मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

रक्षक


 “ओSSSSSSSSS SSSSSSSSS SSSSSSSSS

माँ का भयातुर चीत्कार रात के निस्तब्ध हृदयपटल में सिद्धहस्त शल्यचिकित्सक के धारदार चाकू की तरह उतर गया। उनके मुख से अनजाने ही निकला, “सर्वनाश!” चौखट पर खड़ी धर्मभीरू माँ के पैर अदृश्य बेड़ी से जकड़ गए, शरीर मिर्गी के दौरे की तरह काँपने लगा, आँसुओं से दृष्टि धूमिल हो गई, और काँपते होंठों से अस्फुट शब्द निकलने लगे, “हे माँ, रक्षा करो! … हे माँ, रक्षा करो! … हे माँ, रक्षा करो!”

दुर्गा पूजा बीते कुछ ही दिन हुए थे। दीवाली आने वाली थी। माँ रोज़ की तरह ब्रह्म मुहूर्त में उठी थीं, इकलौती संतान, दुधमुँही बच्ची, को स्नेह से थपथपा कर तकियों की दीवारों के बीच सुलाया था, और स्नेहसिक्त नेत्रों से उसे तब तक निहारती रही थीं जब तक वह कुनमुनाना बिसरा कर शान्ति से सो नहीं गई थी। पिताजी के काम से लौटने में समय था। वे पत्रकार थे। रात खाना खाकर अख़बार के दफ़्तर जाते, तो भोर आठ बजे के बाद ही लौटते थे। उनके वापस आने से पहले माँ एक कमरे का घर साफ़ करतीं, रसोई बनातीं, और पास के कुएँ से दो घड़ों में पानी लाकर एक कोने में रख देतीं। उनकी पूरी कोशिश रहती कि पिताजी घर वापस आकर कम-से-कम तीन घंटे आराम की नींद सो सकें।

हिन्दी अख़बार के उपसम्पादक को पटना के मीठापुर जैसे निम्नमध्यमवर्गीय इलाक़े में टूटी खपरैल की छत के नीचे एक कोठरी, अहाते के भीतर कुआँ, तीन किरायेदारों के साझा उपयोग के लिए एक पाख़ाना और एक स्नानघर की राजसी सुविधा मिलना लगभग असम्भव था, ख़ासकर जब उसे तीन-चार महीनों में एक बार ही वेतन मिल पाता हो और कमरे के किराये का भुगतान भगवान-भरोसे रहता हो। पिताजी ने महीना-भर कई मुहल्लों में सर छुपाने की जगह खोजी थी, लेकिन तीन महीने के किराये के अग्रिम भुगतान के बग़ैर सीढ़ी के नीचे के स्थान की भी मनाही हो जाने पर उनका आत्मविश्वास ताश के महल की तरह धराशायी हो गया था।

माँ-पिताजी की विपन्नता रेगिस्तानी बवंडर में फँसे बटोही की तरह उजागर होने को ही थी जब भवानी बाबू ने उनका उद्धार किया था। भवानी बाबू, यानी भवानी सहाय, कोठरी के मालिक। उनकी पत्नी स्कूल में शिक्षिका थीं। अक्खड़ स्वभाव ने भवानी बाबू को नौकरी करने या व्यवसाय चलाने के योग्य न छोड़ा था। वे कट्टर आर्यसमाजी और आदर्शवादी थे। पिताजी का अन्तर्राज्यीय विवाह, नौकरी करने के बावजूद उनका पढ़ाई जारी रखना, पत्रकारिता-जैसा सम्माननीय काम करना, और माँ के वंशवृक्ष में विवेकानन्द और सुभाष बोस जैसी महान विभूतियों की उपस्थिति—इतने गुणों के आगे वे समय पर किराया न मिलने जैसे कष्ट को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। इतना ही नहीं, उनकी पत्नी माँ की ‘माताजी’ बन चुकी थीं, वे स्वयं पिता-समान हो गए थे, और उनका जवान बेटा मुन्नू भाई-जैसा बन गया था।

माँ दरवाज़े पर जड़वत खड़ी थीं। चौखट के सामने था सिंदूर में सना नरमुंड, एक लाल कपड़ा, पत्तों की पोटली, कुछ काले दाने, भभूत, फूल, तेल, दिया, और न जाने क्या-क्या। स्पष्ट था कि उस अनुष्ठान को करनेवाला भलीभाँति जानता था कि सभी निवासियों में माँ सबसे पहले उठ कर बाहर निकलती थीं। संभवतः उसे यह अनुमान भी था कि छोटी बच्ची को मुँहअँधेरे घर में अकेली छोड़ कर बाहर निकलती माँ की दृष्टि फ़र्श की बजाय कुएँ की जगत की ओर गड़ी होती थी। शीघ्रातिशीघ्र घड़े भरने की उतावली में उनके पैर का उस सामग्री पर पड़ना स्वाभाविक होता। लेकिन वैसा हुआ न था; रात के अँधेरे में माँ ने उस सामग्री को आवारा कुत्ता जान क़दम रोक लिए थे। दूसरे ही पल उन्हें असलियत का भान हुआ था और उनके मुख से बरबस चीख निकल गई थी।

नरमुंड के सामने रखा दिया टिमटिमा कर माँ को चिढ़ा रहा था। उन्होंने संयम बटोरने की चेष्टा की, किन्तु वह तो मुट्ठी से रेत की तरह कब का फिसल चुका था! ओसारे पर नज़र दौड़ाई तो पाया कि दाहिनेवाली दोनों कोठरियों के दरवाज़ों के सामने भी जादू-टोने का सामान रखा था, बस नरमुंड नहीं थे वहाँ। वही हाल बाईं ओर की कोठरी का भी था जिसमें भवानीबाबू स्वयं रहते थे। उसके दरवाज़े की साँकल उतरी, भड़भड़ा कर किवाड़ खुले, और बिखरे बालों तथा उनींदी आँखों से तहमद बाँधते भवानी बाबू ने प्रश्नवाचक दृष्टि से माँ की ओर देखा। कोई सवाल-जवाब नहीं हुआ उनके बीच। माँ की कातर मुद्रा और भूमि पर पड़ी सामग्री की चुनौती से उनका पौरुष बिफर उठा, “तू किवाड़ बन्द कर अन्दर जा बेटी, हम अभी ठिकाने लगाते हैं इस स्साले खोपड़ को! बहुत फुटबॉल खेला है जवानी में, आज फिर खेलेंगे एक बार!”

पर माँ पर तो जैसे किसी ने जादू कर दिया था। वे वहीं सम्मोहित-सी खड़ी देखती रहीं। भवानी बाबू ने लात मार कर खोपड़ी को ओसारे से बाहर उछाला, फिर ठोकर मार-मार कर नाले में लुढ़का दिया। वापस आकर उन्होंने हर दरवाज़े के सामने से जादूटोने की सामग्री उठा कर एक टोकरी में डाली, और उसे भी बहते नाले को सुपुर्द कर आए। अंत में वे ओसारा धोने लगे। हाँलाकि सुबह की पहली किरण के फूटने में देर थी, लेकिन तब तक शेष कोठरियों के निवासी जाग कर अपने-अपने दरवाज़े पर आ गए थे। माँ भवानी बाबू की सहायता करने को उद्यत हुईं तो माताजी का स्वर उभरा, “नहीं, बेटी! तुम बाहर मत निकलो। जाओ, अपनी बच्ची के पास रहो।“

माँ ने यह आपबीती मुझे कई साल पहले सुनाई थी। मैंने पूछा था, “फिर हमलोगों को कोई बड़ी परेशानी हुई थी क्या?”

“नहीं, भवानी बाबू ने हमें बचा लिया!” माँ ने कहा था।

“और उनको कोई प्रॉब्लेम हुआ?”

माँ थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर बोलीं, “उनके साथ बहुत-कुछ घटा। अब इस वजह से कि किस वजह से, पता नहीं, लेकिन उनका ऐक्सिडेंट हो गया। ज़िंदगी-भर लाठी के सहारे चलते रहे बेचारे। मुन्नू भी शायद किसी पुलिस केस में फँस गया। ठीक से पता नहीं, क्योंकि उस घटना के कुछ ही दिन बाद तुम्हारे पिताजी की नौकरी लग गई थी बम्बई में, और हमने वह घर हमेशा के लिए छोड़ दिया था।“

“और वो जंतर-मंतर जिसने किया था, उसका पता चला?”

“शायद!” माँ के रोंगटे खड़े हो गए थे और उनकी आँखों में भय उतर आया था। “जाने दो, उतनी पुरानी बात याद करने का क्या फ़ायदा?” कह कर वे चुप हो गई थीं।

शायद आप पूछें कि मैं आज उस सत्तर-बहत्तर साल पुरानी घटना का ज़िक्र क्यों कर रहा हूँ।

बात यह है, कि इस समय भी दुर्गा पूजा और दीवाली के बीच का काल चल रहा है और आज सुबह मुझे दुबई के पुराने मुहल्ले, बरदुबई, के एक चौराहे पर वैसा ही जादूटोना किया दिखाई पड़ा है। अफ़सोस, भवानी बाबू मौजूद नहीं हैं मेरी रक्षा को आज!