्थली, अपने कमरे में।
गुमसुम
रहना न जाने कब से सुरेखा का स्वभाव बन चुका था। बाबूजी, माँ, विनय—सब इस बात से वाक़िफ़
थे। कब, कौन-सी बात सुरेखा के जी को छू जाएगी, कहना मुश्किल था। एक बार उदास हो जाए
तो पूरा दिन, और कभी-कभी तो कई दिन लग जाते थे उसे सामान्य होने में। उसके स्वभाव की
गुत्थियाँ सुलझाने में सब पस्त हो जाते, हार जाते। सच पूछिए, तो अब सबने यह प्रयास
ही छोड़ दिया था। तनहाई ही हमदर्द थी, हमराज थी सुरेखा की। बाक़ी साथी जैसे कोई था ही
नहीं।
एक सुबह
सुरेखा नहा कर खिड़की के पास खड़ी थी। नीचे नज़र गई, तो देखा, कोई ऊपर की तरफ़ ही ताक रहा
है। एक फूला, काला गाल; एक गोरा पिचका गाल लिए अक्षत उसे देख रहा था।
सुरेखा
को देख कर अक्षत ने हाथ हिलाया। शायद कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से, क्योंकि मुँह विकृत कर
दायें हाथ को बायें से तुरत थाम लिया अक्षत ने। उसने कुछ ऐसा मुँह बनाया, कि सुरेखा
को हँसी आ गई। सीढ़ियाँ उतरते समय भी उसके होठों पर हँसी खिल रही थी। अक्षत ड्राइंग
रूम में आ चुका था। बाबूजी और विनय भी वहीं थे। सुरेखा ने छूटते ही पूछा, “कहिए! कैसे
हैं?”
“बस, आपकी
दया से बच गया उस दिन, वरना …” अक्षत कृतज्ञता से बोला।
“ऐसी कोई
ख़ास चोट तो नहीं लगी थी आपको। बस, मुँह पर एक खिड़की खुल गई।“ सुरेखा ने शरारत से कहा।
“एक दरवाज़ा
भी!” अक्षत के नहले पर दहला जड़ते ही सब हँस पड़े। थोड़ी देर बाद अक्षत चला गया। सुरेखा
ने चहकते हुए कहा, “माँ, देखा? अक्षत कितना ठीक हो गया है!”
माँ ख़ुश
थीं। बाबूजी भी। पर, सुरेखा को विनय की आँख में एक विचित्र भाव दिखाई दिया। एक ऐसा
भाव जो पहले कभी नहीं दिखा था।
शाम को
अक्षत का फ़ोन आया। अगली शाम को भी। फ़ोन रखने के बाद माँ की निगाहें सवालिया-सी लगीं
सुरेखा को। निर्विकार थे तो सिर्फ़ बाबूजी। वह थोड़ा सिटपिटाई। थोड़ा ग़ुस्सा भी आया।
न जाने किस पर। हर कोई अपनी जगह ठीक था, हर प्रतिक्रिया तर्कसम्मत थी, पर उसे न जाने
क्यों कटघरे में खड़ा कर जाती थी। हाल ये हो गया, कि अक्षत का नाम आते ही सुरेखा के
चेहरे का रंग बदल जाता।
एक दिन
सुरेखा ने बड़ी देर तक बात की फ़ोन पर। माँ ने सुनने की, हावभाव भाँपने की कोशिश की।
सुरेखा कभी ख़ुश होती, खिलखिलाती, और कभी संजीदा हो जाती। कभी देर तक चुप रहती, मानो
डेड रिसीवर थामे हो। माँ की समझ में कुछ न आया, तो वे वापस जुट गईं अपनी दिनचर्या में।
थोड़ी देर
बाद सुरेखा उतर कर आई, बाहर जाने को तैयार। माँ चौंकीं, “कहाँ जा रही हो, सुरी?”
“अक्षत
के पास।“ सुरेखा ने छोटा-सा जवाब दिया।
“अक्षत
के पास? कोई ख़ास बात है क्या?”
“हाँ!”
जवाब इतना संक्षिप्त था कि कि माँ सकपका गईं। कुछ अंदेशा-सा
हुआ उन्हें, लेकिन बोल सिर्फ़ इतना-भर सकीं, “जल्दी आ जाना, बेटा।“
सुरेखा
ने, पता नहीं, सुना भी या नहीं। माँ को सीने में दर्द-सा महसूस हुआ। सुरेखा को गए पाँच
मिनट भी न हुए थे कि वे घड़ी देखने लगीं। बार-बार। हिसाब जोड़तीं, सुरेखा को गए कितना
समय हुआ। थोड़ी देर बाद विनय भी आ गया। वैसे तो उसे घर के कामकाज से कोई सरोकार न था,
पर आज माँ से पूछ बैठा, “माँ! सब ठीक तो है?”
माँ बेचारी
क्या कहतीं! दिल-ही-दिल में सोचने लगीं, “लड़की इतनी बड़ी हो गई। इनकी समझ में तो कुछ
आता नहीं। इतना कहा कि अच्छा लड़का देख कर शादी तय कर दी जाए, पर कहाँ? अब न जाने कहाँ
गई है! कुछ कर न बैठे। अगर कर लेगी, तो क्या मुँह दिखाऊँगी सबको? फूल जैसी बच्ची, इतने
प्यार में पली, और अब ...” माँ रुआँसी हो गईं।
खाने का
समय गुज़र गया था। विनय खाना खा चुका था, बाबूजी खाना खा रहे थे। माँ कभी पतीलों को
देखतीं, कभी घड़ी को। बाप-बेटे दोनों को ही बताया था कि सुरेखा किताब ख़रीदने गई है,
शायद देर से लौटे। पर कब तक यह रहस्य छुपातीं कि सुरेखा अक्षत के पास गई है बाहर जाने
के कपड़े पहन कर, शायद कभी न लौटने के लिए!
कदमों
की आहट से माँ की तंद्रा टूटी। हड़बडा कर उठीं। बाबूजी के हाथ में कौर धरा रह गया। दरवाज़े
से अंदर आने वाला पहला कदम अक्षत का था। उसके पीछे थी सुरेखा।
अक्षत
के नमस्कार का ठीक से जवाब नहीं दे पाए माँ-बाबूजी। सुरेखा सकुचाते हुए बोली, “अक्षत
आशीर्वाद माँगने आए हैं।“
“किस बात
का?” माँ ने सहज होने की असफल चेष्टा के साथ पूछा।
“शादी
का!”
“शादी?”
बाबूजी, माँ चौंक गए। विनय भी बगल के कमरे से आ गया, पाजामे-बनियान में।
“हाँ,
शादी!”
“पर, तुम
…” माँ-बाबूजी के ऊपर जैसे कोई बम फट पड़ा था।
“माँ!
अक्षत का यहाँ कोई है नहीं। उस घटना के बाद से हमें ही अपना समझने लगे। तो बस, शादी
का आशीर्वाद लेने हमारे ही घर आ गए।“
माँ-बाबूजी
सकते में थे। ख़ामोश रहे। अक्षत भी असमंजस में था। सुरेखा ने ही बात आगे बढ़ाई, “माँ,
बहू को तो बुलाइए! कब तक बाहर खड़ी रहेगी बेचारी?”
“हाँ,
हाँ …” माँ तपाक से बाहर निकलीं, जहाँ शर्म से दोहरी एक युवती खड़ी थी।
माहौल
ऐसे बदल गया, जैसे अंतिम गेंद पर छक्का जड़ हार की कगार पर डगमगाता मैच जीत लिया गया
हो! काफ़ी देर तक ठहाके, खिलखिलाहट गूँजती रही। फिर युवती बोली, “सुरेखा जी, आपको कैसे
धन्यवाद दूँ! आपने रात के समय एक ऐसे शख़्स की मदद की जो आपके लिए अजनबी था। अगर समय
पर मदद न मिलती, तो शायद ये दुर्घटना एक हादसे में बदल जाती। बाद में भी आपने अक्षत
का खयाल रखा, सिर्फ़ इंसानियत के नाते। संवेदनशील होने की वजह से। आपके और अक्षत के
सामीप्य का कुछ दूसरा अर्थ भी निकल सकता था। शायद आप कुछ झंझावातों से भी गुज़री हों,
पर …”
“यह सब
आपको कैसे मालूम?” सुरेखा ने मासूमियत से पूछा।
“नारी
संवेदना का एक पहलू ये भी तो है!” युवती मुस्कुराई। बाबूजी और अक्षत भी। माँ की आँखों
में बादल घुमड़ रहे थे। सुरेखा विनय की आँखों में न देख पाई। उसकी आँखें नीची जो थीं।
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